नारी जो त्याग की मूरत कही गयी है ,प्रेम का झरना उसके अंदर बहता है। ममता में डूबी उसकी नजरें ,उसे वात्सल्य की प्रतिमूर्ति बना देते हैं। भक्ति और प्रेम भाव उसमें जन्म से ही होता है। नाजुक और मोहक रंग रूप होने के साथ -साथ वो सहनशील ,धैर्यवान और परिवार पर या अपने ऊपर विपत्ति पड़ने पर साहस भी उसमें कूट -कूटकर भरा होता है। अपने परिवार के लोगों के लिए ,दृढ़ता से विपत्तियों का सामना करती है। ससुराल में रहकर ,अपने पति और परिवार के लिए अपना जीवन न्यौछावर करती है। ऐसी नारी जो अन्नपूर्णा ,गृहलक्ष्मी ,घरवाली ,पिया की प्यारी, प्रियतमा ,उसके सत के कारण उसे सती भी कहा गया है।
एक वह नारी थी ,जो पति के सक्षम न होते हुए भी उससे विवाह करती है ,उसका जीवनभर साथ निभाती है ,तब घर -घर यही गाना गूंजता था -
'' तुम्हीं मेरे मंदिर ,तुम्हीं मेरी पूजा...... तुम्ही देवता हो, तुम्ही देवता हो।''
सावित्री को मालूम था, कि उसका पति अल्पायु है, तब भी वह उससे विवाह करके जीवन बसर करने का निर्णय लेती है। वह एक राजकुमारी होकर भी एक लकड़हारे से प्रेम करती है , और राजमहल छोड़ जंगल में जीवन बसर करती है। प्रेम भी इतना अधिक जब यमराज उसके प्राण लेने आते हैं , तब वह भी यमराज के पीछे-पीछे चल देती है और यमराज से अपने पति के प्राणों की रक्षा करके आती है।
सावित्री का उदाहरण लेकर आज भी, महिलाएं उसे स्मरण करके 'वट सावित्री 'की पूजा करती हैं और व्रत रखती हैं ताकि उनके पति की आयु भी अधिक हो, और यमराज से उनके पति की रक्षा हो सके।
''करवा चौथ'' का व्रत भी इसीलिए रखा जाता है, ताकि पति की लंबी उम्र हो, हालांकि कुछ लोग, अब इन परंपराओं में विश्वास नहीं रखते हैं, कुछ लोगों का कहना है -''व्रत रखने से पति की आयु लंबी नहीं होती, किंतु यह तो अपनी- अपनी श्रद्धा और अपना विश्वास है,पहले वो विश्वास तो बने। तब पत्थर में भी प्रभु दिखेंगे। कलयुग चल रहा है, लगता है शायद कलयुग अपनी चरम सीमा पर है। पहले नारी परपुरुष की कल्पना भी,नहीं कर सकतीं थीं। गरीबी में भी उसके साथ ,कंधे से कंधा मिला, तमाम उम्र उसके साथ की उम्मीद से, जीवन में व्यस्त रहती थीं। असमय उसके जाने के पश्चात भी, उसकी याद में,सेवाभाव और भक्ति से सम्पूर्ण जीवन बिता देतीं थीं।
प्यार ,मोहब्बत और इश्क़ जिससे हो गया ,जीवन उसके नाम किया फिर चाहे ,समाज का विरोध भी क्यों न झेलना पड़े। ''और इस दिल में क्या रखा है, तेरा ही नाम लिखा रखा है। ''उनके विरोध में भी किसी के लिए अटूट प्रेम नजर आता था फिर चाहे उसके लिए जान भी क्यों न चली जाये ?
आज वह प्रेम कहाँ है ?हर रिश्ता जैसे स्वार्थ पूर्ण हो गया है किन्तु एक रिश्ता जिस पर खुद से भी ज्यादा विश्वास किया जा सकता था ,जन्मपत्री भी मिले या न मिले किन्तु' विश्वास दृढ़' होना चाहिए। उस विश्वास के सहारे ही तो पति अपने परिवार को छोड़ बाहर कमाने चला जाता था। सम्पूर्ण परिवार का उत्तरदायित्व अपनी भार्या पर होता था वो भी पिया के प्रेम में ,उसकी प्रतीक्षा में ,उसके विरह में ,जीवन यापन करती।
आज क्या हो रहा है ? पति है ,तो भी ''बॉय फ्रेंड ''क्यों ?सभी सुख -सुविधाएँ है, किन्तु सुख नहीं ,इंतजार नहीं ,विरह की वेदना नहीं ,प्रेम नहीं ,प्रेम के साथ उत्तरदायित्व नहीं ,उनसे बचना है। आजकल की गृहस्थी की नींव कैसे पड़ रही है ?जन्मपत्री मिलाकर भी विश्वास नहीं। दोनों एक -दूसरे को शक की नजरों से देखते हैं। वो प्रेम में समर्पण कहाँ है ? जब अपने लोग ही अपने साथ नहीं ,उस गृहस्थी में सुख -सुविधाओं से क्या होगा ?जिसके लिए तुम इतना परिश्रम और समर्पण कर रहे हो उसकी नज़रों में ,उसका कोई मूल्य नहीं ,उस समय का गाना आज सार्थक हो रहा है -
''खाये गौरी का यार ,बलम तरसे ,रंग बरसे।''
आज जो कभी - '' पिया!पिया न लागे जिया ,के आजा चोरी -चोरी ये बहियाँ गोरी -गोरी। ''
'' साजन मेरा उस पार है ,मिलने को दिल बेकरार है।''
वो साजन !पिया के सपने कहाँ गए ?जिसके सीने से लग नायिका अपने को सुरक्षित महसूस करती थी। उसके साथ होने पर अपने को किसी से कम नहीं समझती थी। वो साजन आजकल कभी नीले डिब्बे में टुकड़ों में मिल रहा है ,तो कभी वीडियो डाल आत्महत्या कर रहा है। आज ही लो !जिसको ''सर्प दंश ''से मार डाला। वह तो पहले ही मर चुका था ,जो पति के होते हुए भी, उसे प्रेमी की आवश्यकता पड़ी ,हो सकता है ,कोई मजबूरी रही हो किन्तु क्या किसी की जान की कीमत उसकी मौत ही है ,क्या उसे जीने का हक़ नहीं, कोई इतना क्रूर कैसे हो सकता है ? क्या उन महिलाओं के साथ इतने अत्याचार हुए ,मजबूरन उन्हें मारना पड़ा ,या उनका चरित्र इतना कमज़ोर था किसी तीसरे के आते ही ,वह रिश्ता बोझ बन गया।
जो भी हो ,कुछ कमियां तो रहीं होंगी ,अपने सामान की सुरक्षा आजकल जंजीरों या तालों से नहीं ,प्रेम ,विश्वास से करनी चाहिए।इतना प्यार और विश्वास उसे मिले वो इधर -उधर देख न सके वरना आजकल कांधा देने के लिए ऑनलाइन बहुत कांधे मिल जाते हैं। पत्नी की सहेली हो या फिर पति का मित्र उनकी सीमाएं तय होनी चाहिए वरना ऐसे रावणों को घर में प्रवेश करने में देर नहीं लगती। कभी -कभी दूर रहकर भी रिश्ते टिके रह जाते हैं तो कभी समीप रहकर भी मौत का आलिंगन करना पड़ता है।
वैचारिक प्रस्तुति महोदया, आपके विचार से हम सहमत है पर समय बदल रहा है तो स्वाभाविक है इंसान की सोंच और व्यवहार भी बदलेगा संस्कार तो पहले भी अच्छे थे और आज भी अच्छे ही देते है परिजन पर कभी सोंच का फर्क आता है तो कभी मानसिकता रही बात नारी या पुरुष के वर्तमान परिवेश मे अपराध की ओर अग्रसर होने की तो उनकी नजर का दोष है और दो चार कृत्य से हम सारे समाज को एक जैसा नही कह सकते
ReplyDeletebahut bahut dhnyavaad
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