Qabr ki chitthiyan [part 63]

कबीर ने साँस रोक ली, जब उसने देखा—दीवार की सतह जैल की तरह पिघल रही है…और उस काले साये के पहले उभरे—उसकी लम्बी ,टेढ़ी ऐसी उंगलियाँ ,कि जैसे किसी अँधेरे ने खुद को नोंचकर आकार दिया हो ,फिर उसका हाथ,और कंधे ! फिर… पूरा धड़कता हुआ साया बाहर आ गया किन्तु उसके शरीर से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी —एक धुएं जैसी आकृति दिखलाई दे रही थी ,जिसमें कोई आहट नहीं ,सिर्फ़ सन्नाटा था !पर उसका सन्नाटा हवा को काट रहा था।ऐसा लग रहा था ,जैसे उसके आसपास दुनिया की हर आवाज़ मर रही हो।

रिद्धिमा घबराकर लगभग गिर गई—“कबीर… ये इंसानों के संसार का प्राणी नहीं है ,ये दानव भी नहीं…ये उससे परे है,इसे रोकना असंभव है।”


कबीर रो पड़ा—“तो अब क्या बचेगा? हम ? अनाया? कुछ भी?”

अनाया धीरे-धीरे उसके चारों ओर घूमने लगी, जैसे कोई पुजारी अपने देवता की पूजा करता है ,इसी प्रकार अनाया उस राक्षस की पूजा कर रही थी —तब वह बोली -“स्वामी… आपका स्थान तैयार है,अपने वचन के अनुसार… अपनी सत्ता स्थापित कीजिए।”

कबीर ने देखा—वो साया उसकी ओर मुड़ा,न आँखें,न  चेहरा ,फिर भी उसे लग रहा था - जैसे वह उसे घूर रहा है, कबीर की नसों में दौड़ता लहु जैसे  जम गया। हवा रुक गई और समय की गति भी.... 

और तभी—प्राथ ने एक कदम आगे बढ़ाया ,उसके पैर जमीन पर नहीं थे फिर भी ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे ज़मीन उसके भार सिकुड़ गई है … उसकी उपस्थिति से उस स्थान में घुटन सी महसूस हो रही थी ।

कबीर ने महसूस किया कि कमरे का तापमान अचानक गिर गया है ,उसके फेफड़े काम नहीं कर रहे थे।प्राथ की आवाज़ उसके आसपास गूँजी—“कबीर…!!!तुम्हें बुलाया नहीं गया था किन्तु अब तुम यहाँ हो…तो तुम्हारी यादें…स्वाद लेकर देखूँ?”

कबीर डर गया—“नहीं!!”

उसकी उँगलियों के आगे के हिस्से से  उसके सिर के पास हवा को छूते ही—कबीर की आँखें सफ़ेद हो गईं।वह अपने अतीत में भटकने  लगा। 

अनाया से उसकी पहली मुलाक़ात…!उसकी मुस्कान…उसकी रुलाई…उसकी मौत…उसका डरावना चेहरा…उसका खून…सब कुछ एक पल में उसके सामने घूमने लगा।

रिद्धिमा चिल्लाई—“कबीर!! वही मत सोचो !जो वह चाहता है!! इससे तो वो और ताकतवर हो जाएगा!!”

 कबीर की उसके दिमाग पर अपनी अच्छी पकड़ थी,उसने अपने को नियंत्रित किया , रिद्धिमा ने काँपते हाथों से अपनी जेब से वह पुरानी तांत्रिक चाबी निकाली—जो उसने हवेली के तहखाने में खोजी थी ,वह प्राचीन चाबी  भारी और काले धातु की बनी हुई थी—जिस पर अनाया की माँ का नाम लिखा हुआ था।

रिद्धिमा चीखी—“प्राथ!! सुनो!! यह हवेली तुम्हारी है—पर इस पर सिर्फ तुम राज नहीं करते!!हर सत्ता का एक विपक्ष भी होता है!!और यह चाबी तुम्हारे विरुद्ध है!!”

अनाया ने पलटकर रिद्धिमा की तरफ देखा —उसकी आँखें रक्त जैसी लाल हो गईं—“रुक जा!! वो चाबी मत उठाना!! वह तुम्हें मार देगी!!”

रिद्धिमा ने कहा—“अगर यह चाबी मैंने नहीं उठाई…तो हम सभी को तुम,  मार ही दोगी, अनाया !”

प्राथ पहली बार रुका,उसके अस्तित्व की रेखाएँ हल्की काँपीं ,

रिद्धिमा ने वो चाबी ज़मीन में गाड़ दी और मंत्र बोला—“स्वामी का अंत—स्वामी के द्वार से ही,स्वामी का अंत ,स्वामी के द्वार से ही ”

हवेली की फ़र्श से जैसे सैकड़ों आत्माएं चीख उठी, दीवारें काँपने लगीं।प्राथ की आकृति धुँधलाने लगी।अनाया का शरीर भी ,दर्द से तड़प उठा—“नहीं-नहीं-नहीं!! तुम क्या कर रही हो!?”

कबीर ज़मीन पर गिरा हुआ था, पर उसकी आँखों का रंग, धीरे-धीरे वापस आ रहा था । प्राथ , रिद्धिमा की ओर मुड़ा और फुसफुसाया—“तुम नहीं जानती…कि तुम किसे जगाने की कोशिश कर रही हो।”और तभी जैसे … पूरी हवेली चीख़ उठी ,जैसे कोई बहुत बड़ा, बहुत पुराना दानव, अपनी नींद से उठ रहा हो।

प्राथ की आकृति पीछे खिंचने लगी…वह न चीखा…न रोया…सिर्फ़ गायब होने लगा किन्तु जाते-जाते उसने केवल एक ही बात कही—**“मैं तो बस एक संदेशवाहक था…मालिक अभी आया नहीं है।”**उसकी यह बात सुनकर कबीर और रिद्धिमा दोनों ठिठक गए। अब अनाया जमीन पर गिर गई… वह बेहोश… थी किन्तु अब वह पहले  वाली इंसानी रूप में थी और हवेली—हवेली फिर से हिलने लगी,जैसे अब असली खतरा…अभी आने वाला हो।

रात्रि  इतनी भारी लग रही थी, आकाश में जैसे बादल नहीं—किसी की काली साँस फैल रही हो। हवा बंद थी ,सभी  पेड़ एकदम स्थिर थे,एक पत्ता तक नहीं हिल रहा था और उन सबके बीच… हवेली के भीतर गूँजती वह आवाज़, जिसने पहली बार अपना अस्तित्व घोषित किया था।वह आवाज़ अनाया, कबीर, पंडित शिवानंद—तीनों के भीतर ऐसे उतर रही थी जैसे कोई गर्म लोहा उनके दिमाग में भर  रहा हो। 

“मैं आया नहीं… मुझे जगाया गया है।”“और जो मुझे जगाता है… वह मेरा होता है।”

कबीर ने काँपते हुए अनाया का हाथ पकड़ा।“इसका मतलब क्या है? ‘किसने जगाया’? अनाया…क्या तूने कुछ किया , तूने क्या किया था?”

अनाया की साँसें तेज़ हो गईं और घबराते हुए बोली -“मैंने… कुछ भी नहीं किया , मैंने  तो सिर्फ हवेली को—”“—छुआ था।”

वह आवाज़ फिर गूँजी।“छुआ था… और मैंने उसे स्वीकार भी किया था।”

अनाया के पैर जड़ हो गए ,उसे याद आया—उस पहली रात जब वह हवेली के दरवाज़े को छूकर लौटी थी… उसके हाथ पर एक अजीब-सी राख लगी थी किन्तु उसने इस ओर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया और उसे महसूस हो रहा था कि हवा में उसकी धड़कनें जैसे किसी ने पकड़ ली हैं।उसे अब समझ आ रहा था—उसने हवेली को जगाया नहीं था ,हवेली ने उसे चुना था।

धीरे-धीरे… बिना हवा के… बिना किसी हरकत के…हवेली के विशाल लकड़ी के दरवाज़े खुद-ब-खुद चरमराते हुए खुले,अंदर घुप्प अँधेरा था लेकिन अँधेरे में ऐसा लग रहा था जैसे कोई उन तीनों को देख रहा था। एक ऐसी नज़र, जिसका कोई आकार नहीं था, लेकिन असर ऐसा ,जो पत्थर की दीवार को भी पिघला दे।

पंडित शिवानंद ने काँपती आवाज़ में मंत्र शुरू किया,“ॐ—”लेकिन मंत्र पूरा होने से पहले हवेली की दीवारों ने जवाब दिया—एक इतनी भारी गूँज कि जमीन कांप उठी, धड़ाम्म्म्म्म!!!पंडित दूर जाकर गिरे , जैसे किसी दैत्य ने उन्हें झटके से दूर फेंक दिया हो।

कबीर चीखा -“पंडित जी!”

लेकिन उनके उठने से पहले ही अंधेरे में दो आँखें दिखलाई दीं…ऊँची… बहुत ऊँची… दीवार की ऊँचाई जितनी वे आँखें पुतली रहित थीं—बस गहरा, काला, खालीपन…जैसे उन्हें देखकर इंसान अपनी खुद की यादें भूल जाए और उन आँखों में अनाया का प्रतिबिंब नजर आ रहा था।  अचानक अनाया की छाती के बीच में एक तेज़ जलन उठने लगी  ,ऐसा लग रहा था , जैसे कोई भीतर से नाखून घुमाकर उसकी नसें निचोड़  रहा हो।

अनाया चीखी—“आह्ह्ह—कबीर!”कबीर उसे पकड़े रहा, लेकिन अनाया का शरीर ऐसे जल रहा था जैसे किसी ने उसके अंदर आग भर दी हो।

हवेली के भीतर से किसी के मुस्कुराने की आवाज़ आई …हाँ, उसकी मुस्कान सुनी और महसूस  जा सकती थी।“अब तू समझेगी, अनाया…”“क्यों, तू मुझे देख सकती थी…”“क्यों तू हवेली के सपने देखती थी…”“क्यों बाकी सब मरते गए…”

कबीर ने डर से कांपते हुए पूछा -“कौन है तू?! दिख क्यों नहीं रहा है 

अँधेरे में जैसे हवा काँपी,जैसे कोई बहुत विशाल चीज़ भीतर से आगे बढ़ रही हो…ज़मीन हिल रही थी…सीढ़ियों की दरारों से काला धुआँ उठ रहा था ,फिर एक आवाज़—धीमी… किन्तु ऐसी कि अंदर तक चीर दे !“मैं हवेली नहीं हूँ ”“मैं वह हूँ… जो हवेली से भी पहले यहाँ था।”

हवा में एक ठंडी साँस चली, और अनाया की रीढ़ में जैसे बर्फ उतर गई।

काले धुएँ ने धीरे-धीरे आकार लेना शुरू किया—लेकिन इंसानी नहीं,वह कुछ ऐसा था जो इंसान से बड़ा, लंबा, और असंभव सा था।धुएँ के भीतर एक आकार उभरा—एक कंकाल जैसा, पर पूरा काला…जैसे उसकी हड्डियों में भी कोई राख़ भरी हो।उसके हाथ धरती तक लटके हुए…और चेहरा—चेहरा नहीं,बस एक गहरा-सा घाव, जो देखकर लगे कि अंदर अंधेरे का महासागर बह रहा है।


laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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