रिद्धिमा को, अनाया के आघात से बचाने के लिए, कबीर उनके बीच में आ जाता है , जिसके कारण अनाया का राक्षसी हाथ कबीर की छाती में घुस जाता है और कबीर उसके आघात से, लहूलुहान हो जाता है। कबीर ज़मीन पर लहूलुहान पड़ा था,वह उठना चाहता था— पर उसका शरीर जवाब दे चुका था।
अनाया ने अपने नए हाथों को देखा, हँसी उसकी टूटी हुई खोपड़ी से गूँज उठी—**“देखो, कबीर… ! मासूम मौत से पैदा हुआ राक्षस कैसा होता है।”**
ऐसा लग रहा था, कबीर की सांसें टूटने लगी हैं **रिद्धिमा रोती हुई ,कबीर के पास आई और बोली -तुम ,“मेरी वजह से —”कबीर ने उसका हाथ पकड़ा, उसकी उँगलियों में अब जलती-सी गरमाहट नहीं थी बल्कि बर्फ़ जैसी ठंडक थी।
“नहीं…” वह धीमे से बोला— “अब आगे जो भी होगा ,वह मेरी वजह से होगा…”उसकी भी आँखें अचानक ,पूरी तरह सफ़ेद हो गईं ,नीली और सफ़ेद दोनों रोशनियाँ एक साथ भड़कीं। आस-पास की सभी लाइटें फूट गईं। हवा उलटी दिशा में चलने लगी। गौरांश पीछे जाकर, ज़मीन से टकरा गया।“कबीर—!” उसने डरकर पुकारा।
कबीर धीरे-धीरे खड़ा हुआ,अचानक अब उसके घाव भरने लगे थे— अब उनमें कोई दर्द नहीं था।**सिर्फ उसकी आँखों में क्रोध था।**
अनाया ने पहली बार पूरी ताक़त से हमला किया,उसकी काली शक्तियां ,काली लपटों के रूप में ,उसके नुकीले तन की, नुकीली छायाएँ, उनसे बनी चीखती हुई हवाएँ— सब एक साथ कबीर की ओर टूट पड़े।
कबीर ने दोनों हाथ फैलाए और पहली बार—**हवा ने उसकी बात मानी।**पूरा हमला हवा में ही स्थिर हो गया।
यह सब देखकर अनाया का राक्षसी रूप भी अचम्भित रह गया,आश्चर्य से, उसकी आँखें फैल गईं ,वह चीखी -“यह… यह कैसे हो सकता है …?”
कबीर आगे बढ़ा,उसके हर कदम के साथ ज़मीन जैसे फटती जा रही थी,उसमें दरार पड़ रही थीं ,तब उसने अनाया से कहा -“तुमने एक मासूम को मारा…” ऐसा लग रहा था, उसकी आवाज़ किसी और लोक से आ रही थी— “अब मैं तुमसे कुछ नहीं छीनूँगा…”वह अनाया के ठीक सामने आकर रुका।**“मैं तुम्हें मिटा दूँगा।”**उसने एक ही वार में हाथ आगे बढ़ाया—और अनाया पर हमला किया।
हमला जोरदार था ,अनाया अपने को संभाल न सकी , जब अनाया टूटी — हवेली भी चीखी**एक चीख गूँजी। एक ऐसी चीख जो किसी इंसान की नहीं हो सकती थी।अनाया हवा में उछल गई,उसका शरीर दरकने लगा, उसकी काली हड्डियाँ टूटने लगीं लेकिन वह पूरी तरह से नहीं मरी ,वह हँसी,काला खून उगलते हुए भी— वह हँस रही थी -“तुम मुझे मार नहीं सकते, कबीर…!” “मैं हवेली हूँ।”और फिर—वह अपने ही खून में गिर पड़ी। वो जिंदा थी ,लेकिन क्षत -विक्षत थी ।
कबीर भी लड़खड़ाया, रिद्धिमा फिर से उसे थामने दौड़ी,उसकी आँखों के सामने सब धुंधला होने लगा, अनाया ज़मीन पर पड़ी थी फिर भी मुस्कुरा रही थी -“मैं गई नहीं हूँ…” “मैं सिर्फ सो रही हूँ…”और हवेली की दिशा से एक गहरी गूँज उठी।**जैसे किसी ने नींद में करवट ली हो।**
अब हालात पहले से भी ज़्यादा भयावह हो चुके है -एक मासूम बच्चे की मौत हो चुकी है ,अनाया ने राक्षसी रूप ले लिया है ,कबीर की शक्तियाँ लगभग उसकी सीमा से बाहर जा रही हैं।**हवेली अभी भी जाग रही है…** और जागते हुए राक्षस कभी जल्दी नहीं सोते।
“अनाया के हार जाने पर ,हवेली अपने असली स्वामी को बुलाती है”हवेली की टूटी दीवारों के मध्य अचानक एक सन्नाटा उतर आया—ऐसा सन्नाटा जो कानों से नहीं, आत्मा से सुना जाता है। वहां अनाया बीच में खड़ी थी, उसका शरीर अभी भी आधा मानव, आधा राक्षसी रूप में काँप रहा था… पर इस बार उसकी चीख़ों में दर्द नहीं था—कोई और आवाज़ उसके भीतर से बोल रही थी।
कबीर और रिद्धिमा दोनों पीछे हट गए,कबीर फुसफुसाया—“ये… ये अब अनाया नहीं है।”
रिद्धिमा की आँखें डर से चौड़ी हो गईं—“ये हवेली अभी पूरी तरह से जागी भी नहीं है, और… ये उसे नहीं, किसी और को बुला रही है, कोई… ऐसा जिसका इस हवेली से बहुत पुराना नाता है।”
तभी अनाया की आँखें पलट गईं, फर्श पर खून से बने चक्र में, दरारें पड़ने लगीं—चक्र जैसे, प्यासा हो गया हो। अचानक हवा भारी हो गई , जैसे दीवारें कराहने लगीं हों और फिर…एक आवाज़ गूंजी ,जो न किसी पुरुष ,न स्त्री,न मानव और न किसी राक्षस की थी।
एक ऐसी ड़रावनी आवाज़, जिसमें से अनगिनत मर चुके लोगों की अनगिनत चिल्लाहटें और अनगिनत कराहें मिलकर बनी हों। कबीर के कदम जैसे ज़मीन से चिपक गए।
रिद्धिमा की साँसें धीमी होने लगीं -हवेली की हर दीवार उस आवाज़ से थरथरा रही थी।
अनाया ने अपना सिर झटका—और उसने दीवारों की ओर चेहरे उठाकर दहाड़ते हुए कहा—“स्वामी…! आपका द्वार खुल चुका है।”
कबीर चिल्लाया—“रिद्धिमा! ये किसकी बात कर रही है? कौन सा स्वामी ?”
रिद्धिमा काँपती आवाज़ में बोली—“मैंने सुना था… हवेली का असली मालिक कभी मिला ही नहीं। हवेली जिसके नाम चलती थी ,उसे कोई नहीं जानता था,कि वह कौन है ?और कहाँ रहता है ? किन्तु एक अफ़वाह थी—कि वह इंसान नहीं था, वह कोई और ही था… जिसे इस हवेली ने खुद चुना था।”
कबीर ने गुस्से में कहा—“तुमने ये बात मुझे पहले क्यों नहीं बताई!?”
रिद्धिमा फटे से स्वर में बोली—“क्योंकि मुझे पक्का मालूम नहीं था ,मुझे लगता था -ये बस एक 'दंतकथा' है! पर अब… ये सब सच हो रहा है!
अचानक—पूरी हवेली ज़मीन से 3 इंच ऊपर उठ गई। कबीर हिल गया ,दीवारें धड़कने लगीं ,फ़र्श के नीचे से भीतर की धड़कन सुनाई दी—जैसे कोई दिल धड़क रहा हो…बहुत बड़ा…बहुत पुराना…बहुत भूखा।अनाया की आवाज़ भारी और खोखली हो गई— तब उसने जो बताया ,उसने सबको चौंका दिया। “उसने मेरी देह ली थी… उसने मेरे सपनों का गला घोंटा था… उसने मेरे खून से हवेली को सींचा था…”
रिद्धिमा अनाया की बातें सुनकर आश्चर्य से भर गई ,उसे जैसे उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ ,“हवेली का मालिक… अनाया का… हत्यारा?”
अनाया हँसी—एक ठंडी, खून सुखा देने वाली हँसी—“मेरा हत्यारा तो सिर्फ़ उसका सेवक था…मेरा मालिक उससे भी बड़ा है,हवेली खुद उसके सामने सिर्फ़ एक खिलौना है।”
कबीर ने उसके कंधों को झकझोरा—“अनाया!! वापस आओ!! तुम ये नहीं हो!!”
अनाया उसकी ओर देखते हुए ऐसे मुस्कुराई , जैसे कोई जीव इंसान को पहली बार देख रहा हो।“मैं अनाया हूँ ही नहीं, अब…मैं तो बस एक द्वार हूँ ,स्वामी के आने का द्वार।”
हवेली के मुख्य दीवार पर खून से कोई आकृति उभरने लगी—पहले धीरे… फिर तेज़… फिर बहुत तेज़।
कबीर ने देखा—वह एक इंसानी आकृति नहीं थी ,न ही उसका कोई चेहरा था,न उसकी आँखें,सिर्फ़ एक लंबा, विकृत, काला साया, जिसके हाथ इतने लंबे कि वह ज़मीन छू रहे थे।
रिद्धिमा पीछे हटते हुए बोली—“कबीर…! यह वह है ,जिसका नाम लेना भी मना है …”
कबीर—“कौन? बोलो!!”तो....
रिद्धिमा—“प्राथ”…”
कबीर—“क्या?”
रिद्धिमा—**“प्राथ –थोड़े तेज स्वर में बोली -वह जो परछाइयों को खाता है,वह जो आत्माएँ नहीं—यादें भी निगल जाता है, वह जो इंसान को इंसान नहीं रहने देता।”**
कबीर के पैरों तले जैसे ज़मीन काँप गई ,
अनाया बोल उठी—“प्राथ''… मेरा स्वामी… ये तुम्हारा भी स्वामी है ,कबीर !”
हवेली ने एक जोरदार झटका मारा। उस टूटी हवेली में ,छत के झूमर टूटकर गिरने लगे ,खिड़कियों के शीशे टूटते चले गए।
हवा परछाइयों की तरह घूमने लगी—जैसे अदृश्य हाथ दीवारों पर रेंग रहे हों और तभी—एक आकृति दीवार से बाहर निकलने लगी।
कबीर ने साँस रोक ली, जब उसने देखा......
