Qabr ki chitthiyan [part 58]

हवेली के टूटते पत्थरों की आवाज़, अब शांत हो चुकी थी।अंधेरे में उबलती दीवारें अब राख का ढेर बनकर गिर चुकी थीं। वो लाल वृत्त…वो काला मंत्र…वह श्राप जो सदियों से पीढ़ियों को निगलता आया है ,—आज ख़त्म हो चुका था लेकिन—हर अंत, एक नए आरंभ की जमीन तैयार करता है और वह आरंभ…काफी ज़्यादा डरावना था।

कबीर धीरे से होश में आया ,उसकी पलकों पर भारीपन,फेफड़ों में ठंडी हवा,और कानों में… एक धीमी, खोई हुई सी फ़ुसफ़ुसाहट उसे महसूस हुई —“कबीर… उठो…!”

वह चौंक गया,यह आवाज़— किसी इंसान की नहीं,लेकिन साया की भी नहीं ,फिर यह आवाज किसकी हो सकती है ,यह देखने के लिए ,उसने अपने चारों ओर देखा—अब उस जगह कोई कमरा मौजूद नहीं था,पूरा हॉल भी ढहा हुआ था। छत में बड़ा सा छेद,दीवारों के टुकड़े हर तरफ बिखरे हुए थे ,हवेली अब साँस नहीं ले रही थी,वह नष्ट हो चुकी थी,रिद्धिमा, कबीर के पास घुटनों के बल आँखों में आंसू लिए बैठी थी किन्तु


उसके 
 चेहरे पर राहत दिखलाई दे रही थी।उसने कबीर को उठते देखा ,तो पूछा -कबीर… तुम ठीक हो…तुम बच गए…”

कबीर साँस भीतर खींचता है—पर उस साँस में कोई हल्की सी अनजानी सी गंध थी,साया की या शायद… हवेली की आखिरी नमी की....   

गौरांश कुछ कदम दूर चुपचाप खड़ा हुआ था। पहली बार—उसकी आँखों में न ईर्ष्या थी, न गुस्सा,सिर्फ शून्य था ,न ही उसके चेहरे पर कोई भाव नजर आ रहा था ,न ही कुछ सोच रहा था। 

उसने कबीर को देखा और बोला —“तू… बच गया।”उसके ये  शब्द शिकायत भरे  नहीं,बल्कि राहत जैसे लग रहे थे। 

कबीर ने उससे कहा—“उसने… मेरे लिए अपनी आत्मा दे दी।”

गौरांश का गला भर आया और बोला -“रिद्धिमा और उसके  पिता…दोनों ने तुम्हें ही चुना।”

कबीर ने धीरे से सिर झुकाया,“किन्तु ऐसा लगता है… जैसे उन्होंने मेरे भीतर कुछ छोड़ दिया है।”

रिद्धिमा चौकन्नी हुई और कबीर से पूछा -“क्या?”

कबीर ने अपनी हथेलियों को घूरा ,उनके बीच हल्की-सी काली धुंध घूम रही थी—मगर, बहुत हल्की थी।

गौरांश घबरा गया—“ये… यह तो हवेली का अवशेष लगता है!”

कबीर की आँखों में अचानक वह आवाज़ फिर गूँजी—“मेरे बिना सब अधूरा है…”

कबीर ने झट से सिर हिला दिया।“नहीं! मैं अब मुक्त हूँ!”पर आवाज़ मिटती नहीं,वह सिर्फ उसके अंदर छिपी थी।

अनाया अब उस खंडहर के मध्य खड़ी थी ,उसकी सफेद पोशाक पर धूल से भरी थी फिर भी, उसके चेहरे पर एक अजीब-सी चमक थी।मानो हवेली टूटने के बाद वह कमज़ोर होने के बजाय और मजबूत हो गई हो।उसने धीरे-धीरे सबकी ओर देखा और शांत स्वर में बोली -“श्राप समाप्त हो चुका है।”

कबीर ने महसूस किया—उस आवाज़ में कुछ और भी था किसी परछाई का आदेश लग रहा था। 

रिद्धिमा को संदेह हुआ,वो उसके पास आई और उससे पूछा —“अनाया… तुम ठीक हो न.... ?”

अनाया धीरे से मुस्कुराई—“मैं? बिल्कुल.... कहते -कहते रुक गयी ”लेकिन उसकी मुस्कुराहट—इंसानो जैसी नहीं लग रही थी ,ऐसा लग रहा था जैसे- उसके भीतर हवेली की राख,समा चुकी हो 

कबीर ने अपने माथे पर तनाव महसूस किया।“अनाया… तुम पर लाल प्रकाश का असर पड़ रहा था।क्या तुम… सच में सामान्य हो?”

अनाया ने उसे ध्यान से देखा— उसकी आँखें ,किसी इंसान की न होकर किसी पुरानी किताब की घूरती सी लग रहीं थी।

“कबीर…!हर श्राप के समाप्त होने पर एक नई शक्ति जन्म लेती है।”उसने धीमे से कहा—“और हर शक्ति…किसी न किसी को चुन ही लेती है।”कबीर का दिल बैठ गया।

 जब उस स्थान से सब बाहर निकलने लगे, हवेली के विशाल दरवाज़े का आधा हिस्सा अचानक ज़मीन पर गिरकर धूलधूसरित हो गया था ।

रिद्धिमा डरते हुए बोली—ऐसा लग रहा है ,“जैसे हवेली हमें बाहर धकेल रही है।”

अनाया बोली—“नहीं,यह अपने अंत को स्वीकार कर रही है।”

लेकिन कबीर ने…एकदम उलट महसूस किया।उसे लगा—एक ठंडी हवा ,उसकी गर्दन के पीछे से गुज़री।जैसे कोई फुसफुसाया—"मैं गया नहीं… मैं बस छिपा हूँ…"कबीर ने अपनी गर्दन पकड़ ली,उसकी साँस रुकने लगी।

रिद्धिमा ने उसकी ऐसी हालत देखी तो चिंतित होकर उसने कहा—“कबीर! क्या हुआ!?”

कबीर ने अपनी आँखें खोलीं—उसकी पुतलियाँ एक पल के लिए ,पूरी आँखें काली होकर फैल गईं थीं। 

गौरांश चौंक गया—“रिद्धिमा! देख उसकी आँखें—ये तो—”

कबीर ने झटके से खुद को संभाल लिया,और जबाब दिया -“मैं… ठीक हूँ।”पर वह झूठ था,बहुत बड़ा झूठ।

साया ने उसे बचाया था—लेकिन हवेली ने उसे छोड़ा नहीं था।

जब वे बाहर आए,उस समय आसमान साफ़ था, आकाश में तारे चमक रहे थे।सब कुछ बहुत सामान्य लग रहा था लेकिन—हवेली के पीछे एक छोटी-सी… धुन गूँज रही थी, जैसे किसी पुराने झूले की चिर्र-चिर्र हो ।

गौरांश ने पीछे मुड़कर देखा—“क्या कोई वहाँ है…?”

अनाया ने गंभीर स्वर में कहा—“अब वहां कोई नहीं है।”तुम्हें वहम हो रहा है। लेकिन उसकी आँखें कुछ और ही कह रही थीं।

कबीर ने धीरे-धीरे उस स्थान को घूरा और…तब वहां उसे एक छाया ,एक आकृति का सा आकार उसे दिखलाई दिया—बहुत दूर से ,बहुत हल्का सा ,धुंआ उठता दिखलाई दिया लेकिन वह आकृति…सीधे कबीर के चेहरे की तरफ देख रही थी,कबीर के कदम वहीं रुक गए।

रिद्धिमा ने उसका हाथ पकड़ा—“चलो… अब बहुत हो चुका है।”

कबीर ने बिना बोले' हाँ 'में सिर हिलाया,लेकिन उसकी नज़रें—उस धुएँ से हट नहीं रहीं थीं।

आखिर सब हवेली से बाहर आकर मुख्य सड़क पर पहुँच गए ।गौरांश कुछ दूर खड़ा होकर धूल झाड़ रहा था। रिद्धिमा थकी हुई थी,कबीर के चेहरे पर अजीब सी शांति थी—किन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा था ,उस शांति के भीतर बहुत बड़ा तूफ़ान छिपा है।

अनाया गहरी साँस लेकर बोली—“अब आगे… हम सब अलग-अलग हों जायें ,तभी इस श्राप का अंत भी यहीं हो जायेगा और हवेली की कोई परछाई अब हम में से किसी का पीछा नहीं कर सकेगी।”

लेकिन जैसे ही उसने ये बात कही ,कबीर के कानों में आवाज़ आई—“अनाया झूठ बोलती है…”कबीर का शरीर सिहर गया ,उसने पीछे मुड़कर अनाया को देखा।

अनाया ने भी मुस्कुराकर उसकी ओर देखा—किन्तु उसकी वो मुस्कुराहट…किसी और की लग रही थी।जैसे उसके अंदर कोई और बैठा मुस्कुरा रहा हो। कबीर कार में बैठा ,रिद्धिमा उसके बगल में और गौरांश पीछे बैठा ,अनाया जैसे ही कार में बैठने जा ही रही थी।तभी—अनाया के पैरों के पास ज़मीन हिलने लगी ,एक सेकंड के लिए हवा ठंडी हो गई और…कबीर ने स्पष्ट  देखा—अनाया की परछाई…उससे लम्बी ,टूटी हुई और काली दिख रही थी ,जो उसके शरीर से मेल नहीं खा रही थी।

कबीर की डर से आँखें फैल गईं और वो बोला -रिद्धिमा !…देखो ! अनाया—वह… वह अनाया नहीं है।”

रिद्धिमा हक्की-बक्की इधर -उधर देख रही थी,कुछ समझ नहीं पाई ,पूछा  —“क्या!??”

गौरांश डर से चीख पड़ा—“वह— वह साया की छाया है!या…हवेली की नई शक्ति!”

अनाया धीरे से सड़क पर मुड़ी,इस बार उसकी आँखें, पूरी तरह काली थीं।

उसने एक ही वाक्य कहा—**“हवेली समाप्त नहीं हुई…उसने मेरे भीतर नया रूप ले लिया है। 

कबीर का दिल बैठ गया, रिद्धिमा किंकर्तव्यविमूढ़ सी उधर ही देख रही थी ,गौरांश पीछे हटने लगा।अनाया ने मुस्कुराकर कहा—**“अब खेल…हवेली के बाहर शुरू होगा।”**और उसकी परछाई—धुएँ की तरह हवा में उठकर ,कबीर की ओर झपटी।

अगला अध्याय अब एक नए श्राप की शुरुआत है—एक हवेली नष्ट हुई,पर उसकी शक्ति अब अनाया में जाग चुकी है।कबीर के भीतर अधूरी छाया है और हवेली अब सिर्फ एक जगह नहीं—बल्कि एक आत्मा बन चुकी है।


laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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