कमरे में अब सिर्फ अँधेरा ही नहीं था—लग रहा था ,जैसे वह जीवित है ,हर दीवार, हर छाया, हर साँस…मानो हवेली खुद प्रतीक्षा में बैठी हो, कि कबीर क्या चुनेगा ?लाल वृत्त की चमक अभी भी अनाया के पैरों के नीचे धधक रही थी। साया, रिद्धिमा और गौरांश—सबके चेहरों पर एक ही सवाल लिखा था :-"क्या यह आज की रात वारिस चुनेगी…या किसी को अर्पित करेगी?"
कबीर मध्य में खड़ा था—जैसे वो किसी दो संसारों की सीमा पर खड़ा हो ,उसके कदम भारी, दिल तेज,और आँखें—युद्ध से पहले वाले सैनिक की तरह काँपती हुई।
अनाया ने धीमे स्वर में कहा—“कबीर, निर्णय सरल नहीं,पर भागना भी —अब संभव भी नहीं।”
कबीर ने आँखें बंद कर लीं ,एक क्षण के लिए हवेली, मंत्र, छाया—सब गायब हो गया और उसे याद आया—उसकी माँ, उसका बचपन, वो रातें जब वह अनाथ-सा महसूस करता था, वो घाव,वो दर्द जिन्हें उसने हमेशा अनदेखा किया। कभी उसे लगा था—वह सिर्फ एक मामूली सा लड़का है। गौरांश जितना समझदार नहीं, रिद्धिमा जितना मजबूत नहीं, अनाया जितना साहसी नहीं ,किन्तु आज—उसके कंधों पर पूरी हवेली को अभिशाप से बचाने का उत्तरदायित्व था।
अचानक धीमी ,टूटी हुई सी किन्तु स्पष्ट एक आवाज़ आई —“बेटा…!”कबीर ने अपनी आँखें खोलीं,साया उसके ठीक सामने खड़ा था,उसके चेहरे पर अधूरी आत्मा का कंपन,पर आँखों में—एक पिता की पीड़ा नजर आ रही थी।
कबीर ठिठक गया और उसने पूछा -“आप… मुझे बेटा क्यों बुला रहे हैं?”
साया ने गहरी साँस ली—जैसे अंधकार भी थम गया हो “क्योंकि मैं…तुझे बचाने आया हूँ,उसे नहीं जो तुम्हें वारिस बनाना चाहता है…बल्कि उसी हवेली से, जिसने मुझे भी निगल लिया था।”
कबीर के होंठ सूख गए,आश्चर्य से उसने पूछा -“आप तो रिद्धिमा के पिता हैं…लेकिन मुझसे ,आपका यह रिश्ता…?”कहते हुए उसके शब्द गले में ही अटक गए।
साया ने सिर झुकाया,“यह हवेली हर ‘अर्पण’ के बाद,एक आत्मा नहीं—एक बंधन पैदा करती है।मैंने उस रात…तुम्हें अपने सबसे करीब महसूस किया था इसलिए मेरी आधी आत्मा तुमसे जुड़ गई।”
उनकी बात सुनकर कबीर काँप गया,तो यह बंधन—सिर्फ श्राप नहीं,एक रक्षा कवच भी था।
गौरांश अचानक आगे आया,उसने कबीर को पकड़कर हिला डाला।“तू वारिस कैसे!?क्यों तुमने !?सब कुछ मुझसे छीन कर उसे दे दिया ?”
कबीर ने उससे अपना हाथ छुड़ाया -“मैंने कुछ नहीं माँगा।”
गौरांश का चेहरा लाल हो गया,उसके भीतर कई सालों से दबा हुआ ,असुरक्षा का डर उभर चुका था।“तुम सब…हमेशा मुझे अपराधी की तरह देखते रहे हो,जैसे मैं हवेली का हिस्सा नहीं,बल्कि कोई गलती हूँ।”
रिद्धिमा ने कदम बढ़ाया—“गौरांश ! तुम्हें कोई दोष नहीं दे रहा—”
वह चिल्ला पड़ा—“दिया है!हर किसी ने दिया है!”
उसकी आँखों में अंधेरा उतर आया,जैसे -' हवेली का श्राप 'उसकी रगों में भी जड़ जमा रहा था।
अनाया ने तनावपूर्ण स्वर में कहा—“हवेली की विरासत—हमेशा दो लोगों के बीच फूट पैदा करती है।”
साया ने गौरांश की ओर देखा,और बोला -“तू वारिस बनना चाहता था…पर हवेली खून से नहीं—दर्द से वारिस चुनती है।”
गौरांश की आँखों से आँसू निकल पड़े ,“तो मेरा दर्द भी कुछ कम नहीं था?”कमरे में सन्नाटा छा गया।
कबीर ने उसे देखा—“गौरांश ! तेरा दर्द था, पर तूने हमेशा उसे छुपाया और मैंने उसे जिया है।”
गौरांश अपने को हारा हुआ महसूस कर रहा था ,टूटकर वो और भी ख़तरनाक लग रहा था ,वो पीछे हट गया।
अनाया ने अपनी हथेलियाँ ऊपर उठाईं ,वह लाल मंत्र-चिह्न और चमक उठा ,तब अनाया बोली -“निर्णय का समय आ चुका है ,कबीर…!हवेली तुम्हारे सामने तीन विकल्प रखती है।”कमरा काँप उठा।
साया ने डरते हुए कहा—“अनाया !…ये मत करो !”पर अनाया की आँखें अब वैसी नहीं थीं,वह किसी और ही शक्ति की वाहक लग रही थी।
“पहला विकल्प…”उसकी आवाज़ बहुत ही कठोर थी।**1 → वारिस बनो !श्राप को ख़त्म करने की शक्ति पाओ।पर हवेली के साथ हमेशा के लिए बंध जाओ।**लाल प्रकाश दीवारों पर फैल गया।
“दूसरा विकल्प—”**2 → वारिस बनने से इनकार करो किन्तु हवेली अपने अगले ‘अर्पित’ को चुनेगी।”और सबकी नज़रें डर से कबीर पर टिक गईं।
“और तीसरा विकल्प—”यह कहते ही उसकी आवाज़ गहरी हो गई।**3 → हवेली की विरासत को पूरी तरह नष्ट करना,इसमें न वारिस बचता है,न हवेली…और न कोई बंधन।”
कबीर ने साँस रोक ली ,“अगर मैं तीसरा विकल्प चुनू …तो क्या होगा?”
अनाया ने धीमे कहा—“किसी ना किसी को कीमत चुकानी होगी—एक अंतिम बलिदान होगा !”
साया सामने आया,“वह बलिदान…मैं दूँगा।”
अनाया ने शांत स्वर में कहा—“तुम बलिदान नहीं दे सकते, बलिदान वह होगा जिससे हवेली सबसे अधिक बंधी है।तभी सबकी निगाहें धीरे-धीरे कबीर पर टिक गईं।
अचानक हवेली हिलने लगी,दीवारों पर दरारें पड़ने लगीं ।साया की आकृति काँपने लगी,लाल वृत्त धधक उठा ,चारों ओर काला, घना ,मंत्रों से भरा धुआँ फैल गया — फिर एक भारी, गूँजती आवाज़ कमरे में भर गई।“वारिस चुनो !”
अनाया बोली—“कबीर !तुरंत निर्णय लो !”
कबीर आगे बढ़ा ,उसकी साँसें काँप रही थीं, उसके दिल की धड़कनें इतनी तीव्र थीं ,दिल जैसे सीने से बाहर निकल जायेगा।
उसने साया की ओर देखा—जिसकी आँखों में सिर्फ प्रेम था।
उसने रिद्धिमा की ओर देखा—जिसकी आँखें उससे विनती कर रही थीं, किवह खुद को न खो दे।
और उसने गौरांश को देखा—जिसकी टूटी हुई नज़रों में,एक भाई जैसा दर्द चमक रहा था।
कबीर ने धीमे से कहा—“मैं… अपनी ज़िंदगी नहीं खोऊँगा,लेकिन किसी और की भी नहीं जाने दूँगा।”कमरा थम गया सबकी सांसें जैसे रुक गयीं,उसका जबाब जानने के लिए ,तब कबीर बोला - “मैं… तीसरा विकल्प चुनता हूँ।”
रिद्धिमा ने चीख मारी—“कबीर, नहीं!”
साया काँप गया—“तू नहीं समझता— ये मौत है!”
पर कबीर पीछे नहीं हटा।उसकी आवाज़ मजबूत थी।“अगर इस हवेली को खत्म करने के लिए मुझे खुद को मिटाना पड़े—मैं तैयार हूँ।”
अनाया ने आँखें बंद कीं—जैसे यही निर्णय हवेली चाहती थी।
जैसे ही कबीर लाल वृत्त में कदम रखता है,मंत्र हवा में जल उठते हैं।कमरा धधकने लगता है।दीवारों में मानो सदियों की चीखें दौड़ती हैं।
साया आगे बढ़ता है—“नहीं!!मैं इसे रोक दूँगा!”वह कबीर की ओर जान लगाकर भागता है—पर दीवारें दरवाज़े बनकर उसे रोक देती हैं।
रिद्धिमा रोते हुए चिल्लाती है—“कबीर, तुम अकेले नहीं हो—हम सब हैं!”
कबीर का चेहरा नरम हो जाता है—“यही वजह है…कि मैं ये कर रहा हूँ।”
अनाया मंत्र पढ़ती है—“सर्वज्ञ—समाप्ति का उद्घाटन।”
लाल रोशनी बिजली की तरह कबीर को घेर लेती है।उसके शरीर से सफेद धुआँ उठता है—जैसे आत्मा खिंच रही हो।
गौरांश चीखता है—“भाई— नहीं!”
वह पहले बार भाई कहता है।कबीर हल्का-सा मुस्कुराता है—दर्द से काँपते हुए भी। जैसे ही कबीर गिरने लगता है—
साया ने असंभव किया,उसने अपनी आधी आत्मा—जो कबीर के भीतर बंधी थी—उसे वापस खींच लिया।कबीर पर झपटते हुए वह चिल्लाया—**“मैं इसे मरने नहीं दूँगा !मेरा बलिदान—अधूरा नहीं रहेगा!”**और बिजली, मंत्र और शक्ति—साया के शरीर में समा गई ,वह प्रकाश बनकर जल उठा।
रिद्धिमा की चीख पड़ी —“पापा!!!”
अनाया स्तब्ध रह गई—“यह… यह असंभव है…”
गौरांश रोते हुए बड़बड़ाया—“उसने—उसने अपना अंत चुन लिया…”
कबीर जमीन पर गिरा—वह उस समय बेहोश था किन्तु जीवित था।
साया की आत्मा—एक शांत मुस्कान के साथ हवा में बिखर गई और हवेली—एक आखिरी गर्जन के साथ अंधकार से मुक्त हो गयी थी
हवेली अब श्राप से मुक्त है—पर कहानी अभी खत्म नहीं हुई।क्यों? क्योंकि अनाया का चेहरा अब भी निश्चल नहीं—उसकी आँखों में कुछ छिपा है।गौरांश के भीतर कुछ जाग रहा है और कबीर की आत्मा—साया के जाने से बदल चुकी है।
