हवेली के कमरे में साया कहो !या फिर आत्मा उसके प्रवेश करते ही मोमबत्तियाँ बुझ चुकी थीं। वो कमरा पूरी तरह अंधकार से लिपट गया था ,वो अंधकार जो सिर्फ रात्रि का नहीं वरन सदियों पुराने पापों का अंधकार लग रहा था।साया और अनाया केवल परछाइयों की तरह दिख रहे थे,पर उनकी गहरी और जलती हुई साँसें—स्पष्ट महसूस हो रहीं थीं ।
गौरांश दीवार से सटा हुआ खड़ा था,उसके चेहरे पर सिर्फ एक नहीं—दस तरह के भाव आ -जा रहे थे।डर !गुस्सा ! घबराहट और कहीं बहुत गहरा—सच छिपाने की झिझक।
रिद्धिमा काँपते स्वर में बोली—“गौरांश…! अगर तुम निर्दोष हो तो तुम्हें डर किस बात का है ?”
गौरांश जोर से चीखा नहीं,वह बस धीमे से हँसा—एक ऐसी हँसी जैसे किसी ने उसकी आत्मा के धागे उधेड़ दिए हों।“निर्दोष? या सच का सबसे पुराना शिकार, गौरांश ने धीरे-धीरे अपनी जेब से एक काली लकड़ी छोटा सा टुकड़ा निकाला। जो पत्थर जैसा चिकना था ,उस पर उसी शब्द की नक्काशी की गयी थी —“सर्वज्ञ” अनाया, कबीर और बाकी सब उसके हाथ में उस टुकड़े को देखकर सन्न रह गए।
दीप्ति काँपते हुए बोली—“ये तो वही चिन्ह है … जो हवेली के ''दक्षिणी हिस्से '' में हमने देखा था।”
गौरांश ने सिर हिलाया ,उसकी टूटी हुई आवाज भी सच्चाई से भरी थी ,वो बोला -“मैंने गौरव को नहीं मारा …किन्तु मैं भी उस रात वहीं पर था।”कमरा जैसे थम सा गया। उस आत्मा [साया ]का चेहरा हल्का-सा झुका—मानो वह भी ये ही सुनना चाहता हो।
कबीर ने उसे पकड़ा और लगभग चिल्लाते हुए उससे पूछा —“क्या तू वहाँ था ? तूने, हमें बताया क्यों नहीं ?”
गौरांश की आँखें भय से और उस दृश्य को स्मरण कर लाल हो गयीं ,तब वो बोला - “क्योंकि जो मैंने देखा—वो मुझे देख लेता तो वो, हम सबको भी मार देता।”
रिद्धिमा ने अपनी सांस रोक ली और कांपते स्वर में पूछा -“क्या तुमने, उसे देखा था ?”
उसने गहरी स्वांस लेते हुए ,रहस्य्मयी शब्दों में कहा—“उस रात… हत्या किसी इंसान ने नहीं की थी,उस रात 'सर्वज्ञ 'खुद आया था।”
अनाया आगे बढ़ी, उसकी आँखें गौरांश पर थीं , वो बोली -“सर्वज्ञ'' कोई इंसान नहीं—बल्कि हवेली का चुना हुआ धारक है।
”गौरांश ने उसकी बातों से सहमति जतलाते हुए 'हाँ 'में सिर हिलाया,“हर 30 साल में इस हवेली का एक वारिस—जो हवेली की विरासत, संपत्ति, शक्ति लेता है ,वो बदले में एक बलिदान देता है।”
कबीर चिल्लाया—“ये कोई प्रथा नहीं, ये पागलपन है!”
अनाया बोली—“लेकिन यही हवेली की नींव है।”उसने वही लॉकेट उठाया—जिसमें गौरव और रिद्धिमा के पिता की तस्वीरें थीं,“प्रत्येक वारिस दो होते हैं।एक लेता है,दूसरा अर्पित होता है।”
रिद्धिमा का शरीर सुन्न—“तो उस रात्रि … मेरे पिता और गौरव…”
गौरांश ने दुख से कहा—“गौरव वारिस चुन लिया गया था,तुम्हारे पिता— अर्पित होने वाले थे।”
दीप्ति अपने हाथों से अपने चेहरे को ढककर रो पड़ी,रिद्धिमा के कदम लड़खड़ा गए।
अँधेरे में घिरा साया आगे बढ़ा,अब उसकी आवाज़ गूँज नहीं रही थी ,बल्कि मानवों जैसी ही लग रही थी।“मैं मर नहीं पाया, मैं अर्पित किया गया था—और अधूरा छोड़ दिया गया।”
रिद्धिमा की साँस टूट गई—“तुम… मेरे पिता हो?”
साया ने कोई शब्द नहीं कहा,पर उसका झुकना,उसकी आँखों की नमी,उसका एहसास —सब कह गए।
अनाया ने काँपते स्वर में कहा—“अधूरा बलिदान… आत्मा को बाँध देता है।वह आत्मा न मरती है न जीती है —बस हवेली की परछाई बनकर रह जाती है।”
कबीर, दीप्ति, सब स्तब्ध !गौरांश की आवाज रुँधी हुई थी ,बोला -“गौरव उस प्रथा से भागना चाहता था, उस श्राप से…लेकिन जिन्हें हवेली पर कब्ज़ा चाहिए था—उन्होंने उसे मार दिया।”
साया बर्फ़ जैसी आवाज़ में बोला—“और वह हत्यारा अभी भी यहीं है,”कमरे का तापमान और गिरा,दीवारें कराहने लगीं,जैसे हवेली खुद से चिल्ला रही हो।
अचानक—अनाया की आँखें बदलीं,जैसे किसी ने उसके भीतर की परत हटा दी हो।वह फुसफुसाई—“सत्य केवल रक्त से नहीं मिलता…उसकी कीमत आत्मा है।”फर्श पर पड़े काले चिन्ह चमक उठे,लकड़ी के टुकड़े से धुआँ सा उठा,दीवारों से मंत्रों की तरह पुराने स्वर उभरे।“सर्वज्ञ—उत्थान !”
“अर्पण—पूर्ण।”
गौरांश चीखा—“नहीं! उसे रोको!”
पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी,अनाया के पैरों के नीचे एक लाल वृत्त उभरा—और उसके शरीर से साया जैसी धुंध निकलने लगी।
कबीर दहाड़ा—“उस पर कुछ हो रहा है!”
रिद्धिमा आगे बढ़ी—पर उस साया ने उसे रोका और बताया —“वह खुद को नहीं— किसी और को उद्घाटित कर रही है।”लाल रोशनी फैलते हुए कमरे को निगलने लगी।
अनाया ने चीखकर कहा—*“असली वारिस— गौरांश नहीं”“असली वारिस— *कबीर है।”**
कबीर स्तब्ध—दिमाग जैसे ठप !“मैं!?मुझे क्यों!?”अचकचाकर उसने पूछा।
अनाया का चेहरा अब बिलकुल शांत था ,जैसे कोई पहेली सुलझ गई हो।“क्योंकि तुम सच्चाई से भागते नहीं हो —उसका सामना करते हो।”
गौरांश चिल्ला उठा—“यह झूठ है!”उसकी आवाज़ टूट रही थी—उसके अंदर गुस्सा भरा था … साथ ही जलन भी.....
रिद्धिमा की आँखें भर आईं,उसे कबीर की हर लड़ाई, हर आँसू—अब अर्थ देते नज़र आ रहे थे ,साया धीरे से कबीर के सामने रुका।“यदि तुम वारिस बनो—तो यह श्राप यहीं खत्म हो सकता है।”
कबीर पीछे हटा—“और अगर मैं इनकार कर दूँ?”
साया की वर्षों से दर्द और यातना से फटी सी आवाज़ आई —“तो अगला अर्पण तुम होगे।”
कबीर की सांस भारी होने लगीं ,गौरांश की आँखें लाल हो गयीं ,अनाया स्थिर खड़ी थी ,रिद्धिमा रो रही थी ।दीप्ति डर से सहमी सिकुड़ी सी खड़ी थी और हवेली—जैसे अपने अगले शिकार की प्रतीक्षा कर रही थी ।
कबीर ने काँपते स्वर में कहा—“अगर मैं वारिस बनूँ…तो क्या मैं, इस प्रथा को खत्म कर सकता हूँ?”
अनाया ने सिर झुकाया।“हाँ''किन्तु एक शर्त पर।”
कबीर फुसफुसाया—“कौन-सी?”
अनाया ने धीरे कहा—**“तुम्हें हवेली को स्वीकार करना होगा।'सर्वज्ञ' बनना होगा।”**
साया की आँखें धधक उठीं—पर उनमें दुख भी था, राहत भी।
“यदि तुम मना करते हो तो —और बलिदान होते रहेंगे। कमरे में ”सन्नाटा छा गया ,कबीर की धड़कन अब इतनी तीव्र थी —उस कमरे की हर दीवार तक सुन रही थी।उसके निर्णय की प्रतीक्षा में जैसे वो हवेली और उस हवेली की दीवारें भी खड़ी हों। आशा की उम्मींदें लगाए ,उसके सभी मित्रगण उसकी तरफ देख रहे थे किन्तु ये निर्णय लेना कबीर के लिए बहुत कठिन हो रहा था।
क्या कबीर वारिस बनेगा या खुद अर्पित हो जाएगा? गौरांश ,क्या वह निर्दोष था या केवल ताज से वंचित?अनाया—उसका सच क्या है ?अभी भी कुछ छुपा रही है?और साया—क्या उसे शांति मिलेगी?इन सभी प्रश्नों के जबाब मांगने के लिए चलिए आगे बढ़ते हैं।
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