थक जाती हूं, ठहर जाती हूं,
देखती हूं जब, चेहरे पर मुस्कान !
भोजन बना खिलाती हूं, तब सोचती हूं,
भूली मैं कैसे?अपना रूप मैं 'अन्नपूर्णा' भी तो हूं।
जीवन के कटु अनुभवों से ज्ञान ले,
जीवन की कठिनाइयों को पार कर ,
देती हूं संस्कार, जब अपने से छोटों को ,
समझा लेती हूं, सोचती हूं, मैं' सरस्वती' का रूप हूँ।
माँ की ममता से लाचार हो,
सहन करती हूं अनेक बातें, ठहर जाते इरादे ,
ज़िंदगी की क़शमक़श में, इक रूप नजर आता,
समझा लेती हूं ,अपने आपको, मैं ''जन्मदात्रि'भी हूं।
छुपा लेती हूं ,जीवन के पल,सिसकती हूं,तन्हाइयों में ,
कभी केंद्र बिंदु सी बन, कभी इर्द -गिर्द घूम किसी ग्रह सी,
कभी कठोर ,कभी नरम भी बन, पलों का गणित रखती हूँ।
निभाती हूँ ,जीवन की रस्में, उत्तरदायित्व'' गृह लक्ष्मी''का है।
जीवन के कंटकों से थकी ,सुकून की तलाश में
कभी बन जाती कठोर, क्रोध, आवेग में भूल जाती।
नारी का सौम्य रूप ,आँच आए जो मेरे अस्तित्व पर ,
तब याद आता है, मैं ''दुर्गा ''और'' काली'' भी हूँ।
बढ़ाती हूं कदम, अपनी मंजिल की ओर ,
दर्दभरी राहों से सुकून मिलता, मुझे तेरी बाहों से,
चंचल ,शोख़ ,बहती धारा सी ,ठहर जाती तेरी बाँहों में
अनेक रूपों में समाई,संग तेरे बढ़ जाती,मैं शिवा की पार्वती हूं।
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