रोहिणी तो जैसे टूट गई थी, जब उसके पति ने उसकी बाहों में अपना दम तोड़ा। अब वह क्या करेगी किसके भरोसे जीएगी ? एक अकेली औरत जात, जान को सोे झंझट नजर आ रहे थे। घर संभालेगी या फिर खेती-बाड़ी देखेगी। अभी दीनदयाल की 'दाह संस्कार 'की आग ठंडी भी नहीं हुई थी। रिश्तेदारों ने उसकी जमीन पर अपना अधिकार जतलाना आरंभ कर दिया। वे जानते थे, रोहिणी पढ़ी-लिखी तो है , नहीं ''हम जैसा कहेंगे वैसा ही करेगी।'' पति के जाने का गम तो था किंतु उसके सामने उसके बेटे का भविष्य नजर आ रहा था। वह कम से कम अपने बेटे को, पढ़ा- लिखाकर इस काबिल बना देना चाहती थी कि भविष्य में वो किसी पर निर्भर न रहे।
जब रिश्तेदारों ने उससे , उसकी जमीन की बात की, तब वह बोली - मैं जब से इस घर में ब्याहकर आई हूं , तब से मेरे पति ही, खेती-बाड़ी देख रहे थे, इस जमीन को तब से बो और जोत रहे थे। हो सकता है, यह जमीन तुम्हारी हो , किंतु आज तक उन्होंने मुझसे इस विषय में किसी ने कुछ नहीं कहा। अब मैं क्या करूंगी ?कहाँ जाउंगी , कैसे अपना और अपने बेटे का खर्चा उठाऊंगी ?
हम तुम्हारी परेशानी समझ सकते हैं , किंतु अब यह जमीन हम वापस लेना चाहते हैं , उनके सामने रोहिणी गिड़गिड़ाई और बोली - मैं अनपढ़ इस जमीन को लेकर कहां जाऊंगी ? मैं अपने पति की तरह ही इन खेतों में मेहनत करूंगी ,कम से कम पहले की तरह हम दोनों मां -बेटा अपना गुजर बसर तो कर ही लेंगे।
रिश्तेदारों में सोचा -यह अनपढ़ है, जमीन लेकर भागी थोड़े ही जा रही है, हमारा जब जी चाहेगा, इससे जमीन छीन लेंगे। तब उससे बोले -हमें साल भर जो भी धान होगा, तुम्हें देना होगा।
मन ही मन रोहिणी सोचती थी, मेरे पति ने तो कभी नहीं कहा - कि यह जमीन उनके चचेरे भाइयों की है , मैंने भी कभी पूछा नहीं, किंतु अब समय मेरे साथ नहीं है, मेरे अनपढ़ होने का यह लोग लाभ उठा रहे हैं। मुझे अपने बेटे को भी पढ़ाना है, उसने मौके की नजाकत को समझा और चुपचाप उनकी शर्तें मान लीं।
गांव में एक मास्टरनी जी आई हुईं थीं , धीरे-धीरे रोहिणी उसे घुल- मिल गई, और एक दिन बातों ही बातों में उसने अपनी समस्या उन्हें बताई।
जब उन्होंने रोहिणी की कहानी और परेशानी सुनी तो बोलीं - तुम्हारा अनपढ़ होना ही, तुम्हारी समस्या का कारण है ,मेरा विचार है ,इसी कारण वो लोग तुम्हारा लाभ उठा रहे हैं। यदि यह जमीन तुम्हारी है,तब तुम जमीन वाली होकर भी दूसरों के लिए खेती -बाड़ी कर रही हो।क्या तुम्हारे पति भी उन्हें अनाज देते थे ?
जहाँ तक मुझे याद है ,उन्होंने उन्हें अपनी फसल का कोई हिस्सा उन्हें नहीं दिया और मुझे बिना बताये देते हों तो मैं नहीं जानती। वो मुझे कुछ बताते ही नहीं थे।
यह भी एक समस्या है ,बहुत से लोग सोचते हैं ,पत्नी को बताकर क्या करना है ?यदि वो तुम्हें सब चीजें समझाते तो आज तुम इस तरह परेशान न होतीं। अब तुम्हें अपने बेटे को ही नहीं पढ़ाना है बल्कि स्वयं भी पढ़ना होगा।अभी तो बहुत उम्र पड़ी है ,यह शिक्षा तुम्हारे काम आएगी।
मैं भला अब इस उम्र में क्या पढ़ पाऊंगी ? बच्चे पढ़ते हैं।
रोहिणी की बार सुनकर मास्टरनी हँसी ,तब उन्होंने समझाया -''पढ़ाई की कोई उम्र नहीं होती तुम कभी भी किसी भी उम्र में पढ़ सकती हो,'' मैं तुम्हें पढ़ाऊंगी। रोहिणी दिनभर खेतों में कार्य करती, अपने बच्चे को स्कूल भेजती और रात्रि में एक घंटा स्वयं भी पढ़ती। धीरे-धीरे वह अपने नाम भी लिखने लगी और जोड़ - घटाव भी सीख लिए। धीरे-धीरे वह हिसाब- किताब लगने लगी, खेती में क्या आता है और क्या जाता है? कितना खर्चा आया ? जो रिश्तेदार उसे ऐसे ही समझे हुए थे, उनको वह अब हिसाब देने लगी , कुछ दिनों के पश्चात, उसे पता चला - कि वे लोग उसे ठग रहे हैं।
सुबह की पहली किरण, जब कच्चे आँगन में उतरी, तो वह सीधे रोहिणी के चेहरे पर पड़ी, उसने अपनी आँखें खोलीं और छत की दरारों से झाँकते आसमान को देखा। यह वही घर था जहाँ वर्षों से उसे “बेचारी” कहकर पुकारा जाता रहा है ,पति के गुजर जाने के बाद और समाज की अनकही सहानुभूति के बीच आज रोहिणी के मन ने एक वाक्य दोहराया -'' असहाय नहीं हूँ,मैं ''अब सब हिसाब होगा।
गाँव में उसकी पहचान अब किसी के लिए'' बेचारी बेवा'' तो किसी के लिए '' किशोर की माँ'' थी, अब तक पड़ोस की औरतें सलाह देतीं थीं - “चुपचाप दिन काट लो, भगवान का नाम लो।” सावित्री सुनती और चुप रह जाती और चूल्हे में लकड़ियाँ डालती रहती किन्तु उसके भीतर कहीं आग जल रही थी—अपने फैसले खुद लेने की आग ,अपनी जमीन पर अधिकार रखने की आग !जब भी कभी ,वो निराशा से भर जाती ,तब उसे अपने पिता की बात याद आती: “हाथ-पाँव सलामत हों तो, इंसान कभी लाचार नहीं होता।”
अब वह काग़ज़ पर अपना नाम लिखती तो उसे लगता जैसे किसी ने उसे उसकी पहचान लौटा दी हो।अब तक ज़िंदगी से भी वो बहुत कुछ सीख़ चुकी थी। शिक्षिका ने जब उसे पहली बार अख़बार पढ़ने को दिया, तो उसकी आवाज़ काँपी, पर शब्द स्पष्ट थे। उसी दिन उसने तय किया—अब वह अपने फैसलों से भागेगी नहीं, वह बेचारी बनकर जीना नहीं चाहती थी,उसने गांव की महिलाओं के साथ मिलकर अपना अचार का छोटा सा उद्योग भी आरम्भ किया। उसकी उन्नति देखकर उसके'' रिश्तेदारों के कान खड़े हो गए'' ,तब उन्होंने सोचा -कल को यदि इसे सच्चाई पता चल गयी तो ये अपनी जमीन नहीं देगी। यह सोचकर उन्होंने रोहिणी से उन खेतों में खेती करने से मना कर दिया।
किन्तु अब रोहिणी बहुत कुछ सीख़ और जान गयी थी। पंचायत में उसने ज़मीन के काग़ज़ात की बात रखी, तो वे लोग चौंके वह अब अकेली नहीं थी, उसकी शिक्षा ,उसका आत्मविश्वास और कुछ पढ़े -लिखे उसके साथ थे। धीरे-धीरे उसकी बात सुनी जाने लगी और जब जमीन का पट्टा देखा गया तो उस जमीन में उसके पति का नाम ही था ,अब वह समझ गयी ,पटवारी भी इनसे मिला हुआ था। गांव के लोगों ने उन्हें भी बहुत सुनाया और अब तक जो झूठ बोलकर उसकी कमाई का हिस्सा लिया था उसे वापस करने के लिए कहा गया।
उसका बेटा जब बड़ा हुआ तो वह पढ़ने के लिए बाहर चला गया ,अब वह अकेली रह गयी थी। तब तक माँ के नाम का गृह उद्योग गांव में खुल गया था। कई महिलाएं उससे जुड़ चुकी थीं
एक शाम बेटा आया, उसने,अपनी माँ को बदलते देखा—उनकी आँखों में आत्मविश्वास झलक रहा था उसने कहा, “माँ, तुम अकेली ये सब कैसे सँभाल लेती हो?”
रोहिणी मुस्कुराई और बोली, “अकेली नहीं हूँ बेटा—अपने भरोसे के साथ हूँ ,अब मैं असहाय नहीं हूँ। ”
अब गाँव की औरतें अब उससे सलाह लेने आतीं,तब वह कहती - “हमें सहानुभूति नहीं, अवसर चाहिए।” उसके जीवन के संघर्ष की कहानी किसी अख़बार में छपी,जिसका शीर्षक था—‘असहाय नहीं हूँ’। रोहिणी ने वह कतरन सहेजकर अपने पास रख ली । उस दिन उसने आँगन में दीया जलाया—किसी और के लिए नहीं, अपने लिए।
जब रात गहरी हुई, उसने आसमान की ओर देखा। दरारें अब भी थीं, पर उनके बीच तारे चमकते थे। रोहिणी जानती थी—हालात कठिन हो सकते हैं, पर इंसान तब तक असहाय नहीं होता, जब तक वह खुद हार न माने और उसने हार मानने से इंकार कर दिया था।
