''सुख की ख़ोज'' करने से पहले हमें जानना होगा-' सुख' क्या है ?सुख की परिभाषा क्या है ?सुख की परिभाषा के विषय में यदि हम लोगों के विचार जाने तो सबके विचार में सुख का अलग-अलग महत्व है। वैसे हमें सुख की ख़ोज करनी ही क्यों है ? और दुःख हमें इतना महसूस क्यों होता है ? क्योंकि जब सुख आता है ,तब हम उसमें इतने व्यस्त हो जाते हैं ,पता ही नहीं चलता है कि सुख कब चला भी गया ?किन्तु उस सुख के क्षण हमें दुखी होने का बार -बार एहसास कराते हैं। कहने को तो लोग यही कहते हैं -'सुख हो या दुःख हमें समभाव में ही रहना चाहिए किन्तु ये दुःख इतना विचलित कर जाता है ,मन को ही नहीं ,कभी -कभी ज़िंदगी को भी तोड़ जाता है ,तब इंसान हताश हो' सुख के पीछे' भागता है उसकी ख़ोज आरम्भ होती है।
कोई व्यक्ति 'सुख' बाहरी वस्तुओं में खोजता है, कोई अपनी उन्नति में सुख महसूस करता है। कोई व्यक्ति दोस्तों के साथ मस्ती में सुख महसूस करता है। कोई अपने घर- परिवार को सुखी बनाने के लिए उनकी खुशी में ही सुख महसूस करता है तो कोई इस संसार को ही मोह माया का जाल समझ कर इससे मुक्त होने में, सुख महसूस करता है।
जब से इंसान को समझ आती है वो सुख की तलाश में भटकने लगता है , कभी सोचा है -बालपन में हम सुख की तलाश क्यों नहीं करते हैं ? सुख की आवश्यकता, हमें बड़े होने पर ही क्यों महसूस होती है ? क्या कोई बच्चा सुख का अनुभव नहीं करता ? क्योंकि उसके लिए सुख का कोई महत्व नहीं है, माता-पिता का सामीप्य , समय पर भोजन मिल जाना, खेलकूद में समय व्यतीत करना, उसके लिए यही सुख है'', इससे ज्यादा कि उसे आवश्यकता नहीं होती किंतु जैसे-जैसे, उसकी उम्र बढ़ती है , तब वह सुख की तलाश में भटकने लगता है। कोई भी कठिन कार्य करने पर उसे दुःख की अनुभूति होती है। किसी भी सरल कार्य को करने से सुख का अनुभव होता है लेकिन क्या यही सुख है ? दोस्तों के साथ दिन-रात मस्ती करना। अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन न करना, क्या इसमें सुख है ?
कई बार जब किसी को उसके उत्तरदायित्वों के प्रति सचेत किया जाता है ,अथवा उसकी इच्छा के विरुद्ध उसे वो कार्य करना पड़ता है ,तब उसे सुख का नहीं, दुःख का अनुभव होता है। एक आलसी के लिए तो कार्य न करना भी एक तरह का सुख ही हो सकता है। किसी के साथ चालें चलना, किसी को धोखा देना भी किसी के लिए सुख की अनुभूति दे जाता है। ये हर व्यक्ति की अलग -अलग सोच और विचारों पर निर्भर करता है। क्या अत्याधुनिक साधन जुटाना सुख है ? ये सब उसे सुकून तो दे सकता है किन्तु सुख की अनुभूति नहीं करा सकता। इच्छाएं, लालसाओं की पूर्ति होना क्या सुख है ? नहीं ! वो कुछ पल का सुकून है,राहत है ,उसके पश्चात उसे फिर से किसी न किसी की चीज की कमी महसूस होगी और मन फिर से इच्छाओं के जंगल में भटकने लगता है।
सुख वो है ,जो मन को अंदर से शांत करे ,तो क्या ईश्वर की राह पर जाना सुख है ? जहाँ हम अपनी इच्छाओं को बलात ही मारने अथवा दबाने का प्रयास करते हैं। जिसको कभी देखा नहीं ,जिसको कभी जाना नहीं ,अपने सुख और शांति के लिए उसे ढूंढते हैं। वो कहाँ है ? वो हमारे इर्द -गिर्द ही तो है किसी की मासूम हंसी में ,सच्ची दोस्ती के साथ में ,मां -पिता के आशीर्वाद में ,अच्छे और सच्चे रिश्तों में ,बुजुर्गों की दी परम्पराओं में ,किसी भूखे को जब रोटी दी जाये ,उसकी भूभूक्षा के शांत होने में और जब मन शांत हो जाता है ,तो सुख की अनुभूति होती है। वह सुख हमारे आस -पास होता है और हम भटक रहे होते हैं। ग़ैर सुख -समृद्धि देख ,उसके बराबर या उससे आगे बढ़ने की होड़ में ,मन की बेचैनी ,दिमाग की परेशानी ,को शांत करना ही सबसे बड़ा सुख है किन्तु इसके लिए किसी दूसरे को परेशान कर ,सुख और शांति मिलना असम्भव है ,हाँ कुछ देर या दिनों के लिए सुकून मिल सकता है किन्तु सुख नहीं।
क्या ज्ञान की बातें सुनना- पढ़ना सुख दे सकता है ?नहीं कुछ पल का सुकून !किन्तु 'सुख' तो अपने मन की शान्ति में है। ये एक आंतरिक भाव है ,जो अंदर ही महसूस होता है ,भटकाव में सुख नहीं ,वह भटकाव चाहे मन का हो या फिर सांसारिक ! तो क्या साधु -महात्मा सुखी है ?उनके करीब तो परमात्मा है ,अथवा वे परमात्मा के करीब रहते हैं ,तो क्या वे ही सुखी हैं ?यदि वे सुखी हैं ,तो धन की अभिलाषा क्यों ? एक कथावाचक कथा सुनाता है ,करोड़ों की सम्पत्ति का मालिक है। उसे तो सबसे ज्यादा सुखी होना चाहिए किन्तु वो भी इस दुनिया के प्रपंचों से मुक्त नहीं है। तो क्या देश -विदेश भृमण करना सुख है ?
सुख ,एक मन का आंतरिक भाव है ,जो कभी -कभी घी चुपड़ी गर्मा -गर्म रोटी और पत्नी के द्वारा प्रेम से बनाई चटनी में भी मिल सकता है। बच्चों की प्यार भरी तोतली जिज्ञासाओं में भी मिल सकता है किन्तु ये इस बात पर निर्भर करता है कि उस व्यक्ति को सुखानुभूति किससे महसूस हो रही है ,वरना इधर -उधर भटकने के पश्चात ये नहीं कहता-' कि सुख तो अपने घर में ही मिलता है।'
