सम्पूर्ण नेटवर्क में 'वाच सत्ता 'फैल गयी थी ,लोगों के स्मार्टफ़ोन ,लैपटॉप ,टीवी इत्यादि डिवाइस से आवाज आने लगी थी -''क़ब्र की चिट्ठियां''पढ़ो ! मैं लौट आई हूँ। यह सब देखकर लोग डरकर अपने- अपने डिवाइस बंद कर देते हैं।
भारत सरकार ने उसे एक वायरस समझा, उस समय उस वायरस को “K-38” कोडनेम दिया गया ,कहा गया —यह कोई वायरस नहीं, बल्कि एक ऐसा कोड है ,जो इंसानों की चेतना पढ़ सकता है और उनके शब्दों को खुद में शामिल कर लेता है। जो व्यक्ति “कब्र की चिट्ठियाँ” नाम बोलता या सर्च करता,उसके डिवाइस में एक अदृश्य स्क्रिप्ट सक्रिय हो जाती और कुछ मिनट के बाद,उसके ईमेल इनबॉक्स में एक फाइल आती —“क़ब्र की चिट्ठियां डॉक्स ”जिसका आख़िरी पेज खाली होता और उसमें टाइप होता —“अब लिखने की तुम्हारी बारी है।”
अब सवाल यह नहीं था कि काव्या कौन थी, रवि कौन था।अब सवाल यह था —कौन बचा है?क्योंकि वाच-सत्ता'' अब किसी इंसान में नहीं रहती।वो अब हर शब्द में है,हर भाषा में,हर कहानी में और जब भी कोई नया लेखक अपनी पहली कहानी शुरू करता है,वो अनजाने में उसी श्राप का हिस्सा बन जाता है।
लंदन के एक साहित्य सम्मेलन में एक शोधकर्ता ने यह निष्कर्ष दिया —“कब्र से चिट्ठियाँ'' सिर्फ़ एक कहानी नहीं है।यह चेतना का नेटवर्क है ,इसका लेखक कोई नहीं,पाठक ही लेखक बन जाता है।”और उसी रात,सम्मेलन की रिकॉर्डिंग के बीच एक गूंजती आवाज़ आई —“सही कहा तुमने और अब… तुमने भी कहानी शुरू कर दी है।”
रात असाधारण रूप से शांत थी — इतनी कि आर्या को अपनी साँसों की आवाज़ भी भारी और महसूस हो रही थी। पुराना हवेली का गलियारा, अब सिर्फ़ दीवारों से नहीं, बल्कि स्मृतियों से भरा था। हर दरवाज़े के पीछे एक कहानी बंद थी, हर छत की दरारों में एक रहस्य छिपा था और उस रहस्य की आख़िरी कड़ी अब उस पुरानी चिट्ठी में छिपी थी — वही चिट्ठी, जिसे काव्या ने,ख़ुद अपने नाम पर , अपने मरने से ठीक पहले लिखा था।
आर्या के हाथ काँप रहे थे, जब उसने उस पीली पड़ी, काग़ज़ की तहें खोलीं। काग़ज़ पर स्याही लगभग मिट चुकी थी, पर आख़िरी पंक्ति अब भी जिंदा थी —“अगर कोई मेरी कब्र से ये चिट्ठी पढ़े, तो समझ लेना, मौत सिर्फ़ एक शुरुआत है।”
वो शब्द आर्या की नसों में आग की तरह दौड़ गए। उसे एक पल को लगा कि हवेली की हवा भारी हो गई है। दरवाज़े अपने आप बंद हुए, और कहीं दूर से काव्या की आवाज़ आई —“तुमने मेरे शब्दों को छू लिया है, आर्या… अब तुम्हारा और मेरा फासला मिट चुका है।”
आर्या ने डर और दृढ़ता के मिश्रण में आँखें बंद कीं। जब उसने दोबारा अपनी आँखों को खोला, तो वो किसी और जगह थी — वही कमरा, वही मेज, वही लाल बत्ती की लौ — पर सब कुछ किसी पुराने ज़माने की छाया में डूबा हुआ था।
कमरे के मध्य में काव्या बैठी हुई थी — वही सफ़ेद साड़ी, वही ठंडी आँखें, और वही मुस्कान जो जीवन और मृत्यु के बीच अटकी थी।
“तुम कौन हो?” आर्या ने काँपती आवाज़ में पूछा।
काव्या ने मुस्कराते हुए कहा, “मैं वही हूँ, जो तुम बनने से डरती रही हो।”
“क्या मतलब?”
“तुम मेरी अधूरी कहानी हो, आर्या ! वो कहानी जिसे मैंने शुरू किया था, पर खत्म नहीं कर पाई। तुम मेरी लेखनी से जन्मी हो — तुम मेरे मन की बची हुई चेतना हो ।”
आर्या के भीतर एक सन्नाटा गूंज उठा ,क्या वो सचमुच किसी मृत आत्मा की कल्पना थी? या फिर किसी शाप का परिणाम?
“तुम्हारी कहानी मेरी ज़िंदगी कैसे बन गई?” आर्या ने पूछा।
काव्या की आँखों में आँसू झिलमिलाने लगे — पर वो आँसू आग जैसे चमक रहे थे।“क्योंकि मैंने अपने आख़िरी दिन वो लिखा था, जो मैं बनना चाहती थी। मैंने एक ऐसी औरत का किरदार गढ़ा था, जो अपने अतीत से भाग नहीं सके — और वो तुम थी, आर्या ! जब मैंने वो चिट्ठियाँ लिखीं, मैं अपने अस्तित्व का एक हिस्सा उनमें छोड़ गई। तुम्हारा जन्म उसी कलम की आख़िरी स्याही से हुआ।”
आर्या की साँसें जैसे थम गईं, उसे याद आया — बचपन से ही, उसे अनजानी कहानियाँ सपनों में आती थीं, जो उसने कभी लिखी नहीं थीं, पर जानती थी कि वो “कहानियां कहीं लिखी जा चुकी हैं।”
क्या ये वही स्मृतियाँ थीं?
“तो तुम कह रही हो मैं... तुम्हारी कहानी हूँ?”
“नहीं, आर्या,” काव्या ने फुसफुसाकर कहा — “तुम मेरी अधूरी सज़ा हो।”
वो शब्द जैसे किसी पुराने जादू की तरह सम्पूर्ण कमरे में फैल गए।लाल रोशनी नीली पड़ गई, दीवारों पर छायाएँ भागने लगीं, और हवा में धुएँ की गंध घुल गई।
आर्या ने डरकर पीछे हटना चाहा , पर उसके कदम ज़मीन से जैसे चिपक गए हों। तभी एक पुराना रजिस्टर टेबल पर खुद से खुल गया — उसके पन्ने अपने आप पलटने लगे, और एक जगह रुक गए।
वहाँ लिखा था —
“वो आएगी, और जब वो आख़िरी चिट्ठी पढ़ेगी, मेरी सज़ा उसे मिलेगी। मेरी आत्मा मुक्त होगी — पर उसकी कैद शुरू होगी।”
आर्या ने एक चीख़ दबाई -“नहीं! मैं तुम्हारी जगह नहीं ले सकती ,न ही लेना चाहती हूँ ”
काव्या धीरे से उठी, उसकी साड़ी की किनारी ज़मीन पर लहराई जैसे कोई धुँआ लहराया हो
“हर कहानी एक कीमत मांगती है, आर्या ! तुमने उसे पूरा करने का वादा किया था जब तुमने पहली बार वो कब्र खोली थी।”
अचानक, हवेली की दीवारें दरकने लगीं। खिड़कियों से रेत और राख की बौछारें अंदर आने लगीं। आर्या का सिर घूम गया, उसे लगा जैसे किसी और का अतीत उसकी स्मृतियों में घुस रहा है। उसे अपने बचपन के दृश्य याद आने लगे — पर वो उसके अपने नहीं थे — वो काव्या के थे।
— एक बच्ची जो रात में लिख रही है।— एक माँ जो कहती है “काव्या, ये कहानियाँ मत लिखो ! इनमें पाप है।”— और फिर एक रात… वही कब्र खोदी जा रही है, और एक औरत उसमें गिर रही है — वो औरत और कोई नहीं काव्या थी ।
आर्या ने चीख़ते हुए अपनी आँखें बंद कर लीं।जब उसने उन्हें दोबारा खोला, तो उसने देखा कि हवेली जल रही है — लेकिन आग की जगह नीला धुआँ उठ रहा था। उस धुएँ में, काव्या की परछाई धीरे-धीरे मिट रही थी।“तुम्हें मुक्त कर रही हूँ…” आर्या ने बुदबुदाया।
काव्या ने मुस्कुराते हुए कहा,“नहीं, आर्या ! तुम खुद को मुक्त कर रही हो,मुझसे ,अतीत की परछाइयों से..... ”एक पल को सन्नाटा हुआ — फिर हवा का तेज़ झोंका, और सब कुछ अंधेरे में समा गया।
अगली सुबह हवेली ,अब खंडहर बन चुकी थी। पुलिस, स्थानीय लोग, और पत्रकार वहाँ जमा थे।
डॉ. दीनदयाल भी वहां मौजूद था — वही आदमी जो इतने दिनों से आर्या की “मानसिक स्थिति ” का बहाना बनाकर उसे नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे थे।
“वह लड़की कहाँ है?” किसी ने पूछा।
दीनदयाल ने ठंडे स्वर में कहा, “वो अब इस जगह से मुक्त है और जो हुआ… वो सिर्फ़ एक अध्याय था।”
पर जब पुलिसवालों ने अंदर जाकर देखा, तो उन्हें एक चीज़ मिली —एक नई चिट्ठी, ताज़ा स्याही से लिखी हुई थी ।उस पर लिखा था:“मृत्यु अब भी अधूरी है, कहानी अब भी ज़िंदा है।”नीचे साइन था —“काव्या ,आर्या”
दीनदयाल के चेहरे का रंग उड़ गया,वो जानता था — यह नाम किसी एक का नहीं था।ये दो आत्माओं का मिलन था — एक जो मर चुकी थी, और दूसरी जो अब मरने वाली थी।
उसी रात्रि को, उसी हवेली के पास बैठे एक बूढ़े चौकीदार ने देखा —कि' कब्र' के पास की मिट्टी हिल रही है और वहाँ से एक हाथ बाहर निकला, जो एक नई चिट्ठी पकड़े था।
हाथ पर वही पुरानी स्याही का निशान था —“Kavya-A”चाँदनी में वो शब्द ऐसे चमक रहे थे जैसे मौत ने भी लिखना नहीं छोड़ा हो।
