Mysterious nights [part 133]

 रूही अपनी याददाश्त जाने के बाद के माता -पिता तारा जी और डॉक्टर अनंत को अपनी कहानी सुनाती है और उन्हें बताती है -उसका असली नाम शिखा है ,और वो उस हवेली की'' अधूरी दुल्हन'' थी ,वे लोग उसे ज़बरन ही'' बिन ब्याही दुल्हन'' भी बनाना चाहते थे। वो उस हवेली से भाग जाना चाहती थी किन्तु पकड़ी गई। तब उन लोगों में उसके प्रति, आक्रोश भर गया और उन्होंने सोच लिया। यह प्यार से नहीं मान रही है ,तो इसे ज़बरन इस घर की बहु बनाना पड़ेगा। उन्हें विश्वास था ,एक बार ये काबू में आ गयी तो फिर इंकार नहीं कर सकेगी। इसी सोच के चलते उन्होंने उसे कमरे में बंद कर लिया। 


शिखा अपने सामने चार आदमियों को खड़े देखकर हिल गयी ,अपने आने वाले समय को सोचकर ही उसकी रूह काँप गयी। तब उसे दमयंती से ही एक उम्मीद लगी ,औरत होने के नाते अब ये ही मुझे बचा सकती है ,उसने दमयंती को पुकारा -मम्मी जी ! आप मुझे माफ कर दीजिये !आगे से ऐसा नहीं होगा आप जैसा कहेंगी, मैं वैसा ही करूंगी'' किन्तु उसकी विनती कौन सुनता ?दमयंती तो स्वयं ही, अपने बेटों के पास उसे छोड़कर गयी है। तब शिखा उन चारों की तरफ देखकर कहती है - मुझे छोड़ दो !मुझे जाने दो !मैं तुम्हारे भाई की विधवा हूँ।

उसकी बात सुनकर,सुमित आगे आया और बोला - आज तुम्हें, हम ''सुहागन ''बना देंगे,भाई भी आज अगर जिंदा होता,तो वो भी हमें तुम्हारे प्यार से वंचित नहीं रहने देता ,यदि भाई आज भी हमें देख रहा होगा तो खुश ही होगा। कहते हुए सुमित ने शिखा  को सीने से लगा लिया और बोला -आज इस सीने में ठंडक पड़  जाएगी कहते हुए उसकी ब्लाउज की हुक खोलने लगा। 

शिखा उससे छूटना चाह रह थी ,जैसे ही उससे छूटी दूसरे ने अपनी बाहें फैला दीं ,वो तुम्हें पसंद नहीं , आओ ! तुम मेरे सीने से लग जाओ ! चारों उसे घेरे खड़े थे। उन्होंने मुझे एक -एक कर निर्वस्त्र कर दिया।  मैं उन चारों के सामने निर्वस्त्र हो रो रही थी। शर्म के कारण, मैंने  बिस्तर पर पड़ी चादर को खींचा किंतु तभी गौरव ने, मुझे खींचकर बिस्तर पर लिटा दिया और बोला -तुम क्या चाहती हो, हम चारों एक साथ तुम्हारे साथ, यही रहें या एक-एक कर आएं।

 सुमित बोला - भाई ! आज मेरी बारी थी किंतु इसकी हरकतों के कारण, तुम सबको भी इसके साथ रहना होगा किंतु सबसे पहले आज मैं ही रहूंगा, कहते हुए उसने, अपने अन्य भाइयों को कमरे से बाहर निकल जाने के लिए कहा और बोला -तुम सब बाहर मेरी प्रतीक्षा करो ! आज इसकी शर्म और भय सब निकल जाएगा मैं अपने अर्धनग्न शरीर को अपने हाथों से ढकने का नाकाम प्रयास कर रही थी।

 उन लोगों के चले जाने के पश्चात, सुमित से मैंने कहा -मुझ पर रहम करो !इस तरह जबरदस्ती के रिश्ते में प्यार नहीं होता, न ही घर बसते हैं। मैं तो बेवा हूँ। 

आज तुम हम चारों की' सुहागन' बनोगी ,हम तुम्हें कोई कमी नहीं होने देंगे। सम्मान से तुम इस हवेली में रहोगी कहते हुए ,उसने मुझे अपनी तरफ खिंचा। अब आ भी जाओ !ये शर्म का ढोंग छोडो !वे तीनो बाहर अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। ज्यादा खींचतान करने से कोई लाभ नहीं ,कहते हुए उसने भी अपने वस्त्र उतार दिए। मैं कब तक लड़ती ?आख़िर में मैं, थक गयी थी ,एक- एक कर मेरे तन को ही नहीं, मेरे मन को भी चारों ने तार -तार कर दिया। 

हर एक से मैंने प्रार्थना की ,शायद किसी को तो रहम आये ,ये जो गर्वित मुझे लेने आया था ,जो आज रूही के प्रेम में पागल है। जब मैंने इससे उसकी भाभी होने की दुहाई दी , तो वह लापरवाही से बोला -यह रिश्ता तो कब का खत्म हो चुका है? आज हम एक नया रिश्ता जोड़ेंगे , तुम तो शुक्र मनाओ ! कि इस रिश्ते को हम कोई नाम दे रहे हैं, तुम्हें परिवार का हिस्सा बनाएंगे , समाज के सामने तुम इस हवेली बहू होगी , कहते हुए वह मुझ पर झपट पड़ा , बहुत हाथ -पैर मारने के पश्चात भी, मैं कुछ नहीं कर पाई ,कभी -कभी तो उस भगवान पर क्रोध आता है ,उसने एक औरत को इतना कमज़ोर क्यों बनाया ?कहते हुए रोने लगी। 

तुम उस हवेली में कब तक रहीं ?तुम्हारी ये हालत कैसे हुई थी ?क्या तुम्हें उन लोगों ने उस हवेली से निका ल दिया ,तारा जी ने पूछा। 

न ही मैं, उस हवेली से भाग पाई और न हीं अपनी अस्मत को बचा सकी। उस रात्रि वे लोग हंस रहे थे और मैं रो रही थी। मेरे घर वालों को तो पता भी नहीं होगा , कि मुझ पर क्या बीत रही थी ? बारी-बारी से वे चारों आते चले गए। मैं बेबस , लाचार अपनी किस्मत को रो रही थी। वो दमयंती औरत होकर भी मेरे दर्द को समझ न सकी,दाँत पीसते हुए रूही बोली। 

 बाहर आकर वे दमयंती से बोले -आज यह  इस घर की बहू बन चुकी है, यह अब और आनाकानी नहीं करेगी,भागती भी है ,तो बाहर कोई पूछने वाला नहीं ,इसके माँ -बाप से हम भी कह देंगे,वो आवारा ! हमारे मत्थे मंढ दी ,अपने किसी यार के साथ भाग गयी होगी। 

मैं अंदर विक्षिप्त सी हालत में सब सुन रही थी ,किन्तु हाथ -पांव नहीं हिला पा रही थी ,लग रहा था ,जैसे उनमें जान ही न बची हो। सिर्फ़ मेरी आँखों से आंसू बहे जा रहे थे। मुझे लग रहा था, जैसे मेरा इस जीवन पर कोई अधिकार ही नहीं है, मैं जीना नहीं चाहती थी, अपने तन को देख , मुझे अपने आप से घृणा हो रही थी। मर भी तो नहीं सकती, अगले दिन मैं  कमरे से बाहर नहीं आई और न ही भोजन किया और न ही मुझ पर किसी को तरस आया।

 एक औरत होकर दमयंती ने भी, औरत के दर्द को नहीं समझा। उसे लग रहा था, यह सब मेरे साथ हो जाएगा तो मुझे, इसकी आदत हो जाएगी, या मैं धीरे-धीरे सब स्वीकार कर लूंगी। सारा दिन कमरे में पड़े रहने के पश्चात भी, जब मैं कुछ देर के लिए उठी तो मेरा बदन बुरी तरह से दुख रहा था। मुझसे  उठा भी नहीं जा रहा था। मुझे चक्कर आ रहे थे, किंतु शाम के समय दमयंती आई और बोली - तैयार हो जाओ ! अब तुम्हें फिर से दुल्हन बनना है। कहते हुए उसने उसी लड़की को भेज दिया, मेरी हालत देखकर वह काँप  उठी और बोली - इससे तो अच्छा था ,आप ये सब सहर्ष स्वीकार कर लेतीं ,तुम्हारी सास  भी तो शान से जी रही है ,इस घर की मालकिन बनी हुई है ,और तुम्हारी क्या हालत हो गयी है ?क्या तुमने अपने को शीशे में देखा है ?

नहीं, मुझे अब आइना देखने की आवश्यकता नहीं है ,मैं उस शिखा से नजरें नहीं मिला पाऊँगी ,उसने मुझे  चुपचाप  तैयार किया,भोजन खिलाया ,कुछ देर समझाती रही और चली गई। जाते-जाते इतना कह गई  - 'तुम्हारे लिए यही बेहतर था , तुम प्रेम से ही मान जातीं, इतनी दुर्गति तो ना होती।'' 

मुझे, कमरे में कैद कर दिया गया था, और हर रात्रि मैं, उन चारों की दुल्हन बन रही थी, अपनी विवशता पर रोती थी,मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था ,जैसे कोठे पर बैठी हूँ ,वे लोग आते और मेरी आत्मा को तिल -तिल खरोंचकर चले जाते।  मैंने भोजन नहीं किया या नहीं ,उन्हें, इस बात से कोई मतलब नहीं ,मैं टूटती जा रही थी ,मुझे कमजोर होते देख, जबरन ही मुझे भोजन किया कराया गया। 


laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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