बारिश की हल्की बूंदें, पुराने छप्पर पर टपक रही थीं। बाहर ठंडी हवा थी, मगर भीतर रामसिंह के दिल में एक तपिश थी—जो सालों से जल रही थी, न बुझी थी, न कम हुई थी । आज उसने अपना पुराना ट्रंक खोला, जिसमें कुछ फटी हुई फाइलें रखी हुई थीं, एक पुलिस टोपी, और एक मेडल ! यही उसके जीवन की पहचान थे।
रामसिंह अब सत्तर पार कर चुका था वह अब रिटायर्ड हेड कॉन्स्टेबल था । गाँव में लोग उन्हें “रामसिंह बाबू” कहकर आदर से बुलाते थे, लेकिन उनके अपने बेटे रवि के लिए तो वो बस एक सख़्त ,ज़िद्दी पुरानी सोच वाला “पिता” था।
रवि शहर में बैंक में काम करता था। हर महीने उन्हें पैसे भेजता, किन्तु मिलने के लिए साल में एक बार भी मुश्किल से आता। आज वही रवि बिना बताये अचानक ही घर आ गया।
“पिता जी, आपको शहर ले जाने के लिए आया हूँ,” रवि ने कहा, बैग रखते हुए।
“शहर? अब बुढ़ापे में मैं ,वहां जाकर क्या करूँगा ?”
“यहाँ अकेले रहना ठीक नहीं है,अब माँ भी नहीं रहीं, अब आप भी...” रवि की आवाज़ धीमी पड़ गई।
रामसिंह ने ट्रंक बंद किया, आँखों में कहीं गहराई उतर आई। “अकेला ? नहीं बेटा, मैं अकेला नहीं हूँ। ये घर, ये यादें, ये मेरी ड्यूटी—सब यहीं हैं।”
रवि ने झुँझलाकर कहा,- “ड्यूटी? अब कौन सी ड्यूटी? नौकरी तो बीस साल पहले खत्म हो गई थी, पिता जी!”
रामसिंह मुस्कुराए, “फ़र्ज़'' सिर्फ़ नौकरी का नहीं होता बेटा ! आदमी यदि निभाना चाहे तो जीवनभर फ़र्ज चलता रहता है।”
रवि चुप रहा,उसके अंदर अपने पिता के लिए गुस्सा भरा था। उसे हमेशा लगता था, कि पिता ने अपनी ड्यूटी और फ़र्ज के लिए उसकी माँ और उसे भी, नज़रअंदाज़ किया। जब वह छोटा था, पिता हमेशा ड्यूटी पर रहते—त्योहारों पर, जन्मदिन पर, यहाँ तक कि माँ के बीमार होने पर भी वो ड्यूटी पर ही थे और फिर, एक दिन बिना शिकायत ,बिना किसी उम्मीद के माँ चली गईं।
तभी से रवि, पिता की परिवार के प्रति लापरवाही कहो या उदासीनता के लिए हमेशा उनसे नाराज़ रहा।
उस रात भी बारिश तेज़ हो गई। बाहर बिजली कड़की, और गाँव के दूसरी ओर से चीख़ की आवाज़ आई। रामसिंह झट से उठे, लाठी उठाई और छतरी लेकर बाहर निकल पड़े।
“पिता जी, इस मौसम में ,बाहर क्यों जा रहे हैं ?” रवि ने रोका।
“किसी का बुलावा सुना है, बेटा…! ये बुज़ुर्ग कान अब भी फ़र्ज़ की आवाज़ पहचानते हैं।”
रवि ने मजबूरी में साथ जाने का फैसला किया।
गाँव के किनारे पर पहुँचकर देखा—एक पुराना घर ध्वस्त हो रहा था। अंदर से किसी औरत की आवाज़ आ रही थी, “बचाओ!”
रामसिंह बिना सोचे अंदर घुस गए। रवि पीछे-पीछे, किसी तरह लकड़ी के तख़्त हटाकर उन्होंने बुज़ुर्ग औरत को बाहर निकाला।
वो उसी गांव की शांति काकी थी। वही, जो हमेशा रामसिंह के खिलाफ़ गाँव में बोलती थी कि “ड्यूटी के चक्कर में बीवी को मरवा दिया इसने।”
रामसिंह ने उन्हें अपने कंधे पर उठाया और सुरक्षित जगह ले आए।
रवि ने देखा—उसके बूढ़े पिता, जो अब काँपते हाथों से चल भी मुश्किल से पाते थे, जान जोखिम में डालकर किसी और की ज़िंदगी बचा रहे थे।
वह बोला नहीं, बस देखता रहा ,उनके उस फर्ज़ के जुनून को.....
अगले दिन गाँव में सभी लोग, रामसिंह की बहादुरी की बातें कर रहे थे लेकिन रामसिंह चुप थे। उनके चेहरे पर कोई गर्व नहीं, बस शांति थी।
शाम को रवि उनके पास आया,“पिता जी !” उसने धीमे से कहा, “आपको डर नहीं लगा था, कल रात?”
“कैसा डर? बेटा ! जब आदमी फ़र्ज़ निभाने निकलता है, तो डर पीछे रह जाता है।”\
रवि ने कुछ पल सोचा, फिर पूछा, “माँ के समय भी… आपने यही सोचा था?”
उसका प्रश्न सुनकर ,रामसिंह की आँखें भर आईं, उन्होंने धीरे से कहा - “हाँ बेटा… उस रात भी मैं अपनी ड्यूटी पर था। गाँव में दंगे भड़क गए थे। मुझे पता था, अगर मैं न जाता तो कई जानें चली जातीं और जब घर वापस लौटा…तो तुम्हारी माँ चली गई थी। उस दिन मैंने सोचा, मैं पति के फ़र्ज़ में हार गया, पर इंसान के फ़र्ज़ में नहीं।”
अपने पिता की बातें सुनकर रवि की आँखें नम हो आईं।वो पहली बार अपने पिता को समझ पाया—उनकी सख़्ती के पीछे छिपा दर्द, उनकी चुप्पी के पीछे की मजबूरी।
कुछ दिनों के पश्चात रवि वापस शहर जाने लगा।
“पिता जी, अब मैं आपको लेने नहीं आया हूँ,” उसने कहा - “बस मिलने आया हूँ… और धन्यवाद कहने। आपने जो फ़र्ज़ निभाया, उसने मुझे सिखाया कि इंसान का असली मूल्य उसके कर्म में है।”
रामसिंह ने मुस्कुराते हुए, उसका सिर सहलाया,“याद रखना बेटा, फ़र्ज़ कभी छोटा-बड़ा नहीं होता—बस सच्चा होना चाहिए।”
रवि चला गया, मगर इस बार उसके दिल में अपने पिता के प्रति कोई शिकायत नहीं थी। उसे गर्व था कि वो उस आदमी का बेटा है जिसने अपने जीवन के हर मोड़ पर कहा —“मैंने अपना फ़र्ज़ निभाया।”
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