शहर के कोने में बने एक पुराने से घर के बरामदे में, एक बूढ़ा व्यक्ति लकड़ी की पुराने डिजाइन की कुर्सी पर बैठा हुआ था। उसके चेहरे की झुर्रियों की गहराई में बीते हुए सालों का दर्द साफ झलक रहा था।उस व्यक्ति का नाम — 'रामनारायण मिश्रा'था।
ये घर कभी हंसी-खुशी से गूंजता था, मगर अब सन्नाटा उसकी दीवारों पर परत बनकर चिपक गया है।आज बीस साल के पश्चात ,उनका बेटा अभिषेक उस सन्नाटे को तोड़ने आने वाला था।
रामनारायण की पत्नी, सावित्री, चार साल पहले ही गुजर चुकी थी। जाने से पहले उसने, अपने पति से एक ही बात कही थी —
“अगर कभी अभिषेक लौटे... तो उसे माफ कर देना ! दिल के घाव भरने के लिए नमक नहीं, प्यार चाहिए।”
लेकिन उस दिन के बाद रामनारायण ने न किसी को बुलाया, न किसी से मिलने गया,उसके लिए तो वो दिन ही आखिरी था जब अभिषेक ने गुस्से में अपने पिता से कहा था —“आपकी ज़िद ने मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी, मैं अब कभी इस घर में वापस नहीं आऊँगा!”वो लम्हा जैसे समय की किताब में जम गया था।
आज, इतने सालों बाद, दरवाज़े की घंटी बजी।रामनारायण जी का ह्रदय काँप उठा, धीरे-धीरे उठते हुए, उन्होंने कांपते हाथों से दरवाज़ा खोला।सामने वही चेहरा था — बस अब ज़रा परिपक्व, थका हुआ, और आँखों में स्नेह का सागर और अपनी गलतियों का एहसास नजर आ रहा था।
“बाबा…” उसकी आवाज़ भर्राई हुई थी।
रामनारायण बस उसे देखते रहे ,उनके शब्द तो जैसे न जाने कहाँ गुम हो गए थे ?कई सालों की चुप्पी एक झटके में ही टूट गई, मगर भावनाएँ इतनी भारी थीं कि कोई कुछ कह न सके बस उनकी आँखों ने नम होकर उनकी भावनाओं को व्यक्त कर ही दिया।
अभिषेक ने सिर झुकाया और अपने पिता के पांव छूते हुए पूछा -बाबा !“बहुत देर कर दी, ना?
”रामनारायण ने एक गहरी सांस ली- “हाँ… देर तो की है, पर आने में देर हो जाए, ये माफ़ किया जा सकता है… क्या तुम अभी भी लौटना चाहते हो ?”
ऐसा मत कहो ! बाबा ! दोनों बरामदे में बैठ गए। हवा में पुरानी यादों की खुशबू घुलने लगी।मौन का वह पल शब्दों से ज़्यादा बोल रहा था।कुछ देर बाद अभिषेक बोला,“बाबा, मैं सोचता था, आप मुझसे कभी बात नहीं करेंगे।मैं आपकी बात नहीं मान सका… लेकिन मैं गलत था। जिस जिद को मैं अपने सपनों की आज़ादी समझता था, वो असल में मेरा ''अहंकार'' था।”आप मुझे समझाना चाहते थे ,अपने अनुभवों के माध्यम से मुझे ,सही राह दिखाना चाहते थे किन्तु उसे मैं आपकी ज़िद समझ बैठा।
रामनारायण की आँखों में आँसू छलक आए।“तुम्हें पता है, बेटा… जब तुम गए थे, उस दिन मेरा बेटा नहीं, मेरा सब कुछ चला गया था। तुम्हारी माँ दिन-रात तुम्हारी फोटो से बात करती थी। वो हर त्यौहार पर तुम्हारे लिए थाली लगाती थी।”
रोने और पश्चाताप से अभिषेक की आँखें लाल हो गईं।उसने धीमे से कहा, “आख़िरी बार माँ का फ़ोन आया था। मैं आया नहीं, सोचा था, बाद में जाऊँगा किन्तु मेरे आने में देरी..... उसके शब्द खुद को ही चुभ रहे थे।उसे रह -रहकर अपनी गलतियों का एहसास हो रहा था।
रामनारायण ने नज़र फेर ली, आसमान की ओर देखा, और कहा,“घाव पुराने हों तो दर्द कम हो जाता है, मगर किसी अपने के शब्द — ''वो घाव हर बार हरा कर देते हैं।”हमने तुम्हें इतने प्यार से पाला ,तुम्हारे भविष्य के लिए ही, तुमसे सख्ताई से पेश आये और तुम्हारा एक झटके में, उस रिश्ते को तोड़ जाना ,गहरा घाव दे गया और तुम्हारी माँ हर तीज -त्यौहार पर तुम्हें याद करती ,तुम्हारी पसंद का भोजन, व्यंजन बनाकर उस'' घाव को और हरा कर देती थी ।''
अभिषेक के लिए वो सभी बातें सुनना कठिन हो गया ,उसने झुककर बाबा के पाँव छुए, “मुझे सज़ा दीजिए, बाबा ! बस माफ़ मत कीजिए, क्योंकि मैं उसके लायक नहीं।”
रामनारायण ने काँपते हाथों से उसका चेहरा उठाया।“बेटा, घाव को हरा करने की ताकत हमारे अपने पास होती है। तुम लौट आए — यही मरहम है।”उनकी आँखों से आँसू बहे, मगर इस बार वो दुख के नहीं, सुकून के थे।
रात ढल चुकी थी।बाबा ने कहा, “चलो, रसोई में चलते हैं। तुम्हारी माँ का पसंदीदा पुलाव बनाऊँगा।”
अभिषेक मुस्कुराया — बरसों बाद वो मुस्कान उसके चेहरे पर लौटी थी।
खाना खाते हुए बाबा ने पूछा,“अब कहाँ रहते हो?”
“दिल्ली में। नौकरी अच्छी है, लेकिन अब मन वहीं टिकेगा, जहाँ आप होंगे।”
रामनारायण मुस्कुराए,“घर वही होता है, जहाँ शिकायतें खत्म और अपनापन शुरू होता है।”
दोनों देर तक बातें करते रहे — बचपन की शरारतें, माँ के हँसी-मजाक, गाँव के त्योहार...हर बात के साथ एक-एक परत उतरती गई — आज सालों पुराना घाव सचमुच भरने लगा था।
अगली सुबह, सूरज की किरणों ने उस घर की दीवारों को छुआ।वो दीवारें जो बरसों तक सन्नाटे की गवाह थीं, अब फिर से आवाज़ें सुन रही थीं — बर्तन बजने की, चाय की केतली सीटी मारने की, और दो पीढ़ियों के बीच हँसी की।
रामनारायण ने आकाश की ओर देखा —“सुन रही हो, सावित्री? हमारा बेटा वापस आ गया है। अब कोई घाव हरा नहीं रहेगा…”
अभिषेक ने बाबा के कंधे पर सिर रखा।पहली बार उसने महसूस किया — माफ़ी माँगना कमजोरी नहीं, बल्कि वो ताकत है जो सबसे'' गहरे घाव को भी भर देती है।''
और उस दिन, सच में, घाव हरा नहीं रहा — वो ठीक हो गया। किसी को दोष देने से बेहतर है ,जो सामने है उसको गले लगाना, समय के साथ ,धीरे -धीरे ''हरे घाव भी भरने लगते हैं।''किन्तु समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता ,समय रहते ही उन घावों को भर देना चाहिए ,शायद अभिषेक को भी देर हो गयी थी। नाश्ता करके रामनारायण जी सो रहे थे ,आज वे संतुष्ट थे ,शायद यही सूचना देने अपनी पत्नी के पास चले गए थे।
