काव्या और अर्जुन ,आर्या को घाट से लेकर ,पुनः धर्मशाला में आ गए किन्तु अब अर्जुन के साथ अज़ीब सी घटनाएं होने लगीं, तब आर्या ने बताया- कि' महेश्वर की आत्मा' अब अर्जुन से जुड़ चुकी है ,अब ये बात अर्जुन भी महसूस कर रहा था। तीसरे दिन, जब काव्या दूध लेने बाहर जा रही थी,तभी दरवाज़े के नीचे कुछ सरकता हुआ उसे नजर आया,उसने ध्यान से देखा , वो एक पुराना पीला लिफ़ाफ़ा था। उसने बड़ी फुर्ती से उस लिफ़ाफे को उठाया ,उस पर लिखा था—“प्रिय अर्जुन !जब आत्मा दो शरीरों में बाँटी जाती है,एक सोती है, दूसरा जागता है।”नीचे हस्ताक्षर—–'' महेश्वर'' के थे।
काव्या के हाथ काँप गए ,उसने लिफाफ़ा खोला,भीतर एक छोटा सा काग़ज़ था — उस पर सिर्फ़ एक नक़्शा बना था और तीन गोले, बीच में एक लाल बिंदु ,वो समझ गई — यह तीन नदियों वाला प्रतीक चिह्न फिर लौट आया था। रात्रि में अर्जुन को बुखार चढ़ गया,वो ज़मीन पर पड़ा काँप रहा था,काव्या ने उसका माथा छुआ — गर्म नहीं, बल्कि बर्फ़ जैसा ठंडा था ।अचानक अर्जुन ने अपनी आँखें खोलीं और अजीब आवाज़ में कहा -“मैं लौट आया हूँ…”
काव्या पीछे हटी -“अर्जुन!”वो जानना चाहती थी कि ये अर्जुन ही है या.....
वो जमीन से उठा, किन्तु उसकी चाल इंसानी नहीं थी,वो आगे बढ़ा, हाथ हवा में घुमाया, और कमरे की दीवार पर लाल चमकते हुए ,तीन निशान उभर आए —
आर्या डरकर रो पड़ी, हे भगवान ! ये वही निशान हैं…”
अर्जुन की आवाज़ अब दोहरी थी — एक उसकी, और दूसरी महेश्वर की,तब उसने काव्या को घूरते हुए कहा - “मैंने कहा था,न... लेखक बदल गया है…अब चिट्ठियाँ तुम्हारे खून से लिखी जाएँगी।”
मन ही मन काव्या ने एक गहरी स्वांस ली और तय किया — अब कुछ करना ही होगा,वो आर्या को साथ लेकर शहर के पुराने मंदिर में पहुँची,जहाँ वही पुजारी था, जिसने घाट के बारे में चेतावनी दी थी।
उस पुजारी ने काव्या की सम्पूर्ण बातें सुनी और गहरी साँस ली,“मैंने कहा था - आत्मा को अधूरा मत छोड़ो !महेश्वर का वचन अधूरा था, अब वो पूर्णता चाहता है।”
काव्या ने पूछा -“अब उसे कैसे रोकूँ ?”
पुजारी ने कहा -“केवल वही रोक सकता है, जो माध्यम बना — अर्जुन !लेकिन अब वो अपने ही शरीर में कैदी है,उसके भीतर दो आत्माएँ हैं — एक इंसान की, एक राक्षस की।”
“तब मुझे क्या करना होगा?”
“तुम्हें 'प्रेत बंधन विधि' करनी होगी, पर इसके लिए अर्जुन को पूरी तरह जाग्रत अवस्था में बांधना पड़ेगा…
और अगर तुम असफल हुई, तो वो तुम्हें पहली चिट्ठी बना देगा।”
काव्या की आँखों में आँसू आ गए थे,न जाने मैं, ये सब कैसे कर पाऊँगी ?पंडित जी से बोली -“मैं कोशिश करूँगी।जब काव्या धर्मशाला वापस लौटी, उस समय अर्जुन दरवाज़े के सामने बैठा हुआ उसी की राह देख रहा था।
वो बोला -“कहाँ गई थी?”
“मंदिर।”
“मंदिर?” उसकी बात सुनकर वो मुस्कराया -“तुम सोचती हो, देवता तुम्हें बचाएँगे?”
काव्या ने साहस से कहा -“मैं तुम्हें वापस लाऊँगी।”
अर्जुन धीरे-धीरे उठा,“अगर ऐसा हुआ… तो शायद मैं बच जाऊँ ,लेकिन अगर नहीं… तो वो तुमसे आर्या को ले जाएगा।”
काव्या ने कहा -“मैं सब कुछ दाँव पर लगाने को तैयार हूँ।”
अर्जुन ने एक क्षण उसकी आँखों में देखा,उसके भीतर कहीं अर्जुन की आत्मा अब भी चमक रही थी —लेकिन उसके ऊपर महेश्वर का अंधकार धीरे-धीरे फैल रहा था।
काव्या ने कमरे में एक त्रिकोण खींचा,उसके भीतर नमक और पीला चूर्ण रखा। दीवारों पर मंत्र लिखे—“ॐ प्रेतबन्धनाय नमः,ॐ आत्मविच्छेदाय स्वाहा।”जैसा कि पंडित जी ने उपाय बताया था ,काव्या ने वैसा ही किया।
आर्या को कोने में छिपा दिया और उसे चेतावनी दी “जब तक मैं न कहूँ , बाहर मत आना।”
अर्जुन कमरे के बीचों बीच बैठा था,वो जानता था कि काव्या ये जो कुछ भी कर रही है ,मेरे लिए ही कर रही है ,मुझे महेश्वर से छुड़ाकर वापस लाना चाहती है। इस समय उस पर महेश्वर हावी नहीं था इसलिए उसने खुद कहा,“अगर मैं चिल्लाऊँ भी , तो मत रुकना !वो मुझे पूरी तरह निगलने की कोशिश करेगा।”किन्तु तुम घबराना मत।
काव्या ने दीया जलाया,मंत्र पढ़ना शुरू किया ,कमरा काँपने लगा और अर्जुन का शरीर झटका खाने लगा।उसकी आँखें सफ़ेद हो गईं,वो चिल्लाया -“तू क्या सोचती है, मुझे बाँध लेगी?”
किन्तु काव्या ने उसकी बात पर ध्यान न देकर उस मंत्र को ज़ोर से दोहराया -“ॐ आत्मविच्छेदाय स्वाहा…”
अर्जुन ज़मीन पर गिर पड़ा और उसके शरीर से काला धुआँ उठने लगा,धुएँ में महेश्वर का चेहरा उभरा —भयानक, विकृत, क्रोधित। महेश्वर की आवाज़ गूंजी—“काव्या! तू, अर्जुन को मुझसे अलग नहीं कर सकती,अर्जुन अब मेरा वासस्थान है।”
काव्या ने चीखकर कहा -“वो तेरा' वासस्थान 'नहीं! वो मेरा पति है!”
महेश्वर हँसा—“तो फिर उसे बचा ले, अगर बचा सकती है तो..... कहते हुए उसकी हंसी गूंजी तभी अर्जुन का शरीर हवा में उठ गया ,उसके चारों ओर लपटें घूमने लगीं,अर्जुन खुद से लड़ रहा था —एक हिस्सा महेश्वर की हँसी में डूबा था, दूसरा दर्द में चीख रहा था।
आर्या डरकर दौड़ी और बोली -“माँ! कुछ करो!”
काव्या ने चाकू से ,अपनी हथेली काट ली,खून से एक चिह्न खींचा और ज़ोर से मंत्र पढ़ा -दीये की लौ अचानक तीन गुना बड़ी हो गई।
महेश्वर ने गर्जना की -“ये खून… ये वही खून है, जिसने मेरी चिट्ठियाँ खोली थीं…”
काव्या ने कहा,“और यही खून अब तुझे बंद करेगा।” एक झटके में सब शांत हो गया,लौ बुझ गई।अर्जुन ज़मीन पर गिर पड़ा।कमरा धुएँ से भर गया, दीवारें नम थीं, पर आवाज़ गायब थी।
काव्या, अर्जुन के पास पहुँची,“अर्जुन… सुनो…”किन्तु उधर से कोई जवाब न पाकर वो ,काँपते हुए अर्जुन की छाती पर सिर रखती है —धीमी धड़कन !ज़िंदा तो है
पर तभी अर्जुन ने धीरे से कहा -“वो गया नहीं… बस देख रहा है।”
काव्या बोली -“कौन?”
अर्जुन की आँखें खोलते ही रोशनी बुझ गई ,वो फुसफुसाया -“महेश्वर… अब तुम्हारे अंदर दिखता है।”
काव्या का चेहरा पीला पड़ गया,उसके माथे पर एक बूंद खून की टपकी,उसी पल दीवार पर वही तीन निशान उभर आए —इस बार काव्या के नाम के साथ। रात्रि के आख़िर पहर में, दरवाज़े के बाहर किसी ने दस्तक दी।
आर्या ने पूछा -“कौन है?
एक भारी आवाज़ आई —“डाकिया…”
वो बाहर की तरफ दौड़ी — किन्तु वहां पर कोई नहीं था।सिर्फ़ ज़मीन पर एक पुराना लिफाफ़ा पड़ा था।
उस पर लिखा था—“प्रिय काव्या !अगली चिट्ठी तुम्हारे नाम है।– लेखक”
अंदर का कागज़ खाली था ,लेकिन जैसे ही काव्या ने उसे पकड़ा —उस पर लाल रंग में ,शब्द उभरने लगे।
“लेखक कभी मरता नहीं,वो बस अपनी कलम बदलता है…”