मन का ड़र ,जुबां तक आ ही गया ,क्या करती ,ये सब उसी के कारण तो कर रही थी ,मौसम भी सुहावना था और मेरे सामने मेरा प्यार था ,उससे लिपटकर भीगने का मन हो रहा था। बरसात की बूंदें, कुछ पल मेरी पलकों पर ठहर नीचे गिर जातीं किन्तु मैं अभी भी अपलक ज्वाला को देखे जा रही थी। उसने जैसे मेरे मन की इच्छा भांप ली थी ,तुरंत ही उसने पीछे से आकर मुझे अपने आग़ोश में भर लिया। मैं तड़प उठी ,मैंने अपने को रोका नहीं ,अपने आपको उसके हवाले करने के लिए तत्पर थी। उसके सीने से लगकर अपनी बढ़ती धड़कनों को एहसास दिला रही थी। आज वही मेरे साथ है। हम दोनों ही ये भूल चुके थे ,कि बलवंत जी का नंबर है। पता नहीं , हमें क्यों इतना नियंत्रित किया जा रहा था ?
लोग सही कहते है- 'प्यार के हजारों दुश्मन हो जाते हैं ,यहां तो सभी जानते हैं कि हम दोनों इक -दूजे से प्यार करते हैं उसी के लिए तो मैं वापस आई थी किन्तु यहां भी सब जानते बुझते हमारे मिलन में अड़चन थी ,इस परिवार के कुछ विचार कहूं या रस्म ? हो सकता है ,उन तांत्रिक बाबा ने ही, कुछ कहा हो किन्तु उस समय हम दोनों साथ थे ,हमें किसी भी बात की परवाह नहीं थी।
बरसात में भीगे हम ,एक -दूसरे में समाने को तत्पर थे ,वो मौसम ,वो बरसात हमारे मिलन की गवाह बनने जा रही थी। मेरी भी बरसों की इच्छा पूर्ण होने जा रही थी ,इसमें ऐसा क्या अनुचित हो सकता है ? रिश्ते में देखा जाये तो' ज्वाला' मेरा देवर भी था और प्रेमी भी किन्तु आज हमने सब बंधन तोड़े ,वैसे तो बंधन भी कोई नहीं था ,बस अभी एक भाई से और दूरी थी किन्तु हमने इस बात को भी नजरअंदाज किया। बाद में जब हमारी मदहोशी टूटी तो एहसास हुआ ,क्या हमसे कुछ गलत हुआ है ?हमने अपने आपसे ही प्रश्न किया।
इसमें गलत कुछ भी नहीं है ,भाई तो यहाँ हैं ही नहीं ,तब तक हम एक -दूसरे के संग रहेंगे।
तुम्हारी मम्मीजी !
जब वो कुछ कहेंगी ,तब की तब देखी जाएगी उनकी भी सुन लेंगे।
जब हम सीढ़ियों से नीचे आ रहे थे ,सामने ही सुनयना देवी खड़ी, क्रोध से हमें घूर रहीं थीं ,तुम दोनों ऊपर क्या कर रहे थे ?
मैं कपड़े उतारने के लिए गयी थी ,वो अचानक ही बारिश हो गयी।
कपड़े तो ,कुंदन भी उतार सकता था ,तू, छत पर क्यों गया था ? उन्होंने ज्वाला से पूछा
मैं आपको ही, ढूंढ़ रहा था।
क्या तू जानता नहीं है ? मैं कभी छत पर नहीं जाती, फिर यह झूठा बहाना क्यों बना रहा है ? क्या तुमने कुछ ऐसा वैसा तो नहीं किया ? हम दोनों एक दूसरे को देख रहे थे, इन्हें क्या जवाब दें ? हम चुपचाप आगे बढ़ गए, हमने कोई जवाब नहीं दिया।
अगले दिन वो हम पर चिल्लाई, यह तुम लोगों ने क्या अनर्थ कर दिया ?
क्या हुआ है ?
तुम दोनों ऊपर मिले थे, क्या तुम यह नहीं जानते थे ? कि अब बलवंत आता।
इससे क्या फर्क पड़ता है ? कौन आता कौन नहीं।
बहुत बड़ा फर्क पड़ता है, तुम नहीं जानते हो, उन तांत्रिक बाबा ने कहा था -यह कड़ी टूटनी नहीं चाहिए, और तुमने वह कड़ी तोड़ दी , मुझे कल ही सपने में बाबा ने सब बतला दिया। तुम क्या सोचते हो? तुम नहीं बताओगे तो मुझे पता नहीं चलेगा। जो भी किस्मत में अनर्थ लिखा है, वह सब तुमको ही झेलना होगा। इस तरह से सुनयना देवी ने हमारे मन में शंका पैदा कर दी,मन ही मन ड़र भी लगने लगा ,न जाने क्या अनर्थ होने वाला है ? मैंने घबराकर ज्वाला से पूछा ,हमने ऐसा क्या अनर्थ कर दिया ?क्या हमारा मिलना गलत था ?
अब हम दोनों एक हो चुके हैं और आगे जो कुछ भी होगा, देखा जाएगा। यही सोचकर हमने अपने, मिलन का क्रम नहीं तोड़ा। तोड़कर भी क्या हो जाता ? बलवंत सिंह जी तो बाहर गए हुए थे, न जाने कब वापस आते ? हमने यह सब सोचना ही छोड़ दिया , जो भी कुछ अनर्थ होगा तो देखा जाएगा , जब इतनी परेशानी झेली है तो उसे भी झेल लेंगे , और हमने अपने मन को किसी भी परिस्थिति के लिए मजबूत बना लिया , हमें इस बात की प्रसन्नता थी, कि हम अब साथ हैं। जिसका परिणाम यह हुआ, कि तुम्हारा पति तेजस इस दुनिया में आया।
ओह ! तो इसका अर्थ यह हुआ, असल में तो मेरे पापा ससुर, 'ज्वाला सिंह जी'ही हैं।
यह तुम कह सकती हो ?
तब क्या कुछ अनर्थ हुआ ?
मेरी सास ने हमारी शिकायत, उन तंत्रिक बाबा से की तो उन्होंने जवाब दिया -' जो होना था सो हो गया, होनी को कोई नहीं टाल सकता।'' जो जैसा चल रहा है चलने दो ! बाकी का नियम बनाए रखना, इसको [तेजस ] इस संसार में आना ही था। जब उनके मुख से ,ऐसे शब्द सुनने को मिले, तब सुनयना देवी ने कुछ नहीं कहा। तेजस बड़ा हो रहा था, सुंदर होने के साथ-साथ होशियार और समझदार भी था। जब वह छह महीने का हुआ, तब बलवंत सिंह जी, जो बाहर गए हुए थे आए , तांत्रिक बाबा ने, मुझे कुछ ऐसा आशीर्वाद दिया था, ताकि मैं जिसके सामने भी जाऊँ , एक नया रूप ही नजर आए। मेरा यौवन निखरता ही जाए, यह बात में मानती हूं। जब मैं उनके भाई के सामने में गई, उसके लिए मैं सुंदरता की एक नई परिभाषा लेकर पहुंच गई।
बलवंत सिंह जी के सामने, मुझे डर लग रहा था। वो ठहरे, पहलवान ! न जाने कैसा स्वभाव होगा ? किंतु जब उन्होंने मेरे कमरे में प्रवेश किया तो निर्लिप्त भाव से, मुझे देख रहे थे। तब अचानक बोले -तुम्हें यहाँ किसी भी तरह से कष्ट तो नहीं हुआ, कोई परेशानी तो नहीं हुई। मैंने मन में, उनकी जैसी छवि बनाई हुई थी, वह उसके बिल्कुल विपरीत निकले। धैर्यवान, शांत किंतु उनका साथ पाकर, मैं संतुष्ट हो थी,जैसे, इन तीनों भाइयोंके साथ रहते हुए भी, मन में बेचैनी रहती थी ,अब ऐसा कुछ नहीं था मन शांत था ,चारों में ही, सबकी अलग-अलग विशेषता थी ,हो सकता है ,वो मेरी आखिरी सीढ़ी थे इसीलिए अब मन शांत हो गया था।
अब मुझे कोई भी ड़र नहीं था और तब सुमित का जन्म हुआ। घर में फिर से खुशियां मनाई गई, ढोल - नगाड़े बजाए गए। सोचा जाये तो ,चार बच्चों की शृंखला पूर्ण हो चुकी थी।
क्या तेजस के होने पर, ढोल- नगाड़े नहीं बजवाए गए थे।
नहीं, सुनयना देवी को डर था, कहीं कुछ अनिष्ट न हो जाए। तांत्रिक बाबा बहुत कुछ जानते थे किंतु हमें उन्होंने कुछ भी स्पष्ट नहीं बताया। शायद उन्हें लगता था, कि हम डर जाएंगे, हमें दुख होगा, समय से पहले वो कुछ भी नहीं बताना चाहते थे। वह कड़ी फिर से बनी और फिर से ज्वाला मेरे पास आए और पुनित का जन्म हो गया। इस तरह उनकी कड़ी पूर्ण हुई हालांकि इस कड़ी को पूर्ण करने में मेरा अहम योगदान रहा, मैंने भी उन मोतियों को सहेजने में एक डोरी का कार्य किया ,उनका साथ निभाया।
सुनयना देवी अक्सर 'तेजस' को अन्य सभी बच्चों से अलग ही रखतीं थीं।
ऐसा क्यों ?शिखा ने प्रश्न किया।