दमयंती ,अपनी सास और ज्वाला सिंह की बातें सुनकर, वापिस अपने कमरे में लौटकर आ जाती है ,वो तो ज्वाला से लड़ने के लिए गयी थी। वो उससे पूछना चाहती थी-' तुमने, मुझे फिर से धोखा क्यों दिया ? हताश हो, वो अपने पलंग पर लेट गयी। मेरी ज़िंदगी के साथ ये क्या हो रहा है ? मेरे साथ कौन सा खेल, खेला जा रहा है ? किन्तु उनकी बातें सुनकर दमयंती को लगा।'' ज्वाला'' भी विवश है ,वो भी क्या कर सकता है ? मेरी ज़िंदगी ही दांव पर लगी है। न जाने, वो कौन सा पल था ? जब मैंने ज्वाला को देखा था ,मुझे क्या मालूम था ? मुझे, ज्वाला से प्यार करने की कीमत इस तरह चुकानी पड़ेगी। उसके आंसुओं का गवाह, अब वो तकिया बन चुका था, जो अक्सर उसके एकांत पलों के सुख -दुःख का साथी रहा है।इन आंसुओं को बहाने से अब कोई लाभ भी नहीं था , यहां किसी को भी ,उसके आंसुओं से कोई मतलब नहीं था।
तभी उसके मन में विचार आता है ,ऐसा क्या हुआ था ? जो मैं ज्वाला और हरिराम में अंतर ही, न कर सकी क्या मुझ पर वासना इतनी हावी हो गयी थी, कि कोई भी आ जाये ,मैंने पहचानने का प्रयास भी नहीं किया। न जाने, मुझ पर कैसा नशा छाया था ? वो क्या था ? क्या मुझे उचित -अनुचित का ज्ञान ही नहीं रहा ?कहीं मुझे कुछ खिला तो नहीं दिया था। माना कि कॉलिज में मेरे कई दोस्त थे किन्तु किसी को भी मैंने अपने इतने करीब नहीं आने दिया और आज यहां मैं एक खिलौना बनकर रह गयी हूँ। जिसके हाथ लगा ,वो ही खेलकर चला गया।
शून्य में तकते हुए ,न जाने कहाँ तक देखना चाह रही थी किन्तु नजर थी कि धुंधलाए जा रही थी। एक तरफ वो खड़ी थी ,दूसरी तरफ वो देखना चाहती थी ,उसकी ज़िंदगी क्या बनकर रह गयी है ? क्या आज तक कोई इस जीवन को समझ सका है ? जो दमयंती समझ पायेगी। तब अचानक ही वो उठ बैठती है और अपने आंसुओं को पोँछ देती है।
उसके अंदर की एक शक्ति अपने आप से ही प्रश्न करती है ,आखिर मैं क्यों रो रही हूँ ,क्या रोना ही इस समस्या का हल है ?रोने से आज तक क्या कुछ हल हुआ है ? इस रोने से किसी पर क्या फ़र्क पड़ता है ? मुझे अब मजबूत बनना होगा ,मुझे कुछ तो ऐसा करना होगा ,जिसका असर सभी पर पड़े। जब इन लोगों पर ही, इस बात का असर नहीं है ,किसकी पत्नी, किसके साथ सो रही है ?तब मैं ही, क्यों परेशान हूँ ? इस ज़िंदगी का आनंद क्यों नहीं उठाती ? मुझे कोई चरित्रहीन कहेगा भी ,तो उससे पहले ,मेरे ये चारों पति सामने होंगे सोचकर उसके चेहरे पर एक फ़ीकी सी मुस्कान आई।
आज वो महसूस कर रही थी ,पिता ने तो पहले ही कह दिया था -'क्या द्रोपदी के पांच पति नहीं थे ,उसने उन शक्तियों को कैसे संभाला होगा ? यह एक साधारण महिला का कार्य नहीं,वो उसके पति ही नहीं ,उसका सम्मान भी करते थे। अब ये लोग भी मेरा, उपभोग तो करेंगे किन्तु मेरा सम्मान भी करेंगे ,मन ही मन उसने निश्चय किया। अब मैं मालकिन ही, बनकर दिखलाऊँगी।
शाम के समय दमयंती जब घरवालों के भोजन के लिए,रसोईघर में गयी तो उसे सुनयना देवी कहीं दिखलाई नहीं दीं। तब दमयंती ने कुंदन से अपनी सास के विषय में पूछा।
मालकिन तो कहीं बाहर गयी हैं ?
कब गयीं ?
अभी थोड़ी देर पहले ही ,
इस गांव में तो वो किसी के घर आती -जाती नहीं हैं, फिर वो बाहर किससे मिलने गयीं हैं ?
जब इन लोगों का,गांव के किसी भी परिवार के साथ कोई मेलजोल नहीं था ,तब वो किससे मिलने गयी होंगी ? ये तो सीधी सी बात है ,कहीं वो उसी 'बाबा' के पास ही तो नहीं गयी होंगी ,मुस्कुराते हुए शिखा बोली।
हाँ, तुम सही कह रही हो, वो वहीं गयीं थीं किन्तु मुझे इस बात पर आश्चर्य था मैं इतने दिनों से इस हवेली में रह रही थी और मुझे उनकी हरकतों के विषय में कुछ भी मालूम नहीं था।
वह इसलिए मालूम नहीं होगा, क्योंकि आप अपनी ही, उलझनों में उलझी हुई थीं , पहले ज्वाला जी से न मिलना, बेटे होने के पश्चात, उसके पिता का अचानक इस तरह चले जाना, आपके प्रेमी का आपके संग सहयोग करना , उसके पश्चात भी उनका साथ न मिलना, काफी उलझनों में उलझी हुई थीं। ऐसे हालातों से समय मिले तभी तो आदमी इधर-उधर देखे। आपके मन में कोई लालच भी नहीं था कि आपको किसी की संपत्ति की मालकिन बनना है और जब आप जिंदगी को समझने लगीं, कि आपको जीवन में क्या चाहिए ? तब आपने इधर-उधर देखना आरंभ किया ,शिखा जो पहले से ही ,दमयंती की कहानी इतने ध्यान से सुन रही थी ,बोल उठी।
शायद ! तुम सही कह रही हो , अब तक मैं अपने आप और अपनी उलझनों में ही उलझी हुई थी किंतु जब मैंने उससे अलग हटकर सोचना आरंभ किया तब मुझे एक अलग ही दुनिया नजर आने लगी। जिस दुनिया में मैं रह रही थी, उससे अभी भी बहुत अनजान थी। ख़ैर ! यह सब बातें छोड़ो ! इतना सब होते हुए भी कुंदन ने मुझे एक बार भी, मम्मी जी के विषय में कुछ नहीं बताया। मैंने उससे पूछा था, वो कहां गई हैं ? तो वह मुस्कुरा कर रह गया किंतु उसने मुँह से कुछ नहीं बोला। तब मैं समझ गई, यह इस घर का विश्वसनीय नौकर है। मुझे उस पर कोप तो बहुत हुआ किन्तु साथ ही उसकी ईमानदारी अच्छी भी लगी। तब भी मैंने उससे पूछा -अच्छा, यह तो बता सकते हो, वो किधर की तरफ गई हैं ?
मैंने तो उन्हें बाहर की तरफ ही जाते हुए देखा है।
क्या वो गाड़ी से गई हैं ?
इस समय वो गाड़ी से नहीं जाती हैं।
मैंने मन ही मन सोचा, तब तो ज्यादा दूर नहीं गयीं होगीं। मैं दौड़कर एक मंजिल पर चढ़ गयी ,वहां से दूर -दूर तक देखने का प्रयास किया किन्तु इतनी देर में वो न जाने कहाँ गायब हो गयीं ? इस बात का मुझे आश्चर्य हो रहा था ,निराश हो मैं वापस लौट आई ,सोचा -अबकि बार जब जाएंगी ,तब ध्यान रखूंगी।
मेरा बेटा गर्वित ,अकेला अपने पालने में,खेल रहा था। मैं अपने बच्चे के प्रति भी, लापरवाह हो गई थी, मैंने कभी उस पर ध्यान नहीं दिया था क्योंकि वे ही हमेशा, उसे अपने करीब रखती थीं। उस दिन मैंने , जब अपने बच्चे को देखा तो मुझे ऐसा लगा, जैसे मुझे वो पहचान भी नहीं रहा है। मैं उससे बड़े प्यार से बोली - तब वह मेरे करीब दूध के लिए आया। उस दिन मुझे, अपनी एक और गलती का एहसास हुआ, कि मैं धीरे-धीरे अपने बच्चे को भी खो दूंगी। अब मुझे अपनी गलतियां नजर आ रही थीं। तभी तो कहते हैं -'इंसान को अपने अंदर भी झांकना चाहिए। '
अब मुझे एहसास हो रहा था , इस परिवार में जो कुछ भी घटित हो रहा है ,या आगे होगा ,उसके कारण मुझे अपने अंदर झांकने का मौका मिल रहा था। तब मैंने महसूस किया, कि मेरी सास ने, अपने इतने बड़े-बड़े बच्चों को भी संभाल कर रखा हुआ है, जो उनका कहा मानते हैं और एक तरफ मैं हूं, जिसका छोटा बच्चा भी, अपनी मां के करीब सिर्फ उसका दूध पीने के लिए ही आता है , न ही, उसे अपनी माँ से कोई लगाव है , और न ही मुझे भी, उससे कोई लगाव था। मैं माँ तो बन गयी थी किन्तु मुझमें अपने बच्चे के प्रति ,अभी वो ममता ,प्यार ,कुछ महसूस ही नहीं हुआ था। जैसे उसको दूध पिलाना ही, मेरा कर्त्तव्य रह गया था,उसे प्यार से सीने से लगाना ,उसको माँ का स्पर्श महसूस कराना ,उसके बालरूप के साथ खेलना ,उसकी कोमल अँगुलियों को पकड़ उसकी मासूमियत को मैंने आज तक महसूस ही नहीं किया था।