उस दिन मैं, अपने ज्वाला की बाँहों में सुकून से सोई थी ,दिन निकलने पर जब मेरी आँखें खुलीं,और मैंने अपनी रात्रि की खुमारी को, अपनी अंगड़ाई लेकर उतारने का प्रयास किया तो ज्वाला को अपने करीब पा, मैं फिर से उससे लिपट गयी। मेरा मन खुश था ,उससे लिपटकर मुझे लग रहा था ,जैसे सम्पूर्ण संसार मेरी बाँहों में आ गया है और मैं प्यार के झूले में झूल रही हूँ। मेरे हल्के हाथों के स्पर्श से भी, उसकी आँखें भी खुल गयीं और उसने करवट बदल मुझे फिर से ,अपनी बाँहों में भरने का प्रयास किया ,तभी मेरी दृष्टि उसके चेहरे पर गयी ,तो मेरी चीख़ निकल गई।
तुम.... ,आप यहाँ !आप यहाँ कैसे ? घबराते हुए ,मैंने बिस्तर पर बिखरी पड़ी,अपनी साड़ी को अपनी तरफ खींचकर अपने अर्धनग्न तन को ढाँपने का प्रयास किया। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट थी।
क्यों, क्या कल नहीं पहचाना था ?मुस्कुराते हुए उठे और बोले -कल तो मुझसे,बहुत जोरों से लिपट गयी थीं ,न जाने कब तक की प्यास बुझाई है ? जब तक मेरा चेहरा नहीं देखा था ,तब तक ही मैं, अच्छा लग रहा था। वैसे तुम्हें किसकी अपेक्षा थी ,क्या तुमने मुझे भाई समझा था ? या फिर कोई और...... उनके शब्दों में मुझे, कुछ रहस्य नजर आया।
पता नहीं, मुझे क्या हुआ था ? मैं तो अपने कमरे में थी किन्तु आपको तो मालूम था ,ये मेरा कमरा है ,जहाँ तक मुझे लगता है ,आपको कोई गलतफ़हमी नहीं होनी चाहिए थी। एक बार फिर मेरे साथ धोखा हुआ था ,और ये दूसरी बार भी मैंने ज्वाला के कारण ही, धोखा खाया था।
अब क्यों इस सुंदरता को ढांप रही हो ? सच में ही, तुम बहुत ही खूबसूरत हो , आओ ! हम फिर से एक हो जाते हैं ,मैं बिस्तर से उठकर जाने का प्रयास करने लगी किन्तु' हरिराम जी ''ने मुझे फुर्ती के साथ पकड़ा और बिस्तर पर पटक दिया। अब तक मैं तुम्हारी इच्छा से सब कर रहा था ,बदले में अब तुम्हें भी तो मेरी इच्छा का मान रखना चाहिए।
आप मुझे छोड़िये ! आप मेरे कमरे में क्यों आये ?मुझे उनकी गलती लग रही थी ,ज्वाला के कारण आज फिर से मैं छली गयी, मेरी आँखों से आंसू बह चले।
मेरे आंसू देख, हरिराम का मन शायद द्रवित हुआ ,न जाने उनके मन में क्या आया और बोले -अच्छा !तुम फिर से तरोताज़ा होकर आओ !कल की तरह ही जिंदगी को फिर जियेंगे।
उस समय मैं अपने को बहुत ही विवश पा रही थी ,जल्दी से मैं उस स्थान को छोड़ स्नानागार में घुस गयी आईने में जाकर देखा- ये कैसी ख़ुमारी थी ?आज मेरी कैसी हालत हो गयी है ?मेरे हर अंग पर हरिराम के नाम की मुहर लगी हुई थी। क्या मुझे रोना चाहिए ? क्यों रोना है ?मुझे ,इस घर में रहने की सजा जो मिल रही है या फिर इस घर -सम्पत्ति की क़ीमत मुझसे वसूली जा रही है। कौन हूँ ,मैं ! एक पत्नी,जिसका पति मुझसे बिन बताये, न जाने कहाँ गया है ?घरवाले तो कह रहे हैं -व्यापार के सिलसिले में बाहर गए हैं ,ये कैसा व्यापार है ?जो अपनी पत्नी और बच्चे से कोई सम्पर्क नहीं करने देता। तो क्या मैं एक माँ,जिसका बच्चा भी उसके करीब नहीं। तब क्या मैं एक औरत बनकर ही रह गयी हूँ ? जिसका तन इस परिवार के वारिस बारी -बारी से अपनी जरूरत के लिए रौंद रहे हैं ,मेरे अरमानों का क्या ? किसी को भी,मेरी कोई परवाह नहीं। जब तक साथ रहते हैं, प्यार जतलाते हैं ,स्नानागार में बैठी सोच रही थी -क्या मुझे बाहर जाना चाहिए ?हरिराम जी बाहर मेरी प्रतीक्षा में हैं।
क्या अजब कहानी है ?आप बाहर यानि विदेश में रहकर पढ़ी -लिखी होकर भी, उनके हाथों की कठपुतली बनती जा रहीं थीं। आप चाहतीं तो इस हवेली से बाहर जा भी सकतीं थीं ,इनकी कैदी तो नहीं थीं। तब जबरन ही इन लोगों का अत्याचार क्यों सहन कर रहीं थीं ?या आपको इन लोगों का वो व्यवहार सामान्य ही लग रहा था।
नहीं, उनका व्यवहार सामान्य तो नहीं था किन्तु न जाने क्यों मैं अपने को विवश पाती ,बाहर जाने का सोचती ,तो इस हवेली में पहरा भी था और कभी -कभी लगता ,यहाँ से निकलकर कहाँ जाउंगी ? सुनयना देवी ने तो मेरे माता -पिता को भी न जाने ''कौन सी घुट्टी पिलाई थी ?'उन्हें मेरा दुःख -दर्द कभी नजर नहीं आया ?पिता ने तो यहाँ तक कह दिया -'विदेश में इतने दोस्त रख सकती हो ,पति नहीं। ''
अब कितनी देर लगाओगी ? अब तो आ जाओ ! मुझे बाहर से हरिराम की आवाज आई !तब मुझे एकाएक क्रोध आया और मैं बड़े गुस्से से बाहर निकली और पूछा -आपने यह सब मेरे साथ क्यों किया ?आप जानते हैं ,मैं आपके भाई की पत्नी हूँ।
जानता हूँ किन्तु तुम पर हम सभी का बराबर अधिकार है ,तुम 'ज्वाला 'से भी क्यों मिलना चाहती थीं ?
ओहो !तो ये बात आपको पता चल गयी, आपने इस बात का लाभ उठाया।
नहीं ,मैंने कोई लाभ नहीं उठाया ,''जगत भाई'' के पश्चात मेरी बारी है ,अब जब तक हमारा बेटा नहीं हो जाता ,तुम्हें मेरे साथ ही रहना होगा।
ओह !तो तुम लोगों ने मुझे बाँट लिया है किन्तु क्या मुझसे भी पूछा ,मैं बंटना चाहती हूँ भी ,या नहीं।
अब कोई लाभ नहीं ,इस सबसे हम बाहर आ चुके हैं ,यदि तुमको लगता है ,कि हमारा विवाह नहीं हुआ है ,तो हम विवाह कर लेंगे ,अब तुम ही हमारे घर की मालकिन हो।
मैं ,ये कैसी मालकिन हूँ ? मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा ,मन ही मन सोचकर मैं रो उठी।
हरिराम मेरे क़रीब आये और बोले -मैंने तुमसे कोई जबरदस्ती नहीं की ,तुम कब तक अपनी इच्छाओं को दफ़्न करतीं ?कभी तो हमें मिलना ही था। भाई, अब जब तक नहीं आएंगे ,जब तक हमारी कोई संतान नहीं हो जाती। कहते हुए ,उसने मुझे अपनी बांहों में भर लिया और जब तक मुझे प्यार से समझाते रहे ,जब तक मैंने शांत होकर, अपने रिश्ते को सहमति नहीं दे दी किन्तु मैं अंदर ही अंदर उबल रही थी ,ये मेरा क्रोध उसके द्वारा दिए गए ,दूसरे धोखे के लिए था ,उसने इस बार फिर से मुझे धोखा दिया। हरिराम मुझे समझाकर और अपना अधिकार पा संतुष्ट होकर चले गए। उनके चले जाने के पश्चात मेरे पास क्या बचा था ?एक ऐसी ज़िंदगी ,जिस पर अन्य दो लोगों का अधिकार बाक़ी था ,मुझे ऐसी ज़िंदगी से खुश होना चाहिए या फिर इस ज़िंदगी को समाप्त कर देना चाहिए किन्तु जान देना भी, इतना आसान नहीं है। जान तो सभी को प्यारी होती है ,मेरा तन बंट रहा था ,मेरी ज़िंदगी के वर्ष महिने भी बंट गए थे।