आज दमयंती की पहली रसोई की रस्म हुई थी ,दमयंती को मीठे में खीर और हलवा बनाना था। दमयंती को ज्यादा कुछ बनाना आता नहीं था, इसी बात को कुंदन समझ गया था ।' कुंदन' ठाकुर परिवार का रसोइया था। तब उसने इशारे से दमयंती को इस तरह हलवा बनाना बताया कि लगे, हलवा' दमयंती' ने ही बनाया है। घर के सभी लोगों के भोजन करने के पश्चात , कुंदन, दमयंती और सुनयना जी के लिए भोजन लगाता है।
खाने की मेज पर बैठकर , तब सुनयना जी, दमयंती से पूछती हैं , तुमने मेरे प्रश्न का जवाब नहीं दिया, तुमने सबसे पहले 'जगत' को ही भोजन क्यों परोसा ?
पहले तो दमयंती स्वयं ही, यह नहीं समझ पा रही थी कि उसने ऐसा क्यों किया ? किंतु सुनयना जी को तो जबाब देना ही था,तब वो बोली - सभी भाइयों में,'' जगत जी ''ही सबसे बड़े हैं , पापा जी के लिए तो भोजन आप परोस ही रहीं थीं। तब मैंने सोचा-इन भाइयों में, से सबसे बड़े' जगत' ही हैं। सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो मेरे पति भी हैं इसीलिए यह कदम उठाया। कुछ देर रूककर बोली - यह मैं मानती हूँ ,मैं ज्वाला से ही प्रेम करती हूँ ,यह बात मैंने किसी से छुपाई भी नहीं है और मैं इसी इच्छा से यहाँ आई भी हूँ ताकि मुझे ज्वाला का सानिध्य प्राप्त हो किन्तु इन सबमें 'जगत जी का क्या दोष ? मुझे लगता था, मेरे साथ छल हुआ है किन्तु कभी- कभी,गलतफ़हमी बहुत बढ़ जाती है। मैं 'जगत जी' का सम्मान करती हूं, उनकी भावनाओं की कद्र करती हूँ जहां तक मैंने उन्हें समझा है, वे एक अच्छे इंसान हैं।अपने जगत की इस तरह दमयंती के मुख से प्रशंसा सुन सुनयना जी मुस्कुरा दीं।
थोड़ा हिचकिचाते हुए बोली - वैसे मैंने सुना है, ठाकुर परिवार के लोग बड़े ही बददिमाग़ , बदतमीज और हे कड़ी वाले लोग हैं। ये मैं, नहीं कह रही अपना बचाव करते हुए बोली -लोगों को ऐसा कहते हुए सुना था किंतु मुझे ऐसा नहीं लगता।' ज्वाला'' से ज्यादा तो मैंने 'जगत जी' से बातें की है, उनको समझा है। वे एक अच्छे इंसान हैं।
तब क्या तुम उसकी पत्नी बनी रहना चाहोगी , एकदम से सुनयना जी ने प्रश्न किया।
उनके इस प्रश्न से दमयंती सोच में पड़ गई और बोली -मैं अभी कुछ भी नहीं कह सकती। भोजन के पश्चात वह अपने कमरे में आ गई, मन ही मन सोच रही थी- मेरे अंदर यह बदलाव कैसे आया ? क्या मैं 'जगत जी' की बातों से प्रभावित हूं , या उनके व्यवहार ने, मेरे अंदर अपने प्रति आकर्षण पैदा किया है। उनका सामीप्य अब मुझे बुरा नहीं लगता। क्या ज्वाला अपने व्यवहार के कारण अपनी अहमियत खोता जा रहा है यह सब प्रश्न उसके मन में आ रहे थे ?मुझे एक बार उससे मिलना चाहिए ,उसके दिल में क्या है ? मुझे समझना होगा। जिसके लिए मैं यहाँ आई ,वो ही मुझसे दूर होता जा रहा है। दिल में अज़ीब सा ख़ालीपन था ,उसमें ज्वाला को ढूंढ़ रही थी किन्तु उसमें न ज्वाला की कोई खुशनुमा स्मृति ,न ही लगाव नजर आ रहा था। अज़ीब से सूनेपन ने उसे घेर लिया था,जहाँ, न ही कोई भाव या जज्बात नजर आ रहे थे
बदहवास सी, वो तेजी से कमरे से बाहर आई और ज्वाला के कमरे की तरफ बढ़ चली,ऐसी हालत में वो ज्वाला का सहारा, उसके प्यार के दो बोल चाहती थी किन्तु जैसे ही उसने ज्वाला के कमरे में कदम रखा। वहां भी एक खालीपन उसे नजर आया। कोई भी उसे सुनना या समझना नहीं चाहता था। उसने उसकी मेज को टटोला ,ऐसा लग रहा था ,जैसे सब कुछ सिमटता जा रहा है ,'ज्वाला' ने मुझसे अपने आपको ही दूर नहीं कर लिया है ,उसकी हर वस्तु बेगानी सी नजर आ रही थी। क्या उसने मुझे अपने दिल से भी निकाल दिया है ?उसके कमरे में आकर भी, मुझे कुछ भी अपना सा नहीं लग रहा,मुझमें वो अपनत्व का भाव कहाँ खोता जा रहा है। उसका, ये कैसा प्यार है ? जो मेरे लिए लड़ नहीं सका ,मुझे अपना नहीं सका। एक घर में रहने के बावजूद लगता है,मीलों की दूरी है,अनेक प्रश्न उसके इर्द -गिर्द मंडरा रहे थे किन्तु उसके पास एक का भी जबाब नहीं था। हताश हो ,दमयंती सोचती है - उससे एक बार तो बात हो जाती।
थके कदमों से दमयंती वापस लौट रही थी ,उसकी आँखों के आंसू उसे एहसास दिला रहे थे ,वो टूट रही है ,बिखरकर अपने पलंग पर जा लेटी , मन का दर्द बहकर -बहकर तकिये में समाता जा रहा था। सब कुछ बिखरा नजर आ रहा था, इतने दिनों से उसने क्या किया ?उस रिश्ते को समेटने का प्रयास कर रही थी किन्तु जितना उसे समेटती स्वयं ही उलझती जाती ,वो ऐसा क्यों कर रही है ?क्या ये रिश्ता, उसका अपना है भी ? ,जिसे संजोने का प्रयास कर रही है।
तभी हौले से किसी ने उसके बालों में हाथ फेरा ,दमयंती ने नजर उठाकर देखा
जगत जी उसके सर पर हाथ फेर रहे थे ,उसे देखते ही मुस्कुराये और बोले -कैसी हो, तबियत तो ठीक है ?उन्हें देखकर दमयंती उठकर बैठने का उपक्रम करने लगी ,वे बोले -लेटी रहो ! कहते हुए वे उसके बराबर में आकर बैठ गए। जगत जी ने बादामी रंग का कुर्ता पहना हुआ था , उनके गुलाबी रंग पर खूब फ़ब रहा था। देखने से ही ,उनकी मूछें, ठाकुरों वाला रुआब स्वतः उनके चेहरे की रौनक बढ़ा रहा था। दमयंती उन्हें देख रही थी ,उनकी एक -एक हरकत पर उसकी नजर थी। वह स्वयं ही नहीं जानती ,वो उनमें क्या देख रही है ,या कुछ ढूंढ़ रही है।
वैसे अभी तक दोनों एक ही कमरे में रहते हैं किन्तु अभी उनके साथ पति -पत्नी जैसा कोई रिश्ता नहीं था जगत जी ने भी सोच लिया था ,अब वो उसकी इच्छा के बग़ैर उसे हाथ नहीं लगाएंगे। वे पलंग पर लेटकर पास की मेज पर रखे समाचार -पत्र को पढ़ने का अभिनय करने लगे किन्तु नजर उनकी दमयंती पर ही थी। दमयंती को अपनी ओर देखते उन्होंने पूछा -इस तरह क्या देख रही हो ?उन्होंने उससे पूछा।
दमयंती को कुछ समझ नहीं आया कि क्या कहे ?कुछ समझ नहीं आया ,और ऐसे ही बोल दिया -आज आप अच्छे लग रहे हैं।
उन्होंने समाचार -पत्र मेज पर रखा और उसके करीब ख़िसक आये और पूछा -कुछ कहना चाहती हो , क्या कुछ हुआ है,कहते हुए उन्होंने उसके हाथ पर अपना हाथ रखा और हौले -हौले से उसे सहलाने लगे। दमयंती जानती है ,उसे ज्वाला पर क्रोध है ,उसके व्यवहार से खफ़ा है ,उसके दिल में सूनापन घर कर गया।
कुछ कहोगी भी ,क्या यहां मन नहीं लग रहा है ? जगत के इस तरह सहलाने और उनके प्यार भरे शब्दों से उसके मन की घुटन बाहर आने लगी, बरबस ही उसकी आँखों से आंसूं बहने लगे उसे इस तरह रोते देख ,जगत जी उसके और करीब आये और उसे बाँहों में भरकर बोले -तुम्हें इस तरह नहीं रोना चाहिए ,मुझसे औरतों का रोना नहीं देखा जाता,जो कुछ भी हुआ है ,मुझसे कहो !