Ghar deewar se nahi parivaar se banta hai

एक घर ,जिसके बाहर एक ''नामपट्टी ''लगी हुई थी। जिस पर लिखा था -''त्रिपाठी विला '' !उसका लोहे का बड़ा सा मुख्य द्वार बड़ा ही भव्य है। दोमंजिला सुंदर मकान देखकर लगता है ,किसी ने बड़े प्रेम से और पैसा लगाकर इसे बनवाया होगा। उसके बाहर मुख्य द्वार पर, बोगनविलिया की झाड़ियां लगी हुई हैं। मुख्य द्वार को खोलने के पश्चात ,जब हम अंदर प्रवेश करते हैं ,तो पूर्व दिशा की तरफ बड़ा सा बग़ीचा है। जहाँ पर कभी हरी -भरी घास रही होगी ,जो अब सूख गयी है। उसके अवशेष बाकि हैं। कुछ पौधे सूखे, कुछ समय की प्रतीक्षा में अभी भी हैं कि कोई तो आकर इस घर को बसायेगा और उनकी भी परवाह होगी। कुछ पौधों को ज्यादा पानी की आवश्यकता नहीं होती ,वे शायद इसीलिए आज भी जिन्दा हैं। जैसे -कैक्ट्स यानि कांटेदार पौधे !


जो हमारे जीवन में ,गाहे -बगाहे ,कहीं  न कहीं से आ जाते हैं और जीवन को,धीरे -धीरे घेरते चले जाते हैं। ये कटीले पेड़ कभी -कभी अनजाने ही ,हम स्वयं भी,लगा बैठते हैं और जब हम उनमें घिर जाते हैं तब इनकी चुभन का एहसास होता है। मैं भी न,आपको क्या दृष्टांत सुनाने लगा ? मैंने आगे बढ़कर देखा ,एक गैराज भी है और दूसरी तरफ अंदर जाने का रास्ता ,चार कमरों का सुंदर मकान बना हुआ है किन्तु सूना और वक़्त की धूल उसे, अपनी चपेट में ले रही है किसी के अरमानों का ये घर, किसी ने इसको बनाने में, कितने स्वप्न देखें होंगे? जिस तरह आज मैं, अपनी आँखों में कुछ ख्वाब लेकर आया हूँ। 

प्रकाश जी ,आपने ये घर अच्छे से देख लिया ,अब आपने क्या सोचा ,कैसा लगा ?

भई ! घर तो बहुत ही अच्छा बना है ,जिसने भी बनाया है, उनकी पसंद बहुत अच्छी रही होगी।

 जी हाँ ,''ये त्रिपाठी जी ''का सपना था। उन्होंने इसे बड़े मन से बनाया था ,सोचते थे -उम्र के एक पड़ाव में, इस घर में अपने पोते -पोतियों  के साथ , सुकून से इस घर में बाक़ी के दिन बिताएंगे। 

तब क्या हुआ ?उनके बच्चे उनके साथ नहीं रहे। 

कैसे रहते ?अपना जीवन बनाने के लिए ,आगे बढ़ने की होड़ में, एक तो विदेश जाकर बस गया ,दूसरा इसी देश में होकर भी बहुत दूर हो गया। उसने अपना वहीँ मकान बना लिया इधर कोई आना भी नहीं चाहता। पहले लोगों को अपने घर- परिवार से लगाव होता था ,लौटकर आ तो जाते थे किन्तु अब जो पंछी अपना घोंसला छोड़ गए, वापस नहीं आते। अब वे दोनों इस घर को बेचना चाहते हैं। दीवारें खड़ीं हैं किन्तु घर तो इंसानों से ,परिवार से ही तो बनता है। जब तक त्रिपाठी जी और उनकी पत्नी जिन्दा थे ,सोचते थे ,उनका एक बेटा तो इस घर में आकर रहे उन्होंने इसे कितने अरमानों से बनाया था ? किन्तु अब ये बिक जायेगा तो ये खंडहर होता, घर फिर से जी उठेगा,इसमें इंसान बस जायेंगे ,तो 'त्रिपाठी जी ''की आत्मा को शांति तो मिलेगी,उनके द्वारा बनवाया हुआ घर 'भूतिया 'होने से बच गया।    

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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