Mysterious nights [part 68]

 दमयंती ,कुछ सोचकर तैयार होती है ,'सुनयना जी' भी उसे, गहनों की अलमारी की चाबी दे देतीं है। तब सोलह शृंगार कर दमयंती अपने को आईने में निहारती है। आईने में अपने आप से पूछती है - ये साज सजावट किसलिए ?किसके लिए सजी हूँ ?अपने पति या फिर प्रेमी के लिए ,उसे अपने प्रश्न का कोई जबाब नहीं मिलता ,तो उदास हो सोचती है। जीवन इतना आसान क्यों नहीं है ? हर किसी के सामने एक परीक्षा खड़ी रहती है ,मुझे ये इम्तिहान नहीं देना,सोचकर कमरे के दरवाजे से बाहर निकलती है। न जाने ,ज्वाला कहाँ होगा ?उसे ढूंढती है ,आज ये मेरी कैसी परीक्षा है ?ऐसा नहीं, कि मैंने कभी अपने लड़के मित्र नहीं बनाये, कॉलिज में बहुत सारे थे किन्तु प्यार किसी से नहीं हुआ और जब प्यार हुआ तो पता चला ,वो मेरा अपना नहीं है। 


ज्वाला को ढूंढते हुए ,आगे बढ़ रही थी ,अँधेरे में न जाने किधर -किधर से गयी थी ,अब तो कुछ सूझ ही नहीं रहा ,तनिक एक बार उसकी एक झलक देख लूँ ,उसकी एक झलक पाने के लिए दमयंती बावरों की तरह उसे ढूंढ़ रही थी ,उसकी ऑंखें न जाने क्यों बरबस ही बरस रही थीं। उसने ये आभूषण और वस्त्र पहने ही इसीलिए थे क्योंकि वो 'ज्वाला 'को जलाना चाहती थी ताकि उसे एहसास हो वो, किसका प्यार ठुकरा रहा है ?

अरे, छोटी मालकिन !आप यहां कैसे ?बड़ी मालकिन, आपको ढूंढ रहीं हैं ,दमयंती को इधर -उधर देखते हुए उसने पूछा -क्या आप किसी को ढूंढ रहीं हैं ?

नहीं ,ऐसे ही टहलने के लिए बाहर आ गयी ,वो उस नौकर से कह तो रही किन्तु उसकी नजरें अभी भी इधर -उधर घूम रहीं थीं।तुम जाओ !अभी आती हूँ , सच में कितने बेदर्दी होते हैं ,ये..... अस्पष्ट से शब्द उसके मुख से निकले। 

क्या आपने कुछ कहा ,उसने वापस जाते हुए मुड़कर पूछा। 

नहीं तुम जाओ !उससे बातें करते हुए भी ,वो काफी आगे निकल आई थी ,तभी उसकी दृष्टि उसी खिड़की की तरफ गयी ,जिससे वो कल रात्रि खड़ी होकर ज्वाला को देख रही थी। जैसे ही दमयंती की दृष्टि उस ओर गयी किसी ने उसके पर्दे खिसका दिए। एक उम्मीद के साथ आगे बढ़ रही थी ,इस तरह ज्वाला को छुपकर देखते और मेरी नजर मिलने से पहले ही, उसका इस तरह खिड़की के पर्दे गिरा देना। मैं जैसे टूटती चली गयी। वहीं बैठकर रोने लगी। ये कितना बेदर्दी है ? एक बार भी मेरी तरफ नहीं देखा ,आंसू पोंछते हुए ,मैं गुस्से से अपने कमरे की ओर बढ़ चली। 

रोते -रोते मैं अपनी ज़िंदगी को पहचानने का प्रयास कर रही थी , न जाने, मेरी ज़िंदगी में ये क्या चल रहा है ? रात्रि के राहगीर चंदा ने मेरी खिड़की में झाँका। मैं खिड़की के और करीब आ गयी ,मैं तुलना कर रही थी ,पहले चाँद में या आज के चाँद कोई अंतर है ,मुझे तो नजर नहीं आया। वो तो पहले भी ऐसे ही निकलता था और आज भी निकला है। सबके लिए समान है। तब हम इंसानो की भावनाएं हर किसी के लिए एक जैसी क्यों नहीं हो सकतीं ?

प्रतिदिन की तरह ऐसे ही आकाश को अपने सितारों संग रौशन करता है। कोई इसे' दूज का चाँद' ,कोई इसे' ईद का चाँद' कहता है,तो कोई पूर्णिमा का  किन्तु ये तो दुनिया है कुछ भी कहेगी ,किन्तु इस पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता, कोई इसे प्यार से देखे,कोई इससे अपने चाँद की तुलना करे या फिर' करवा चौथ ' पर पूजन करे। ये न ही किसी से रूठता है ,हाँ ,एक बात तो है मेरे जीवन की तरह, इसकी ज़िंदगी में भी काली बदरी आ जाती है ,तब ये कुछ समय के लिए अपनी चमक खो देता है। उन ग़म के सायों में कहीं खोकर रह जाता है।

चाँद आज दमयंती को अपने आप से मिलवा रहा था , तभी जैसे कमरे में एक सुगंधित वायु ने प्रवेश किया ,उसका एहसास और सुगंध अच्छी थी,उसने पलटकर देखा ,और खिड़की के सामने से हट गयी। 

नहीं बैठी रहो !अच्छी लग रही हो ,अच्छा ये बताओ !तुमने भोजन किया है या नहीं। 

दमयंती नजरें नीची किये खड़ी रही ,जब वो पहली रात्रि को' जगत' से मिली थी ,तब उसे एक झलक देखा था ,उसके पश्चात उसने घर में कोहराम मचा दिया था। तब से ज्वाला की यादों में ,ज्वाला से मिलने की तड़प ने इस ओर ध्यान देने ही नहीं दिया। उसने देखा,''ठाकुर जगत सिंह ''देखने में' ज्वाला 'से मिलते -जुलते ही लग रहे हैं। गोरा -चिट्टा गुलाबी रंग ,चेहरे पर ठाकुरों वाला रुआब था , मखमल का क्रीम रंग का कुर्ता और पजामा ,उनके अंदर आते ही,कमरे में अच्छी खुशबू फैल गयी थी। 

तब वो अपनी जूतियां उतारकर बिस्तर पर बैठ गए ,दमयंती उसी तरह खड़ी उनकी हरकतें देखती रही ,तब वो बोले -नाराज़ हो !दमयंती ने नहीं में गर्दन हिलाई ,तो फिर वहां क्यों खड़ी हो ?बैठ जाओ !

दमयंती बैठना तो नहीं चाहती थी किन्तु सोचा -सही तो है ,कब तक खड़ी रहूंगी ?यही सोचकर वो बिस्तर पर बैठ गयी। दोनों के मध्य एक चुप्पी थी ,शायद सोच रहे थे कौन पहल करे ? तब जगत ने पूछा -तुमने ''ज्वाला को कहाँ और कब देखा ?ज्वाला की बात आते ही, दमयंती के चेहरे पर मुस्कान आ गयी और बोली -उन्हें मैं मॉल में मिली थी ,उन्होंने एक हीरे की अंगूठी ली थी ,वैसे उससे पहले होटल में भी ,एक बार अनजाने में मिलकर भी नहीं मिले। 

मतलब !

उस दिन  मेरा जन्मदिन था ,उस दिन को याद कर उसके चेहरे पर अजीब सी मुस्कान आ गयी।मैं अपनी सहेलियों के साथ थी , अचानक ही मेरे लिए बड़ा सा केक आया ,ऐसा उपहार देखकर आश्चर्यचकित होने के साथ मुझे बहुत ख़ुशी भी हुई। 

और तुमने उस केक भेजने वाले को अपना दिल दे दिया। 

नहीं ,ऐसा नहीं है ,किन्तु मुझे लगता है ,कहीं कुछ जुड़ सा गया था ,उस अनजान के लिए मेरे मन में कुछ भाव तो आये थे किन्तु मैं उन्हें समझ नहीं पाई। 

और तुम्हें एहसास कब हुआ ?

जब हम मॉल में मिले थे और जब उन्होंने अपना नाम बताया था। 

'जगत' दमयंती की बात सुनकर थोड़ा उदास हो गया ,दमयंती ने उसे देखा तो सोचने लगी इन्हें क्या हुआ ?

कुछ नहीं ,अभी तक तो दमयंती 'जगत' से ड़र रही थी और उससे दूरी बनाये हुई थी किन्तु 'जगत' के व्यवहार के कारण उससे अब थोड़ा सामान्य हो गयी थी।                                                                                                                                                                                                                                                       

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

Post a Comment (0)
Previous Post Next Post