Mysterious nights [part 65]

माता-पिता के बार-बार कहने के कारण और ज्वाला सिंह की बीमारी का सुनकर दमयंती अपनी ससुराल वापस आ गई। उसके वापस ससुराल आने का उद्देश्य सिर्फ ज्वाला था, वह ज्वाला से मिलना चाहती थी किंतु ससुराल में आकर भी, उसे ज्वाला कहीं दिखाई नहीं दिया। मन ही मन सोचा-' बीमार है, अपने कमरे में आराम कर रहा होगा। इतनी बड़ी हवेली थी , लोग भी बहुत सारे थे किन्तु वह समझ नहीं पा रही थी किससे ज्वाला के विषय में पूछे। तब वह रात्रि में ही, चुपचाप अकेली ज्वाला को उस हवेली में ढूंढने चल देती है। 

 रात्रि में जब सब सो गए , घर की लगभग सभी लाइटें बंद कर दी गयीं थीं। मैंने निर्णय लिया अब मैं अपने ज्वाला को इस हवेली में ढूंढ़ कर ही रहूंगी।जब वो अपने कमरे से बाहर आ रही थी ,तब उस सुनसान रात्रि में उसे एहसास हुआ कि उसकी अपनी पायल ही, उसकी चुगली कर रहीं थीं ,वह वापस अपने कमरे में आती है और अपनी पायल उतारकर रख देती है।  मैं एक मोमबत्ती की रौशनी के सहारे,अपने प्यार ' ज्वाला' के कमरे को ढूंढने निकली थी। 


उनसे एक बार मिलकर, अपने दिल की बात कह देना चाहती थी, और उनके मन की बात सुनना चाहती थी कि उनके मन में क्या है ? सबसे पहले तो मैं उनकी बीमारी के कारण ही परेशान थी और उन्हें एक नजर देखना चाहती थी, अब वो कैसे हैं ? मैं हर कमरे के आगे से बढ़ रही थी किंतु मैं परेशान थी ,इतने अंधेरे में कौन सा कमरा'[ ज्वाला' का है ? मैं बेहद घबराई हुई भी थी कि कहीं किसी ने देख लिया तो क्या होगा ?गलत कमरे में पहुंच गई तो न जाने क्या होगा ? यही सोचकर मन में घबराहट भी थी हालांकि उस समय इतनी गर्मी नहीं थी, फिर भी मुझे घबराहट के कारण बहुत पसीना आ रहा था। किससे पूछूं कहां जाऊं ? मन में यही प्रश्न उमड़ रहे थे। उस समय मैं इस हवेली में 'ज्वाला 'के कारण ऐसे ही भटक रही थी, इस एक उम्मीद से ताकि मैं 'ज्वाला 'से मिल सकूँ।

जब मुझे कहीं भी ,ज्वाला का पता नहीं चला तो मैं निराश हो गयी थी औरमुझे  अपने आप पर ही क्रोध भी आया।क्यों मैं अपने आपको, अपने में समेटे रही ,किसी से पूछ ही लेती तो क्या जाता ?अब मुझे लग रहा था ,मेरा यहाँ आना व्यर्थ रहा ,शायद ,ज्वाला ही मुझे पसंद नहीं करता वरना वो मुझसे एक बार तो मिलने का प्रयास करता। मैं दीवार के सहारे खड़ी सोच रही थी -अब कहाँ जाऊँ ? अपनी हालत पर मुझे रोना आ रहा था। उसके कारण मेरी क्या हालत हो गयी है ?इससे पहले कि कोई और नकारात्मक विचार मेरे अंदर प्रवेश करता , तभी स्मरण हुआ, वो तो बीमार है।

 मैं हताश हो ,वापस अपने कमरे की तरफ लौट रही थी ,इतनी बड़ी हवेली है ,जहाँ तक सम्भव था उसे ढूंढा ,  तभी मुझे हवेली के एक कोने की तरफ ,एक कमरे की खिड़की से,कुछ रौशनी आती दिखलाई दी। मुझे लगा ,शायद, अभी भी वहां कोई जगा हुआ है। मैंने अपने क़दम तेजी से आगे बढ़ा दिए ताकि मैं शीघ्र ही अपने कमरे में पहुंच सकूँ अभी कुछ दूरी ही तय कर पाई थी ,एकाएक मेरे कदम वहीं ठिठक गए। मन में विचार आया कहीं यह कमरा ज्वाला का तो नहीं ,हो सकता है ,उसकी सुविधा के लिए ही यहां रौशनी की गयी होगी। 'ज्वाला' से मिलने की लालसा  बलवती हो उठी अब मैंने, उस कमरे की तरफ अपने कदम बढ़ा दिए। 

मेरे कदम उधर ही बढ़ चले ,धीरे -धीरे मैं आगे बढ़ रही थी और शीघ्र ही, उस कमरे की खिड़की के समीप  पहुंच गई। वह खिड़की थोड़ी ऊंचाई पर थी, जब मैं उस खिड़की के बिल्कुल करीब गई। अपनी लंबाई से उस खिड़की का आंकलन किया, मुझे थोड़ा उचकना होगा। तभी मैं दूसरी तरफ देख पाऊंगी कि वहां कौन है ? मैंने उचक कर  दोनों हाथों से खिड़की के दो सरियों को पकड़ लिया और थोड़ा और ऊपर होने का प्रयास करने लगी। मैंने देखा, कुर्सी पर बैठा हुआ एक व्यक्ति, शायद कुछ लिख रहा था उसकी पीठ खिड़की की तरफ थी। इतने परिश्रम से भी कोई लाभ नहीं हुआ। मन में दुविधा थी, कैसे इस व्यक्ति का चेहरा देखा जाए , यह कौन हो सकता है ? इधर-उधर कुछ सामान ढूंढ़ रही थी, ताकि कुछ ऐसा मिल जाए, जिसके कारण मैं ठीक से खड़ी होकर, उस इंसान के पलटने की प्रतीक्षा कर सकूं। 

आसपास, कई चीजें देखीं , तब मुझे एक छोटी चौकी नजर आई जिस पर फूलदान रखा हुआ था। मैंने उस फूलदान को वहां से उठाया और बराबर में रखा और चौकी को निकाल लिया। अब चौकी को लेकर मैं उसी  खिड़की के समीप पहुंच गई। अब मैं आराम से, उस इंसान को देख पा रही थी किंतु वह न जाने, क्या कर रहा था ? कुछ लिख रहा था या पढ़ रहा था यह नहीं समझ पा रही थी।आखिर वह इतनी तल्लीनता से क्या कर रहा  हैं ? मैं गर्दन घुमा -घुमाकर यह देखने का प्रयास कर रही थी आख़िर वह कौन है ?कमरे में आसपास भी देखा, ताकि ऐसा कुछ नजर आए जिससे मैं पहचान कर सकूं कि यह कमरा ज्वाला का ही है। वह कमरा बहुत ही साफ सुथरा, हर चीज करीने से सजी हुई थी। पता नहीं, कौन हो सकता है ? किंतु ऐसे में, मेरी परेशानी के कारण बार-बार, उन सरियों को पकड़कर अंदर का हाल जानने के लिए देखने के कारण , मेरी चूड़ियां खनक गईं , जिन पर मेरा ध्यान ही नहीं था किंतु उस अंदर वाले व्यक्ति ने, उन्हें सुना था।उसे एहसास हो गया था कि अवश्य ही वहां कोई है।  

वह जैसे चौंक गया, उसने तुरंत ही मुड़ कर देखा। जिसका एहसास मुझे भी नहीं था, कि वह इस तरह एकदम से मुड़ जाएगा , मैं घबराकर पीछे हटी किंतु मैंने,उस व्यक्ति का चेहरा देख लिया। वह तो 'ज्वाला' ही था , मेरे  हृदय की धड़कनें तीव्रगति से बजने लगीं। जैसे ''रंगे हाथों किसी चोर को पकड़ लिया हो। ''वह स्वयं ही नहीं समझ पाई ,यह सब घबराहट के कारण हो रहा है, या फिर ज्वाला के मिलने की खुशी में। अब तो ज्वाला भी दिख गया था। वही अकेला उस कुर्सी पर बैठा हुआ था। तब भी न जाने क्यों ? उसकी धड़कनें , उसकी स्वांसें उसका साथ नहीं दे रही थीं। अब ज्वाला का कमरा मुझे मिल गया था, और मुझे खुश होना चाहिए था, और दौड़कर उसके कमरे में जाकर उससे बात करनी चाहिए थी किंतु न जाने क्यों? एक अजीब सी घबराहट हो रही थी।

कुछ मैं देर यूँ ही दीवार से सटकर अपनी स्वांसों को संयत करने में लगी रही ,घबराहट के कारण गला सूख रहा था किन्तु वहां पानी नहीं था। अपने थूक से ही ,अपने गले को तर करने का प्रयास करते हुए। एक बार फिर से उस कमरे की खिड़की से झाँकने का प्रयास करती हूँ।  


laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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