ठाकुर अमर प्रताप सिंह की पत्नी 'सुनयना देवी' ने, ऐसी चाल चली, जिसके कारण श्यामलाल जी और उनकी पत्नी शकुंतला देवी भी लालच में आ गए। अब वह अपनी बेटी का साथ देने के बजाय, उसे ही समझा रहे थे। बहुत देर तक दमयंती को, श्याम लाल जी और उनकी पत्नी शकुंतला देवी समझाते रहे ,उसे धन -संपत्ति का लालच दिया, घर की एकता और अधिकार का लालच दिया और उससे कहा -यदि वह इस बात को स्वीकार नहीं करती है तो वह'' ज्वाला'' से भी हाथ धो बैठेगी। अगर वह ज्वाला से सच्चा प्यार करती है, उसके लिए इतना त्याग तो कर ही सकती है ,अपने अहम को मार,परिस्थितियों से समझौता करे और उस परिवार का ध्यान रखे उनका समाज में कितना मान -सम्मान है ?
शुरू -शुरू में ससुराल में ,सभी लड़कियों को परेशानी आती है किन्तु धीरे -धीरे वो उस परिवार में रमने लगती है और वह परिवार उसका अपना हो जाता है,शकुंतला देवी ने समझाया।मुझे लग रहा था ,मेरे अपने घरवाले ही मुझे नहीं समझ रहे हैं ,तो बाहर किससे उम्मीद कर सकती हूँ ? तब अपने दिल के हाथों विवश होकर मैंने 'ज्वाला' से मिलने का विचार किया, और उसे मिलने के लिए उसी 'जंगल 'में बुलाया किंतु ज्वाला वहां नहीं पहुंचा। मैं उस बगीचे में बैठकर देर तक उसकी प्रतीक्षा करती रही। मैं , उससे जवाब चाहती थी और पूछना चाहती थी कि वह क्या चाहता है ?दमयंती ने बराबर में पड़े पलंग पर बैठते हुए शिखा को बताया।
मैं ,उस समय पूरी तरह निराशा से भर चुकी थी ,मेरी आँखों में आंसू थे ,जिसके प्यार के लिए मैं लड़ रही थी ,वो तो साथ खड़ा नजर नहीं आ रहा था। घरवालों से निराश हो मैं उसके काँधे का सहारा ढूंढ़ रही थी ,जो मेरे बहते आंसुओं का मोल समझे ,ऐसी हथेली खोज रही थी। जो मुझे सीने से लगाकर कहे -मैं तुम्हारे साथ हूँ ,तुम मेरी हो। दूर -दूर तक मुझे कोई अपना नजर नहीं आ रहा था। निराश होकर मैं वहां से वापस आ गयी ,मन में अनेक प्रश्न थे ,आखिर वो मुझसे रिश्ता चाहता है या नहीं ,वो भी मुझे प्यार करता है या नहीं।
तब एक दिन,मेरी ससुराल से एक संदेश आया , जिससे मुझे पता चला कि 'ज्वाला 'बीमार है, यह सुनकर मैं अपनी शिकायतें ,कुछ प्रश्न ,सब कुछ भूल कर, अपनी ससुराल आ गई। यहां आकर मेरा बहुत सम्मान हुआ, पहले भी हुआ था। घर में अब इतने मेहमान भी नहीं थे, धीरे-धीरे सभी जा चुके थे। दमयंती सीधे' ज्वाला' से मिलने जाना चाहती थी किन्तु किसी से कुछ कह न सकी।किन्तु मेरी नजरें उसे , घर की हर दिशा में खोज रही थीं किन्तु वो मुझे कहीं भी दिखलाई न दिया।
तब अपने मन को समझाया -वो तो बीमार है ,अपने बिस्तर में होगा। मैं यह बात को जानती थी, कि मेरे और ज्वाला के विषय में घर में सबको पता चल चुका है, अपने उस प्यार के लिए मैं ही, लड़ रही थी। मैंने कभी' ज्वाला' को पहल करते नहीं देखा, किंतु कहते हैं न..... जब जहां प्यार होता है, वहां इंसान ऊंच -नीच ,भेद -भाव सब भूल जाता है। मुझे ज्वाला के प्यार के सिवा कुछ नजर नहीं आ रहा था। उसी तरह जिस तरह तुमने अपने प्यार के लिए, अपने उस' अधूरे विवाह' को भूलकर, यहां चली आईं। सच्चा प्यार ऐसा ही होता है।
मैं तो उसके प्यार के लिए, तमाम उम्र ऐसे ही विधवा के रूप में काट देती किंतु आप लोगों ने, मेरे प्यार को समझा ही नहीं, शिखा शिकायत भरे लहजे में बोली।
नहीं, ऐसा नहीं है, हमने तुम्हारे प्यार को नहीं समझा, तभी तो हमें लगा, कुछ पल के प्यार के लिए तुम इतना बड़ा त्याग कर सकती हो। तब तुम इस परिवार की बहू बनकर, परिवार के लिए भी, समर्पित रहोगी।
आपके कहने का तात्पर्य क्या है ? बल्कि आप ही, मुझे जबरन ही अपने बेटे की बहू बनाने पर तुली हैं।
यह जबरन नहीं है, हमने तुम्हारे पिता से बात की है और वह भी इस बात के लिए सहमत थे। जब एक बेटा नहीं रहता है तब दूसरा बेटा, अपनी भाभी की मांग भर सकता है।
किंतु मुझे यह रिश्ता पसंद नहीं था, तब यह जबरन ही तो हुआ।
क्यों, मेरे बेटों में क्या कमी है ? एकदम से दमयंती नाराज होते हुए बोली।' तेजस' भी मेरा ही बेटा था।
आपके बेटों में कोई कमी नहीं है , यह तो अपने मन की बात होती है।
नहीं ऐसा नहीं है, जिससे हम प्यार करते हैं, उसका परिवार उसके माता-पिता, उसका घर सभी हमें अच्छा लगता है, तब उसके भाई क्यों नहीं ?
अभी तो आपसे कहा -यह तो अपने मन की बात है ,सभी एक जैसे नहीं होते ,फिर चाहे उस लड़के के भाई ही क्यों न हो ?न जाने, आप क्या-क्या सोच रही हैं ? आप मुझे आगे की कहानी बताइए , बात को टालते हुए शिखा ने कहा।
जब मैं अपनी ससुराल वापस आई, तो'' जगत'' के कमरे में ही थी , जगत को मैंने देखा तो मैं फिर से डर गई क्योंकि मैं उसके साथ रहना नहीं चाहती थी। हम दोनों का विवाह भी हुआ ,'सुहागरात 'भी मनी किंतु हम एक -दूसरे को किसी अज़नबी की तरह देख रहे थे। उन्होंने मुझसे मुझे कुछ नहीं कहा किन्तु उनकी आंखें बहुत कुछ कह रहीं थीं ,उनमे दर्द था,वो चुपचाप उठे और बाहर चले गए।
कुछ देर पश्चात, मेरी सास मेरे कमरे में आई और बोलीं -तुम अभी भी 'जगत 'की पत्नी हो, उसके कमरे में रहने का अधिकार तुम्हारा है और पति होने के नाते 'जगत' का अधिकार भी तुम पर बनता है। मैं उम्मीद करती हूं तुम उसे निराश नहीं करोगी, उनके शब्दों में कठोरता थी।
मैं मन ही मन सोच रही थी, मैं यहां आ तो गई हूं किंतु क्या इन लोगों ने मेरी बात को समझा नहीं है। इतनी बड़ी हवेली में, मैं 'ज्वाला' का कमरा ढूंढने का प्रयास कर रही थी। रात्रि में,' जगत' मेरे समीप नहीं आए , वे होटल में चले गए थे।उस समय मुझे 'जगत ' का दर्द नजर नहीं आया ,मैं अपने प्यार की तलाश में यहां आई थी। मुझे ये भी नहीं लगा ,ये लोग क्या सोचेंगे ? मैं इस बात से संतुष्ट थी ,कम से कम उन्होंने मेरी बात को समझा। मैं अपने ज्वाला के विषय में जानना चाहती थी किन्तु किससे पूछूं ,' कहाँ जाऊँ ?कुछ समझ नहीं आ रहा था।वो तो जैसे मुझसे लुका -छुपी खेल रहा था ,जबसे उसके भाई से मेरा विवाह हुआ है ,वो सामने ही आ रहा या आना ही नहीं चाहता .मैं बड़ी दुविधा में थी |
क्या 'ज्वाला', दमयंती से मिलेगा या मिलना ही नहीं चाहता ,उसकी ऐसी क्या मजबूरी है ?जो छुपा हुआ है ,क्या वो सच में बीमार था ?दमयंती और ज्वाला के रिश्ते का क्या अंजाम होगा ?चलिए अनेक प्रश्नो के जबाब पाने के लिए आगे बढ़ते हैं .