बहुत दिनों पश्चात, हम लोग ,अपने गांव जा रहे थे अबकी बार दिपावली गांव में दादी- बाबा के साथ मनाने का ही इरादा था। मम्मी- पापा ने कई बार दादी से कहा भी था-' कि हमारे साथ चलो !'
किंतु दादी कहने लगी -तुम्हारे दादाजी को अकेले छोड़कर कहां जाऊंगी , उनके खाने-पीने का भी तो ख्याल रखना है। यहां पर अपना घर है ,खेती -बाड़ी है ,उन्हें कौन संभालेगा ? कहने को तो रिश्ते में दादी हमारी दादी ही थीं 😄 किंतु दादी जैसी नहीं लगती थीं। एकदम स्वस्थ गोरी- चिट्टी दादी थीं हमारी। हम कभी बहुत पहले, दादी से मिलने गए थे लेकिन तब बहुत छोटे थे, किंतु अबकी बार बाहरवीं के परीक्षाएं होने के पश्चात हमने अपने गांव में घूमने का मन बना लिया था और गांव के लोगों से मिलना चाहते थे और गांव के लोगों पर एक वृत्तचित्र [डॉक्यूमेंट्री] बनाना चाहते थे।
जब हम लोग गांव पहुंचे, तो गांव के लोग बहुत प्रसन्न हुए, विशेषकर दादाजी, जो गांव के लोगों के मध्य बैठकर, हुक्का पी रहे थे। हमें देखकर खुश हुए और उन्होंने हमारा सामान किसी से कहकर घर पहुंचवा दिया। हम वहीं बैठ गए ,तब दादा जी ने हमारा परिचय उन लोगों से करवाया। हमने देखा, सभी गांव के लोग दादाजी का कितना सम्मान करते हैं, यह नहीं कि वह उनसे डरते हैं बल्कि उनके अंदर अपने बड़ों के प्रति एक सम्मान की भावना भरी हुई थी।
मेरे दादाजी बहुत पहले सेना में भर्ती हुए थे, और देश की सेवा के लिए चले गए थे। वे अक़्सर गांव वालों को अपने वही किस्से सुनाते थे, जो उनके जीवनभर की पूंजी बन गए थे। उन्हीं दिनों दादी, अपने सास - ससुर के पास ही रहती थीं। दादाजी सीमा पर थे, साल-छह महीने में आ जाया करते थे। यह सब दादी ने हमें घर की साफ- सफाई करते समय बताया था। जब हम घर पहुंचे, तो घर में भी साफ- सफाई चल रही थी। पहले कच्चे मकान थे, अब पक्के करवा दिए हैं, उनमें सफेदी का कार्य चल रहा था। मम्मी भी सफाई के कार्यों में दादी जी का हाथ बटाने लगीं। उन्हें देखकर हम भी, घर के कुछ पुराने सामान संभालने लगे लेकिन जितने भी हम सामान देखते, आश्चर्यचकित होने के साथ-साथ बाद रोमांच होता , दादाजी की बंदूक भी थी, तलवार भी थी, गोलियां भी हमने देखी ,चांदी के बर्तन इत्यादि सब उन्होंने यादगार के तौर पर संभाल कर रखे थे।उन्हीं सामान में से , तब हमने एक पुराना संदूक देखा ,दादी से पूछा -इसमें क्या है?
इससे पहले की दादी कुछ कहतीं, हमने वह संदूक खोल दिया था, उसमें दादाजी के कुछ इनाम और सर्टिफिकेट रखे हुए थे, उन्हें देखकर हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा था और अच्छा भी लग रहा था। एक विशेष अनुभूति हो रही थी, हमें अपने बुजुर्गों पर गर्व महसूस हो रहा था। जब हमने एक छोटी सी संदूकडी को खोला -तो उसमें से कुछ पत्र निकले, दादी !ये पत्र कैसे हैं ? कहते हुए उसने पत्र खोलना आरंभ किया दादी दौड़ती हुई आई , इन्हें रहने दो ! इन्हें मत छेड़ो ! तब तक मोहित एक पत्र खोल चुका था। वह पत्र खोलकर देखता है, तो तब उसे पता चलता है ,ये पत्र दादी ने दादाजी के लिए लिखे थे हालांकि इस तरह के किसी के व्यक्तिगतपत्र पढ़ने नहीं चाहिए किंतु मोहित को, आश्चर्य हुआ मेरी दादी भी पत्र लिखती है, या उन्होंने भी कभी पत्र लिखे हैं। दादी तो मात्र छठी पास ही है। इन्हीं बातों का आकर्षण उसकी दादी के पत्र पढ़ने के लिए उसे उत्साहित करता है।
दादी के एक पत्र में लिखा था -मेरे स्वामी !चरणस्पर्श !
आप कैसे हैं ? मुझे आपकी बहुत याद सताती है। बहुत दिन हो गए आपने, अपनी कोई खबर नहीं भेजी। आपके पिताजी सारी रात खांसते रहते हैं। आपकी माताजी, उनसे लड़ती रहती हैं। मैं सारा दिन घर के कार्यों में लगी रहती हूं। कल से आपकी बहन के लिए, हमने जवे तोड़ने शुरू कर दिए हैं, उनका सिंधारा भी जाएगा।आपको पता है ,कलुवे के घर पोता हुआ है ,हमारे पड़ोस की शन्नो दीदी का विवाह तय हो गया है। गाय ने अब दूध देना बंद कर दिया है। आप तो मुझे यहाँ अकेली छोड़कर चले गए ,पिताजी और माताजी की लड़ाई में दिन तो कट जाता है किंतु रात्रि में अकेली रहती हूं , अकेले मन नहीं लगता, तुम कब आओगे ? शीघ्र ही अपनी खोज खबर देना ! तुम्हारे चरणों की दासी - इमरती !
उसी के अंदर, एक पत्र और उसे मिला वह शायद दादाजी का था , मोहित ने वह पत्र भी खोला और पढ़ने लगा।
मेरी प्यारी इमरती !
तुम जितनी, मीठी हो, उतने ही तुम्हारे पत्र के शब्द भी मीठे हैं हालांकि कुछ शब्द तुमने ठीक से नहीं लिखे हैं, मात्राओं में थोड़ी गलती है किंतु तुम्हारी भावनाएं मैं समझ चुका हूं। मैं तुम्हारे दम पर ही तो अपने माता-पिता को छोड़कर यहां पड़ा हुआ हूं। तुम ही मेरी, हिम्मत हो। मुझे भी तुम्हारी बहुत याद आती है अबकी बार आऊंगा तो तुम्हारे लिए, सुंदर और महंगी चूड़ियां लेकर आऊंगा। मैं जानता हूं तुम्हें हाथ भर- भरकर चूड़ियां पहनना पसंद है। क्या करूं ?कमाने के लिए, अपने परिवार से अपनी पत्नी से दूर जाना ही पड़ता है। वरना फिर तुम शिकायत करोगी, कि खर्चे पूरे नहीं हो रहे हैं,तुम्हें अपने पास ले आया तो वहां वे दोनों अकेले रह जायेंगे। तुम्हारा सिर्फ तुम्हारा -राजन !
मोहित दादी के पत्र पढ़ रहा था, और उसे आश्चर्य हो रहा था -कि हमारी दादी किस तरह से दादाजी को पत्र लिखतीं थी। ऐसे अनेक पत्र उसने पढ़ डाले, कुछ पत्रों को स्मरण कर, दादी शर्माकर भी खिल उठीं । कुछ से उनकी यादें ताजा हो गई और वह बताने लगीं - कि यह पत्र मैंने कब लिखा था, दूसरा पत्र कब लिखा था ?
किंतु उन पत्रों को सुनकर, पापा -मम्मी थोड़े गंभीर हो गए , वे एक दूसरे को देख रहे थे और सोच रहे थे -अब यही कह देते हैं -कि हमारे माता-पिता ने हमारे लिए क्या किया है ? किंतु इन पत्रों के माध्यम से, आज इन बच्चों को, पढ़कर आश्चर्य हो रहा है। उनमें कितना दर्द छुपा है, एक दूसरे के प्रति कितनी बेचैनियां और फ़िक्र हैं? विरह है , एक दूसरे के प्रति विश्वास है। एक दूसरे को देने के लिए साहस है, उम्मीदें हैं! एक अच्छे भविष्य की कल्पना के लिए ये लोग, कितना सहन कर रहे थे ?अपने परिवार के प्रति त्याग है। वे मात्र शब्द ही नहीं थे, उसमें उनकी जिंदगी बसी थी, उनकी तड़प थी। सच में, उस समय लोग कैसे अपने जीवन को व्यतीत करते थे, कैसे विरह -वेदना को झेलते थे ? और दूरी रहने पर भी, प्यार बना रहता था।
आजकल तो पास रहकर भी, आए दिन झगड़े होते रहते हैं। विश्वास और प्यार पनप भी नहीं पाता है। जितनी जल्दी प्यार का इजहार करते हैं उतनी जल्दी उसे जाने की जल्दी भी हो जाती है। कुछ भावनाएं ऐसी थी जो हृदय की गहराई से उभर कर आई थीं। कुछ पत्र ऐसे थे, जो मोहित ने एक तरफ रख दिए थे जिन पत्रों में, प्रेम ही नहीं, वेदना भी थी, मजबूरियां थीं।
बच्चे अब समझने लगे थे, तभी तो मोहित ने कहा -पापा ! हमारे बड़े भी हमारे लिए कितना बड़ा त्याग कर जाते हैं किंतु हम उस समय को नहीं देख पाते, इसलिए उनको समझ भी नहीं पाते। आज मुझे पता चला, दादी भले ही छठी पास थी, किंतु उनकी टूटी -फूटी हिंदी में भी बहुत कुछ छुपा हुआ था, जो महसूस किया जा सकता है। यह हमारी धरोहर है, हमारे दादा -दादी की निशानी ! कहते हुए उसने, वे पत्र ज्यों के त्यों संदूकड़ी में संभलकर रख दिए और दादी को सौंप दिए।
दादी बोली -हमारी जिंदगी तो जैसे कटनी थी, वैसे कट गई, किंतु इन पत्रों में हमारा अनमोल जीवन छिपा है अनमोल पल हैं। तुम्हारे लिए तो इनका कोई मोल नहीं होगा, किंतु मेरे लिए अमूल्य हैं ,इन पत्रों के माध्यम से ही मैंने, अच्छी हिंदी लिखना और पढ़ना सीख लिया था कहकर मुस्कुराईं। हर पत्र में तुम्हारे दादाजी मुझे कुछ नए शब्द सिखा देते थे, और मैं हर बार जिंदगी का एक नया सबक उन्हें पत्र में लिखकर भेजती थी। यह हमारी उन दिनों की निशानियां है, जब तुम्हारे दादाजी, कमाने के लिए, दूसरे शहर चले गए थे। कहते हुए उन्होंने उस संदूक को बड़े स्नेह से साफ कर वापस वहीँ पर रख दिया।