'चिंगारी', जो सुलग रही थी, कहीं , ख़ाक के ढेर में ,
तलाशती ,अस्तित्व अपना ,थी मौके की तलाश में।
कब ,उसके अनुकूल बयार बहेगी ?
और वह भड़क उठेगी, बन ''ज्वाला'' आकाश में।
ज्ञान की 'लौ ' अभी टिमटिमाती सी ,
उसे लगता ,अभी, कुछ ख़ामी है ,मेरे अभ्यास में।
उसके लेखन की'' चिंगारी ''
बची है अभी ,उसके भावों और हृदय की प्यास में।
बन'' शोला'' अब भड़क रही है,
देखा, जब 'कोहराम'रिश्तों औ जज्बातों का संसार में।
अब 'चिंगारी' भड़क रही है ,आकाश में ,
शब्दों की अग्नि बन बरस रही,अनाचार होते देख, संसार में।