मन न जाने ,कहां 'गुमशुदा' हो गया है ?
बहका -बहका है या थोड़ा बौरा गया है।
हालत उसकी पर, मुझे ही क्या ?
''तरस'' किसी को आता नहीं।
सपनों में है, या हकीकत में खो गया है।
क्या खोया है ? किसी मल्लिका के ख्वाबों में,
जो अपने आपको ही भूल गया है।
बावरा सा मदमस्त डोलता है, इधर-उधर,
कभी जमीन पर है तो कभी पहाड़ो पर गया है।
पैर भले ही जमीन पर हों,नजर गगन पर,
लगता, वहीं खूबसूरत वादियों में खो गया है।
इससे तो बचपन ही भला था,
चंचल , हंसता- खिलखिलाता था।
अब यह मन न जाने क्यों? गंभीर हो गया है।
भटकता है, यहाँ -वहां , ढूंढ़ता है ,उद्देश्य !
लगता है मन, कहीं न कहीं नीरस हो गया है।
जाना चाहता,उसकी गली ! भटकता है।
न जाने कैसे ? ''बावरा ''सा हो गया है।
''लक्ष्यहीन '' मन लगता नहीं ,कहीं ,
अपने आप से ही ,अजनबी सा हो गया है।