''समय'' के पंखों पर सवार निकला इक राही।
उम्र का बंधन नहीं ,उम्र उसकी कम ही रही।
अवस्था बालपन की,चुलबुलापन चंचलता लिए ,
न जाने कब पहुंचा ? ''किशोरावस्था'' के द्वार,
लिए कल्पनाओं की उड़ान बढ़ता गया सवार।
कर लूँ दुनिया को मुठ्ठी में, जूनून बनता गया।
''समय'' को भूल वो रंगीन सपनों में खो गया।
'समय 'ने उसका हाथ थामा और बढ़ता गया।
समय संग जो चला ,हमेशा आगे बढ़ता गया।
न जाने कितने रिश्ते छूटे बिछड़ गए ,अपने ,
उन्होंने भी ,''समय यात्रा ''का लाभ उठाया।
बचपन छूटा ,जवानी खेलते संघर्षों में बीती।
बुढ़ापे में ,''समय यात्रा'' में हिचकोले खाता।
'समय' जाने कब उम्र से आगे निकल जाता ?
पीछे रह जातीं कुछ यादें ! कुछ अनुभव !
यात्रा में ',समय' उसे बहुत कुछ दिखलाता।
राही थककर ,ठहर पंचतत्व में मिल जाता।
''समय'' अपने पंख खोल ,नवीन यात्री ले आगे बढ़ गया ।
समय यात्रा का राही जीवन को संवारने उस पर चढ़ गया।
