कल्पना जी आज खूब अच्छे से तैयार होकर बैठी है, इसी तरह तैयार बैठी हैं, जैसे वह पहले कभी सोचा करती थीं।घर -गृहस्थी के कामों में ,ठीक से तैयार होने का कभी समय ही नहीं मिलता था। अब वह अपने लिए समय निकालने लगीं हैं। कुछ देर बैठकर यूं ही, टीवी देखती रहीं , टेलीविजन के चैनल बदल- बदल कर, कोई अच्छी सी फिल्म या सीरीज देखने का प्रयास करने लगीं किंतु न जाने मन कहां भटक रहा था ? किसी भी चीज में मन ही नहीं लग रहा था। परेशान होकर उन्होंने, टीवी बंद किया और अपने कमरे से बाहर आ गईं । बाहर आकर बालकनी से, आते-जाते वाहनों को और लोगों को देखने लगीं। इस सबसे उन्हें लग रहा था ,जैसे उनका समय यूं ही, व्यर्थ जा रहा है। कुछ सार्थक नहीं कर पा रही हैं। घड़ी में समय देखा, अभी साढे तीन ही बजे हैं। तब दीपांकर बाबू से पूछती हैं -चाय के साथ,नाश्ते में आप क्या लेंगे ?
क्यों परेशान होती हो ? आराम कर लो ! अभी चाय के लिए भी समय है।
अच्छा, आज आपके लिए चाय के साथ, प्याज के पकोड़े बनाती हूं, उन्हें बनाने में भी समय लगेगा,आपको बहुत पसंद है न... कह कर उनके बिना जवाब दिए ही, अंदर रसोई घर में चली गईं ।
कल्पना जी अब करें भी तो क्या ? इस गृहस्थी को जमाने में , जिंदगी के 30 साल गुजार दिए। इन 30 सालों में उन्होंने कभी अपने लिए सोचा ही नहीं, जब तक सास- ससुर जिंदा थे उनकी दवाई- गोली, बच्चों की परवरिश ,तीनों समय का भोजन, किसी को खाने में क्या पसंद है ? दोपहर में क्या बनेगा? बाबूजी को खाने में खिचड़ी देनी है। माता जी को, खिचड़ी पसंद नहीं है। यही सब सोचते, उधेडबुन करते उनके जीवन के 30 साल बीत गए। मां -बाबूजी भी चले गए, बच्चे बड़े हो गए, और अपनी-अपनी नौकरियों पर चले गए। कुछ समय, उनके शादी -विवाह में भी बीत गया। अब सब कुछ व्यवस्थित हो गया है। एक तरह से देखा जाए तो कल्पना जी की संपूर्ण जिम्मेदारियां पूर्ण हो चुकी हैं। उन्हें खुश होना चाहिए , खुश भी हैं, किंतु जिंदगी के इतने वर्ष उन्होंने व्यस्तता में गुजारे हैं , कभी अपने लिए समय भी नहीं निकाल पाईं।
अब ऐसे लगता है, जैसे घर में कुछ काम रहा ही नहीं, जबरदस्ती कुछ भी करने का प्रयास करती हैं, समय काटे नहीं कट रहा धीरे-धीरे 'अकेलापन' उन्हें घेरने लगा अपने बीते समय को सोचतीं - न जाने मैंने , जिंदगी के 30 वर्ष कैसे व्यतीत किये ? जब तो लगता था, मेरे पास समय की बहुत कमी है, और अब लगता है समय काटे नहीं कट रहा। कभी बच्चों से फोन पर बात करतीं। कभी-कभी बच्चे व्यस्तता के चलते, फोन भी नहीं उठा पाते तो निराश हो जातीं। अब किसी को मेरी जरूरत ही नहीं रह गई है। हां ,अब क्यों जरूरत होगी ? अब तो सभी आवश्यकताएं पूर्ण हो गई हैं। अब माँ को कोई क्यों पूछेगा ? पकोेड़े भी तल लिए थे, उसके पश्चात चाय बनाई। इन चीजों में समय तो लगता ही है ,यह कार्य करते हुए उन्हें 4:30 बज गए थे।
दीपांकर जी के सामने नाश्ते की प्लेट रखते हुए बोलीं -मैंने कहा था न...... समय तो लगेगा ही।
उन्होंने ट्रे में रखा हुआ नाश्ता देखा तो बोले -इतने सारे पकोेड़े बना दिए हैं , अब रात्रि में भोजन की इच्छा नहीं होगी कुछ देर पश्चात यह मत पूछने लगना, कि रात्रि में भोजन में क्या लेंगे ? बस यही बहुत है। वह महसूस कर रहे थे, कि कल्पना को 'अकेलापन' महसूस हो रहा है , तब वह बोले -एक बार जाकर अपने बच्चों से मिल आओ ! तुम्हारा मन भी बदल जाएगा।
अब मेरी किसी को क्या आवश्यकता है? सभी अपने कार्यों में व्यस्त हैं। उनके पास फोन करने तक का समय तो मिलता नहीं है सब अपने-अपने काम पर चले जाएंगे, मैं अकेली क्या करूंगी ? बोर हो जाऊंगी। तुम्हारा क्या है? तुम्हें तो ऐसे रहने की आदत हो गई है , दोस्तों में चले जाते हो, या यह सारा दिन समाचार -पत्र पढ़ने लगते हो।
मैं समझ रहा हूं, किंतु इन्हीं दिनों के लिए तो तुम तरस रही थीं, कहती थीं - पल भर के लिए भी समय नहीं मिलता है , अब समय ही समय है, तो तुम्हें 'अकेलापन' खल रहा है।
हां सारा दिन बच्चों में ही तो लगी रहती थी, व्यस्त रहती थी , अब लगता है, जैसे कुछ काम ही नहीं है।
यह तो तुम्हारे लिए अच्छा ही तो है, अब बच्चों की अपनी जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं, जैसे तुमने अपनी जिम्मेदारियां पूर्ण कीं , अब बच्चे अपनी जिम्मेदारियों में व्यस्त हैं , उनका क्या बुरा मानना ? अपने मम्मी पापा से बात करने के लिए, तुम्हें भी कहां समय मिलता था ? अब समय है तो..... किंतु अब मम्मी- पापा ही नहीं रहे। यही तो होता है, अब तुम अपने लिए समय निकालो !
मैं और कर भी क्या सकती हूं ?
क्यों, क्या कुछ नहीं कर सकती हो ? जो भी तुम्हारे शौक थे, वे शौक पूरे कर सकती हो।
अब उससे क्या लाभ है ? पहले यदि यह कार्य किए जाते, तो लोगों की प्रशंसा मिलती, आगे बढ़ने का प्रोत्साहन मिलता। अब इससे क्या हो जाएगा ?
तुम्हें लोगों के लिए आगे नहीं बढ़ना है, अपने लिए आगे बढ़ना है ,अपनी एक सोच रखते हुए ,अपनी सोच से, अपने जीवन के अनुभवों से ,लोगों को एहसास कराना है।सीखने और करने की कोई उम्र नहीं होती। यदि तुम बच्चों को पढ़ाना चाहती हो तो मैं तुम्हारे लिए, कुछ बच्चे ला सकता हूं, जो पढ़ना चाहते हैं किंतु उन्हें मौके नहीं मिल रहे। यदि इसी तरह अकेलेपन को ढोती रहोगी , तो समय से पहले ही बूढी हो जाओगी। बूढ़े तो सभी होते हैं किंतु जिंदादिली के साथ, जीना एक अलग ही जीना होता है। जैसे वह समय व्यतीत किया इस तरीके से, इस 'अकेलेपन' से भी बच सकती हो किंतु यह निर्णय तुम्हारा अपना होना चाहिए मैं सिर्फ सुझाव दे सकता हूं, कहकर दीपांकर जी बाहर चले गए।
कल्पना जी ने ,रसोई का कार्य समेटा और आराम करने लगीं किन्तु इस बीच उन्होंने अपने 'अकेलेपन 'से जूझने के लिए कुछ तो निर्णय लिया था ,उनके चेहरे पर मुस्कान थी ,उस ख़ुशी को उस निर्णय को वे अपने पति से बाँट लेना चाहती थीं ,जो उनके जीवनभर के साथी हैं। अब बस दीपांकर जी के आने की देर थी।
