तुम्हें भी मिल जाना है ,ख़ाक में ,हमें भी राख़ हो जाना है।
फिर क्यों ये दुश्मनाई ? इंसान होकर भी,इंसानियत को नहीं जाना है।
कुछ घरोंदें बना रहे थे ,कुछ उन घरोंदों की ख़ुशी मना रहे थे। तभी कहीं से इक आग का गोला, उन घरोंदों को उजाड़ गया। किसी का क्या गया ?किन्तु कितनों के विश्वास तोड़ गया। दुश्मनी का नया अध्याय जोड़ गया। आज तक इस दुश्मनी से किसी को क्या मिला है ? जलाने वाला स्वयं भी तो जला है ,कभी दुश्मनी की आग में ,कभी बंटवारे की आग में ,ईर्ष्या है, कि पनपती जा रही है। कितनों को खाक़ कर गयी ? न जाने कितने कतार में हैं ?
इंसान होकर' इंसानी धर्म 'निभाया नहीं गया। क्या इनसे अल्लाह ने कहा था -उन बंदों को मार दो ! हँसते -खेलते जीवन उजाड़ दो ! क्या उससे हँसते -खेलते इंसान, देखे नहीं जाते ?क्यों उसे बदनाम करते हो ? वो तो बेहद' पाक़' है ,तब वह ऐसे कार्य कैसे करवा सकता है ? वो रूहें जब उससे मिलेंगी ,उसकी नजरें शर्म से झुक जाएँगी , जब उससे सवाल करेंगी -तेरे ही नाम से, कुछ लोगों ने कहर ढाया है ,क्या उन पर तेरा ही साया है ?
नाम तेरा ले ,करते बदनाम तुझको , ईमान -धर्म की परिभाषा जानते नहीं ,अपने स्वार्थ में करते बदनाम तुझको। यदि तुझमें सत है ,तो क्यों तुझे स्व के अस्तित्व की चिंता है ?
कर दिया ,इंसानों ने बदनाम मुझको ,मैंने तो सबको एक जैसा ही बनाया था ,कभी ख़ुदा ,कभी भगवान ,कभी यीशु में, इन इंसानों ने ही बाँट दिया मुझको। मैंने एक से एक कलाकार बनाये ,जो रूह को जगा दे ,ऐसे दिए, संगीतकार तुझको ,पल -पल सोये इंसान को जगाते रहें ,ख़ुद को खुद से मिलाते रहें ,ऐसे शायर ,कवि जो आत्मबोध कराते रहें। 'समाज सेवा' तो वे भी कर रहे हैं ,फिर न जाने क्यों ''हथियारबंद'' मुझे छल रहे हैं ? उन्हें स्वयं ही नहीं पता, क्या कर रहे हैं ? कठपुतली बने ,शैतान के इशारों पर चल रहे हैं। जहाँ भगवान वहां शैतान भी है ,मेरा नाम लेकर मुझे बदनाम कर रहे हैं।
जब तक जीवन है ,तभी तक इंसान धर्म ,मज़हब की लड़ाइयों से जूझता रहता है। इंसान चले जाते हैं ,ये जमीं भी वहीं है ,आसमान भी वहीं है ,जम्मू -कश्मीर भी वहीं है। इतने बादशाह आये और चले गए ,पीर -फक़ीर आये, वे भी चले गए। यह प्रकृति यही तो सिखला रही है। जीते जी कर लो ,कुछ भी,जाते वक़्त मुझमें ही समा जाओगे ,किसने, कितना खोया ,कितना पाया ? कहानियां छोड़ जाओगे।
बादशाह आये , कोई मुझको बतलाये तो सही ,कितना जम्मू अथवा कश्मीर ले गए ? मरते वक़्त, पता भी नहीं चलता मौत गोली से होगी ,या बमबारी से अथवा जल में या थल में ,या फिर बर्फ़ में दबे रह जाना है और लाश बन जाना है।
बदला -भाई का भाई से ,खून का बदला खून ,वही ख़ून यानि रक्त खौल उठता है ,जब किसी परिवार का एक बच्चा ,बेटा ,भाई ,पति उसकी आँखों के सामने गोलियों से छलनी कर दिया जाता है। तब कैसे कोई इंसानियत निबाहे ? जिसके कलेजे का टुकड़ा गया ,बुढ़ापे का सहारा गया ,मांग का सिंदूर मिट गया। कभी सोचा है ,वो तो गया ,पीछे न जाने ,कितने रिश्ते रोते -बिलखते छोड़ गया ? वो तो जीते जी उन रिश्तों को मार गया।हर रिश्ता तिल -तिलकर मरता है। गलती किसकी ?विश्वास की या उन वहशी दरिंदों की जिन्हे सिर्फ इंसान नहीं समझा जाता ,बल्कि उनके मन -मस्तिष्क में पहले से ही बारूद भर दिया जाता है। उन्हें घृणा ,आतंक की घुट्टी घोलकर पिलाई जाती है ,उन्हें शिक्षित नहीं किया जाता उनकी गरीबी ,लाचारी का लाभ उठा उन्हें मजबूर किया जाता है, दुश्मनी पालने के लिए ! हैवान तो वो हैं ,जो धर्म -मज़हब की आड़ में ,शतरंज की चालें चल रहे हैं।
क्यों, वे इतने मजबूर हो जाते हैं ? वे उन बंदूकों का रुख़ उनकी तरफ ही क्यों नहीं कर देते जो इतनी नफ़रत फैलाते हैं। मारने वाले का क्या तनिक भी हाथ कांपता नहीं ,उसके सामने अपनी माँ और बहन का वो दुःख भरा मुख आता नहीं। गलती किसकी ,किसने क्या किया ? मरा वो इंसान जो सादगी से जिया। मरने वाले तो मोहब्बत की ख़ातिर भी मरते हैं ,सच्चा इंसान वही जो' इंसानियत' की ख़ातिर सर उठाकर जिया।
नोट -किसी भी लेख को पढ़कर चुपचाप बैठ जाना ,ये तो एक लेखक के परिश्रम उसके विचारों के प्रति अन्याय हुआ। कम से कम हम अपनी समीक्षाओं के माध्यम से उसका उत्साहवर्धन तो कर ही सकते हैं।