क्या आपने इस शीर्षक को देखा और पढ़ा ?आपको क्या लगता है ?ये प्रश्न मैंने आपसे क्यों पूछा और क्यों मेरे मन में ये प्रश्न आया ? आज के समय को देखते हैं ,तो हमारा देश उन्नति कर रहा है ,देश आगे बढ़ रहा है ,ये कितनी हर्ष की बात है ?किन्तु क्या कभी सोचा है ? हमने बहुत कुछ खो भी दिया है ,क्या कभी मन में ये प्रश्न आया ?सबसे पहले तो हमने अपने घर खो दिए। हवेली या महल तो नहीं थे किन्तु बड़े घर हुआ करते थे ,जिनमें प्यार भरे ,नोक -झोंक भरे रिश्ते हुआ करते थे। कम से कम दस -पंद्रह लोगों का परिवार होता था। जिसमें माता -पिता के अलावा ,दादा -दादी ,भाभी -भइया और बहनें होतीं थीं। छोटे -बड़े ताऊ -चाचा के कई बच्चे होते थे। कभी कोई दोस्त घर में आ जाये तो परिचय कराने में आनंद का एहसास होता था।
ये सिर्फ रिश्ते ही नहीं ,बड़े -छोटे का लिहाज़ और शर्म होती थी ,सम्मान होता था। घर में ही नहीं ,गांव का भी कोई डांट दे तो कभी पलटकर जबाब नहीं देते थे। वहां से भाग जाते थे। परिवार ज़्यादा बड़ा हो गया यदि अलग होना भी पड़ गया तो बराबर में ही घर बस जाता था जिसे अपने' कुनबे' का कहा जाता था। अलग होने पर भी एहसास होता था , ये परिवार भी हमारा ही है ,अपने ही लोग हैं ,सुख -दुःख में साथ खड़े दीखते थे।
ये बात तो रिश्तों की और परिवार की हो गयी ,अब खानपान पर आते हैं ,सादा भोजन ,दूध ,दही ,गुड़ ,शक्कर ,घर के भाजी -तरकारी ,ताज़ा साग ,गन्ना -गन्ने का रस ,जो जामुन आज ठेलों पर दिखतीं हैं ,सौ ग्राम ,पाव किलो खरीदते हैं। वो मुफ़्त में ही कितनी उठाकर खा लो ! घरों में चांदी -सोने के नहीं तो पीतल तो दिख ही जाता था किन्तु आज स्टील है ,मानती हूँ ,यह सेहत को नुकसान नहीं देता किन्तु खरीदते समय इसकी कीमत दिखलाई देती है ,बदलने या बेचने जाओ तो इसकी कीमत लोहे के बराबर भी नहीं ,शो की चीजें जो आ गयी हैं ,कांच के बर्तन ,महंगे खरीदों टूट गए तो कचरा !मिटटी के बर्तनों की तरह मिटटी !
हर घर में एक कई -कई गाय, भेंसे खड़ी होती थीं ,गरीब से गरीब भी अपने बच्चों के दूध के लिए एक गाय तो खरीद ही लेता था।कहते हैं -घर में गाय का होना शुभ माना जाता है किन्तु आज गाय वही पाल रहे हैं ,जो दूध व्यापार से जुड़े हैं वरना दूध थैलियों में फ्रिज में रखा दिखाई देता है और गाय कचरे में कुछ ढूंढती दिखाई दे जाती हैं।घर की औरतें घर संभालती ,बच्चों को संभालती ,बच्चे दादी -बाबा संग खेलते, रिश्तों को समझते आधी शिक्षा तो दादी -बाबा की कहानियों से ही मिल जाती थी ।
आज घर छोटे तो हो ही गए ,इतना ही नहीं, छोटे होने के साथ -साथ महंगे भी हो गए हैं जिनकी ज़िंदगी भर क़िस्त जाती रहती है।जमीनें बिकती जा रहीं हैं ,गांधीजी का बैंकों में राज चल रहा है। अभी तो दिखलाई दे जाते हैं ,आगे -आगे सब ऑनलाइन होगा तो ये भी नहीं दिखेंगे। पहले चांदी ,सोने ,तांबे ,अथवा पीतल के सिक्के चलते थे ,उनके बंद होने पर वे उपयोग में आ जाते थे किन्तु आज उस स्टील के सिक्के की कोई कीमत नहीं।
भरा -पूरा घर -परिवार होता था ,रिश्तों से, खुशियों से भरपूर ,कमी होने पर भी सम्पन्न थे ,इतनी आवश्यकताएं ही नहीं बढ़ा रखी थीं। कमरों को महकाने का अलग स्रे ,तन पर लगाने के लिए अलग ,आज घर छोटे होने के साथ -साथ दिल भी छोटे हो गए। एक बहन भी आ जाये तो रील बनती है ,बुआ आ गयी। जैसे वो इस घर की बेटी ही न हो। किसी रिश्तेदार की तरह मिलकर चले जाती है ,कब आई और चली भी गयी पता ही नहीं चलता हैं। बेटियां घर की रौनक आज दफ्तरों की रौनक बढ़ा रही हैं। घर सूने पड़े हैं ,रिश्तें ,रिश्ते नहीं धोखे लगते हैं। दूध -दही घर का नहीं ,जरूरत पर मंगवाया जाता है। गाय -भैंसों के स्थान पर आज महंगी से महंगी गाड़ियां खड़ी हैं ,जो अहंकार को बढ़ाने के सिवा कोई योगदान नहीं। यात्रा ही तो करनी है ,एक स्थान से दूसरे स्थान ही तो जाना है किन्तु करोड़ों की गाड़ी में जाना है।
रील बनाने के लिए ,किसी गरीब की सहायता करते नजर आएंगे ,न करें तो किसी रिश्तेदार की भी सहायता न करें ,जो जरूरतमंद है ,बल्कि उससे पूछना तो दूर उसका फोन भी न उठायें। पैसा दीखता है ,हाथ के मैल की तरह ,यदि ये हाथ में न हो ,तो आज आदमी की कोई कीमत नहीं ,अमीर से अमीर को सड़क पर आने में देर नहीं लगती ,आज कोई ऐसा सहारा साथ नहीं दीखता जो सर पर अथवा काँधे पर हाथ रखकर कहे -मैं हूँ ,न......
महंगे से महंगे फ्लैट में हैं ,गाड़ी है ,बच्चे अच्छे स्कूल में हैं किन्तु आज किसी पर विश्वास नहीं है ,यदि बच्चा पढ़ नहीं पाया ,सुरक्षित जीवन नहीं है। पास और साथ खड़े रिश्ते नहीं हैं। पैसा है ,शराब है ,कुछ अजनबी मतलबी रिश्ते हैं ,वे न जाने कब साथ छोड़ जाएँ ? इंसान न जाने किस गफ़लत की दुनिया में जी रहा है ?कुछ आधुनिक सामानों को अपनी उन्नति समझ रहा है। इसी ड़र में विवाह भी देर से कर रहा है ,उत्तरदायित्वों से भाग रहा है ,क्यों ?क्योंकि उसके काँधे पर किसी अपने का हाथ नहीं ,अकेला ही उलझनों से जूझ रहा है। न जाने कब कौन सा रिश्ता दगा दे जाये ?अविश्वास की कड़ियाँ जोड़ रहा है।इस फूट का कोई तो लाभ ले रहा है। लिखने को तो बहुत कुछ है ,थोड़े में ही समझने से भी क्या हो जायेगा ?जिसको जो करना है ,वो तो इस दुनिया में वही करके जायेगा किन्तु एक बार अवश्य सोचना क्या हम तब समृद्धशाली थे या अब !