कई दिनों से' केतन प्रसाद जी' परेशान थे, मन उदास रहता था, कुछ भी समझ नहीं आ रहा था उम्र बढ़ती जा रही है, बच्चे, अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो गए हैं। सोचा था- यही तो जीवन है, इसमें परेशान होने जैसा क्या है ? फिर सोचा था, कि बच्चों के विवाह हो जाएंगे पोते- पोतियों के साथ खेला करेंगे। समय कट ही जाएगा, एक नई उम्मीद और अभिलाषाओं के साथ'' केतन प्रसाद जी'' ने अपने बच्चों का विवाह भी कर दिया। बहुत सुंदर बहुएं भी आईं , बेटियां भी विवाह करके अपने-अपने घर चली गईं। कुछ दिन घर में बहुत रौनक सी रही फिर धीरे-धीरे, खुशियां सिमटने लगीं। इन खुशियों को पाने के लिए कमाना भी पड़ता है, पेट भरने के लिए आदमी को, घर से बाहर भी जाना पड़ता है। इसी तरह उनके बच्चे भी, अपनी- अपनी पत्नियों को लेकर अपनी नौकरी पर चले गए। बेटियां अपनी ससुराल में थीं।
घर फिर से सुना हो गया, हर कमरे में उनका बचपन, उनकी शिक्षा, उनकी बातें समाई हुई थीं , कभी-कभी कोई बातें याद आ जाती तो....... स्मरण करके पत्नी को बताते और मुस्कुराते। धीरे-धीरे अकेलापन बढ़ने लगा किंतु बेटे का फोन आया -पापा जी ! कुछ दिन के लिए मम्मी को भेज दीजिए !मधु गर्भ से है !
यह बात सुनकर' केतन प्रसाद जी' को बहुत खुशी हुई, दोनों पति-पत्नी ने विचार विमर्श किया और बेटे से बोले -अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है, तुम बहू को हमारे पास ही भेज दो ! वहां तुम्हारा दोगुना खर्चा भी हो जाएगा। यहां हम दोनों मिलकर उसको संभाल लेंगे। बेटे को भी यह उचित लगा , और उसने मधु को अपने मम्मी पापा के पास भेज दिया। फिर से मन में खुशियां भर गईं , घर के काम के साथ-साथ बहू और होने वाले बच्चे की जिम्मेदारियां का काम भी आ गया था। डॉक्टर के लिए समय के अनुसार, मधु ने एक सुंदर बच्चे को जन्म दिया। उस घर में किलकारियां गूंजने लगीं किंतु यह ज्यादा समय तक नहीं रहा है। ऋषि आकर मधु को ले गया। दोनों पति -पत्नी ठगे से रह गए, ऐसा लग रहा था जैसे कोई उनकी खुशियां छीन कर ले गया है, इसी तरह दूसरे बेटे के साथ भी हुआ।
मन तो दुखी होता था लेकिन अपने को समझा लेते थे-' यही तो जीवन है।' तब अपनी पत्नी से बोले -हम कब तक इस तरह परिश्रम करते रहेंगे ?हमारी भी उम्र हो गई है अब तो बच्चों के कार्य करने का समय है, हमें आराम करना चाहिए। छुट्टियों में बच्चे कभी -कभार दादी -बाबा से मिलने आ जाते, और कभी -कभार दादी -दादा भी उनके पास चले जाते। कभी-कभी बेटियां भी आ जाती थीं। समय जैसे पंख लगाकर उड़ गया। वे अपनी फलती -फूलती फुलवारी को देखकर खुश होते रहते, उम्र बढ़ती जा रही थी -धीरे-धीरे उन्हें बीमारियों ने घेर लिया।
बेटे और बेटी को ज्यादा समय नहीं मिलता था, सभी के बच्चे पढ़ने लगे थे और व्यस्त हो गए थे जब कभी भी'' केतन जी'' बच्चों से मिलने की इच्छा जारी करते। तब बच्चों का यही कहना होता। अभी बच्चों के इम्तिहान चल रहे हैं , कभी छुट्टी नहीं मिली।
निराश होकर केतन जी बोले -ये आना ही नहीं चाहते या अपने जीवन में इतने व्यस्त हो गए हैं। तब उन्हें अपने भूले दिनों के स्मरण हो आती। मैं भी तो अपने पिता से मिलने कहां जा पाता था ? आज एहसास हो रहा है कि उन्हें कैसा लगता होगा ? यह जीवन, सबको उसकी गलतियों का एहसास उसे कराता है। धीरे-धीरे केतन प्रसाद जी अपने को बहुत अकेला महसूस करने लगे। बीमारी बढ़ती जा रही थी।
तब उनकी पत्नी ने अपनी बेटियों को फोन किया, तुम्हारे पापा का मन नहीं लग रहा है वह बीमार हैं न जाने क्या-क्या सोचते रहते हैं ? कह रहे थे -'जब तक हाथ -पांव चल रहे थे सबको मेरी जरूरत थी ,अब सब अपने में सक्षम हो गए अब किसी को मेरी जरूरत नहीं है।
नेहा बोली -आप चिंता न करें मैं आती हूं।
उस दिन संयोग से'' केतन प्रसाद जी' को ज्वर भी हो गया था, निराशा से लेटे हुए थे तभी उनकी बेटी ने उनके कानों में धीमे स्वर में कहा -पापा ! मैं आ गई हूं, कहते हुए, उसने अपने पापा का हाथ पकड़ा और हल्के हाथों से उनके सिर पर हाथ फेरने लगी।
धीरे-धीरे उन्होंने अपनी आंखें खोली और जानना चाहा- कि कौन हो सकता है ? सामने उनकी बेटी का मुस्कुराता हुआ चेहरा था। उसे देखकर उसके चेहरे पर एक मुस्कान आई और बोले- तू आ गई तुझे समय मिल गया।
हाँ पापा !आपके लिए तो समय निकालना ही था।
हमारे लिए ,अब किसी के पास समय नहीं हैं ,हमारी किसी को आवश्यकता नहीं हैं ,अब तो शायद सभी को प्रतीक्षा होगी कि ये लोग बेवज़ह की ज़िम्मेदारी बने हुए हैं ,कब ये लोग जाएँ ?
नहीं पापा !ऐसा नहीं है ,हाँ हम थोड़ा व्यस्त जरूर हैं किन्तु आपका ख़्याल हमेशा रहता है ,फोन करके पूछ भी लेते हैं। आपको तो खुश होना चाहिए ,आपका इतना भरा -पूरा परिवार है। अपने में व्यस्त रहकर भी आप दोनों की फ़िक्र रहती है, जो आपके इर्द -गिर्द ही तो है। कभी -कभी हम जब शरीर से कमजोर हो जाते हैं ,तो नकारात्मक विचार आने लगते हैं। अब आप आराम कीजिये, कहते हुए नेहा ने अपने पापा के सिर पर हाथ फेरा, धीरे -धीरे उन्होंने आँखें मूँद ली ,शायद वे उस स्नेह पूर्ण उस स्पर्श को महसूस कर रहे थे। उन्हें शांति का एहसास हो रहा था ऐसा लग रहा था -जैसे उनकी माँ उनके सिर को सहला रही है। बेटी के शब्दों ने अपना जादू दिखाया और वो सो गए। नेहा का वो स्पर्श अपनत्व का वो भाव दे गया जिसकी उन्हें चाहत थी। नेहा तब तक वहीं रही, जब तक पापा ठीक नहीं हो गए।
ठीक होते ही बोले -तू यहाँ कब तक रहेगी ?वहां दामाद जी और बच्चों को परेशानी हो रही होगी।
पापा ! मैं आपके लिए ही तो यहां आई हूँ ,नेहा ने जबाब दिया।
क्यों ?मुझे क्या हुआ है ?मैं कोई बच्चा हूँ ,तू जा !अब मैं बिल्कुल ठीक हूँ।मैं अपना ख़्याल स्वयं रख सकता हूँ।
अब आप वायदा कीजिये अब ऐसी नकारात्मक सोच अपने मन में कभी नहीं लाएँगे।
ठीक है ,अब तू जा.... मैं यहां सब संभाल लूंगा, मुस्कुराते हुए उन्होंने अपनी बेटी को विदा किया।
यही तो सच्चे और अच्छे रिश्ते होते हैं ,जो एक -दूसरे के सुख -दुःख का ख्याल रखते हैं।एक -दूसरे की परेशानियों को समझते भी हैं और जीवनभर यादों के रूप में स्पर्श करते रहते हैं।