ठाकुर अमर प्रताप सिंह जी ,अपने बेटों की हरकतों से बड़े ही परेशान थे ,उनका मन अब इस गांव में नहीं लग रहा था ,सब कुछ होते हुए भी ,दिल में एक दर्द आकर बस गया है। चार-चार बेटों के होने के पश्चात भी ,उनके ह्रदय में कोई ख़ुशी नहीं थी। इस दुःख को कम करने के लिए कुछ दिनों के लिए वो शहर जाना चाहते हैं ,उनका एक होटल शहर में भी है ,अक्सर वो वहां आकर रुकते हैं। होटल की खिड़की से बाहर के नजारे देखना उन्हें अच्छा लगता है सड़क की तरफ से आती -जाती गाड़ियां ऊंचाई से छोटे खिलौने जैसी सड़क पर रेंगती नजर आतीं ,उन्हें देर तक इसी तरह देखते रहते और न जाने किस दुनिया में खो जाते ? दूसरी तरफ दूर -दूर तक हरियाली दिखलाई देती ,कुछ कमरों में ,एकदम शांति का एहसास होता ,बस उसी शांति में रहने के लिए ,आज वो वहां आकर टिक जाते हैं। शाम के समय,होटल के बग़ीचे में ही टहलने जाते हैं।
अरे ,अमर सिंह जी! आप यहां कैसे ? अमर सिंह जी उस व्यक्ति को ध्यान से देखते हैं, और पहचानने का प्रयास करते हैं। उनके सामने सभ्य भाषा में कहें ,तो एक तंदुरुस्त सा या फिर एक बड़ी सी तोंद लिए मोटा व्यक्ति खड़ा था। उसके गले में सोने की मोटी चेन थी, सिर पर पगड़ी थी और लम्बी सी जैकेट पहन रखी थी हावभाव और पहनावे से किसी अमीर ख़ानदान से लग रहा है। अमर सिंह जी को अपनी तरफ देखते हुए, देख कर उस व्यक्ति ने कहा -क्या आपने मुझे पहचाना नहीं , अरे यार !मैं ''श्यामलाल ''आपका मित्र ,' मघौनी 'की जमीन के सिलसिले में हमारी मुलाकात हुई थी। वहीं पर हमारी दोस्ती हुई थी, अपने दोस्त को इतनी जल्दी भूल गए।
ओ हो !श्यामलाल !तुम हो ,बहुत दिनों पश्चात मिले हो ,पहचान में नहीं आ रहे हो ,क्या बात है ?तोंद वग़ैरह !कहते हुए हंसने लगे।
हाँ ,यही तो हम रईसों की शान है ,हम तो खाते -पीते घर के हैं किन्तु तुम आज भी वैसे के वैसे ही...... अमर सिंह के पेट की तरफ देखते हुए।
तुम्हारा कहने का अर्थ है ,क्या हम खाते -पीते नहीं ?किन्तु हम दिखाते नहीं कहते हुए अपने हाथ की छड़ी से उनकी तोंद की तरफ इशारा किया ,जिसे दोस्त पहचान भी न सकें कहते हुए हंसने लगे।
अब घर भी चलोगे या फिर यहीं पर सारी बातें कर लोगे,तुम यहां इस होटल में कैसे ?
अमर सिंह जी, श्याम लाल को बता देना चाहते थे कि यह होटल मेरा ही है किंतु कहते-कहते रुक गए , और बोले- किसी कार्य से यहां आया था और इसी होटल में ठहरा हूँ।
अपने दोस्त के होते हुए होटल में क्यों ठहरता है ? मेरे घर आ जाते।
तूने मुझे, अपना कोई अता-पता फोन नंबर कुछ दिया था , मुझे कैसे पता होगा? कि मेरा दोस्त श्यामलाल कहां रहता है ?
अब मेरे साथ चल ! और तुझे अब से ,मेरे घर पर ही ठहरना होगा, कितने दिनों पश्चात मिले हैं ? तुझे तो एक बार भी मेरी याद नहीं आई होगी और बता परिवार में सब लोग कैसे हैं ? बच्चे, भाभी जी !
सब ठीक है, चार बेटे हैं और सुनैना भी बहुत खुश है और ठीक है।
भाभी जी को साथ लेकर नहीं आया।
वह तो ज्यादातर, घर- परिवार में ही उलझी रहती है , इधर-उधर जाने का समय नहीं , घर में इतने नौकर हैं, बेटे हैं, बस सारा दिन, उनमें ही उलझी रहती है। वह गाड़ी से बाहर आए थे उन्हें चलते हुए अभी 10 मिनट ही हुए होंगे, तभी श्यामलाल बोला -लोग घर आ गया।
अरे तुम तो नजदीक ही रहती हो , होटल में किस लिए आए थे ?
किसी व्यापारी से बात करनी, कारोबार के सिलसिले में आया था।
और तुम सुनाओ ! बच्चे और भाभी जी कैसी है ?
मेरी तो, एक ही बेटी है , वह विदेश में पड़ रही है , फिलहाल यही पर आई हुई है। और हमारी श्रीमती जी एक समाज सेविका हैं।
बेटी के विवाह के लिए कुछ होता है या नहीं ,
हाँ ,उसके लिए लड़का ढूंढ रहे हैं, ठीक सा लड़का मिलते ही तुरंत उठने विवाह कर देंगे। तब तक बोलो कोठी में पहुंच चुके थे।
बड़ी शानदार कोठी बनाई है, अंदर पहुंचकर से देखते हुए बोले।
तुम्हारी हवेली के मुकाबले तो, कम ही है। मेहमानों के कमरे में बैठकर, बातें करने लगते हैं तभी, श्यामलाल जी का नौकर उनके लिए पानी लेकर आता है।तब वे उससे बोले - कृष्णा ! जरा अपनी मालकिन को तो भेजो !कहना हमारे दोस्त ठाकुर अमर प्रताप जी आये हैं। उनकी बात सुनकर कृष्णा चला जाता है।कुछ देर पश्चात ,बनारसी सिल्क की बैंगनी साडी में ,गहनों से लदी,आकर्षक केश सज्जा देखकर ही लग रहा था कि किसी,अमीर और सभ्य परिवार की महिला हैं ,उन्होंने आते ही हाथ जोड़कर नमस्कार किया और श्यामलाल जी के करीब सोफे पर आकर बैठ गयी। तब श्यामलाल जी ,उनसे परिचय कराते हैं -शकुंतला ! आप हमारे मित्र और अतिथि हैं ,ठाकुर अमर प्रताप जी ! ''बीजापुर'' के बहुत बड़े जमींदार हैं। हमारी मघौनी की जो जमीन है ,वो हमने इनसे ही खरीदी है ,उस गांव में भी इनकी जमींदारी थी।मुस्कुराकर शकुंतला देवी ने एक बार फिर से अपनी गर्दन हिलाई ,अमर प्रताप जी समझ नहीं पाए ,ये हमारे सम्मान में गर्दन हिलाई है या परिचय पाकर एक बार फिर से अभिवादन किया है।
श्यामलाल जी यहीं नहीं रुके और बोले -ये हमारी अर्धांगनी शकुंतला जी हैं ,राजे -रजवाड़े के ख़ानदान से हैं।
इनकी शालीनता ,रहन -सहन ,इनके व्यवहार से ,वो तो दिख ही रहा है कि किसी अच्छे ख़ानदान से हैं , कृष्णा आता है और कहता है -नाश्ता मेज पर लगा दिया है। सभी एक साथ उठकर दूसरे कमरे की तरफ बढ़ते हैं।
नाश्ते की मेज पर बैठे ही थे ,तभी बाहर से किसी के आने की आहट उन्हें सुनाई दी ,एक परछाई करीब आई और वापस चली गयी। अमर सिंह जी ने श्यामलाल जी की तरफ प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा। तब शकुंतला जी उठी और बोलीं -मैं देखती हूँ, कहकर वो बाहर चली गईं।
तब चाय पीते हुए श्यामलाल जी बोले -अब तो तुम्हारे बच्चे बड़े हो गए होंगे ,मेरा मतलब विवाह योग्य हो गए होंगे , किसी का विवाह तय हुआ।
श्यामलाल की बात सुनकर ,अमर सिंह जी उदास हो गए।
[ जीवन में अनेक परेशानियां लगीं हैं ,और व्यक्ति उनसे जितना दूर जाना चाहता है ,वे उतनी ही क़रीब नज़र आती हैं।