रात्रि के अंधेरे में, एक बहुत बड़ी हवेली ! जिसमें कुछ लोग, रहते हैं। उस हवेली में, अक्सर कभी किसी की चीख सुनाई भी दे जाती है, तो वह भी,उस हवेली की मजबूत दीवारों को लाँघ नहीं पाती। उस हवेली की दीवारों में ही दबकर रह जाती है। उस हवेली में, नौकरों के अलावा बाहर के लोग कम ही आते - जाते हैं। उस हवेली में रहने वाले लोग भी, उस गांव के लोगों से ,संबंध कम ही रखते हैं। इस हवेली के नौकर भी, हवेली की बात बाहर, किसी को नहीं बताते किसी ने' मुँह खोलने' का प्रयास किया भी ,तो वो जिन्दा नहीं बचा। कुछ नौकर तो,उसी हवेली में ही स्थायी रूप से रहते हैं। ऐसा लगता है ,जैसे - उनके मुंह सिल दिए गए हैं या फिर वे इस परिवार के इतने वफादार हैं कि वहां क्या हो रहा है ?देख और समझकर भी,कुछ देखते नहीं,जबान तो जैसे है ही नहीं। एक अनजाने ड़र ने शायद उनकी जबान छीन ली है। इस हवेली के विषय में इस गांव के लोगों को, किसी को कुछ पता नहीं चलता।
हवेली के बड़े से आंगन में,आठ -दस आदमी खड़े हैं ,उनके मध्य'' शिखा'' एक लाश के रूप में पड़ी है।बाहर बादल गरज़ रहे हैं ,घनघोर अँधेरा है,हल्की बारिश हो रही है ,उस अँधेरे में बिजली की चमक से उसके चेहरे को देखा जा सकता था। उसका दुबला शरीर देखकर लग रहा था ,जैसे वो बहुत दिनों से बीमार थी ,उसका कमज़ोर तन काला पड़ चुका था ,देखकर ही लग रहा था उसके तन में रक्त की एक भी बून्द नहीं है। ऐसा उसके साथ क्या हुआ ?क्या वो इंसानों में रह रही थी ,या पिशाचों में, जिन्होंने उसका खून चूस लिया।
तभी उस स्त्री का स्वर उभरा और बोली - तुम्हारे पापों के कारण, यह बिजली नहीं कड़क रही बल्कि उस परमात्मा का क्रोध तुम्हें सुनाई दे रहा है, हर पापी का अंत होता है ,व्यथित हो, अधेड़ उम्र महिला उन्हें कोसती है।
यहाँ खड़ी हमें कोसती रहोगी ,अब इसका क्या करना है ?पहले ये तो बताओ !
तुमने इस नन्हीं सी जान की एक वर्ष में ही, क्या हालत बना दी ?इसका मरना तो तय था ,जब तक यह जिन्दा थी कम से कम तुम्हारे कुकर्म तो छुपे हुये थे। वह बिलख उठी और बोली -यदि अपने पाप छुपाना चाहते हो तो अभी के अभी इसे शमशान लेजाकर इसके तन को अग्नि देकर इसकी आत्मा को शांति दे दो !
मैं अभी धनीराम को बुलाता हूँ ,उनमें से एक ने कहा।
तू मूर्ख है ,क्या ? किसी को भी पता नहीं चलना चाहिए। हम अपने आप ही इसका ''दाह संस्कार'' करेंगे उन खड़े व्यक्तियों में से एक ने कहा -आखिर हम भी तो इसके पति जैसे ही हैं ,जब उसने ऐसा कहा, तो उसके चेहरे पर एक मुस्कान आई और अन्य सभी भी मुस्कुरा दिए।
माँ !तुम बताओ ! अब हमें क्या करना है ? पास खड़ी अधेड़ उम्र महिला'' दमयंती उस लड़के की माँ थी। अपने बेटे की बात सुनकर बोली -जैसा मैं कहती हूँ ,करते जाओ !और सवेरा होने से पहले ,इसका ''दाह संस्कार ''कर आओ ! सभी, किसी पुतले की तरह चुपचाप अपने कार्यों में जुट जाते हैं क्योंकि इस अँधेरे में वे सभी हरकतें करते हुए किसी पुतले की तरह ही दिखलाई दे रहे थे। लालटेन की रौशनी भी हवा के कारण बहुत ही धीमी थी वरना तेज रौशनी करने पर बुझ ही जाती।
यह महिला इस हवेली की मालकिन,' दमयंती जी' हैं और यह हवेली'' ठाकुर अमर प्रताप सिंह जी ''की है। ठाकुर साहब !बड़े ही रहमदिल ,बहादुर ,बुद्धिमान ,इंसान थे। उनके पूर्वज इस बीजापुर [काल्पनिक ]गांव के और अन्य आस -पास के दस गांवों के जमींदार रहे हैं किन्तु अब उनके पास ले देकर सिर्फ एक ही गांव रह गया था। उनके रहन -सहन और उनके रुतबे को जिन्होंने भी देखा या सुना आज भी सम्मान से सिर झुकाते हैं ।
ठाकुर अमर प्रताप सिंह जी के चार बेटे थे - जगत सिंह, हरिराम, बलवंत सिंह, और ज्वाला सिंह ! इन चारों की मां ''सुनयना देवी ''कहने को तो बहुत ही दयालु ,सुंदर ,होने के साथ -साथ नियमों और अनुशासन से रहने वाली महिला थी। थोड़ी पढ़ी -लिखी भी थी ,उन्हें पढ़ाने के लिए ,मास्साब्ब !घर पर ही आया करते थे। उनकी शिक्षा के कारण ही तो ठाकुर साहब ! से उनका विवाह हुआ ताकि घर के हिसाब -किताब में कोई परेशानी न आये। सुनयना देवी अपने बच्चों को अच्छे नागरिक बनाना चाहती थीं ताकि उनके ख़ानदान का नाम इसी तरह लोग स्मरण करें जैसे आज भी करते हैं। अमर प्रताप जी चाहते थे ,अब जमींदारी नहीं रही किन्तु जितनी भी सम्पत्ति है ,उनके बेटे धीरे -धीरे संभाल लें किन्तु दोनों बड़े एक नंबर के लापरवाह और एय्याश क़िस्म के थे। तीसरे नंबर के बलवंत सिंह पहलवान थे, उन्हें कुश्ती का शौक था ,उनका अधिकतर समय अखाड़े में ही बीतता था उन्होंने आजीवन विवाह न करने का प्रण लिया था।
जगत सिंह और हरिराम ने , माता-पिता के कहने पर, उनकी इच्छा के अनुसार पढ़ाई तो की किंतु उनकी हरकतों के कारण, उन्हें कॉलेज में दाखिला नहीं मिला। हमेशा अपनी ही अकड़ में रहते थे , अपने पैसे और रुतबे का उन्हें बहुत अहंकार था। जब दोनों विवाह के लायक हुए , तब तक उनकी बहुत बदनामी हो चुकी थी किंतु अमर प्रताप सिंह के व्यवहार के कारण मुंह पर कोई, कुछ नहीं बोलता था। इसी कारण किसी के भी घर से उनके रिश्ते भी नहीं आए, कोई उन्हें अपनी बेटी देना ही नहीं चाहता था। अमर प्रताप सिंह जी को इस बात का बहुत ही दुख था कि जितना मैं और मेरे परिवार ने नाम कमाया है उतनी ही, इन दोनों ने, बदनामी करवाई है। वे जानते थे, कि मुंह पर कोई नहीं कहता किंतु किसी के भी मन में, उनके परिवार के लिए, अब कोई सम्मान नहीं रहा,कोई भी उनके परिवार में अपनी बेटी नहीं देना चाहता ,इसी दुख में वह एक बार शहर आए थे। सोचा तो यही था कि शहर में जाकर, थोड़ा मन बदल जाएगा। हुआ भी ऐसा ही, शहर में उनका कोई अपना तो नहीं था किंतु उनका एक बहुत पुराना मित्र'' श्यामलाल'' मिल गया जिससे मिलकर वह बहुत खुश हुए।