''स्व अवलोकन'', स्वयं का अवलोकन कैसे किया जा सकता है ? क्या आईने में अपने आपको निहारकर, प्रकृति की तरह ही, इंसान की प्रकृति भी परिवर्तनशील है। समय और परिस्थितियों के आधार पर, मनुष्य की प्रवृत्ति भी परिवर्तित होती रहती है। कई बार स्वार्थ के वशीभूत होकर, मनुष्य के स्वभाव में स्वतः ही परिवर्तन आ जाता है। सबसे पहले वह स्वयं के लिए सोचता है, तब दूसरे की भलाई का सोचता है। मनुष्य का जीवन देखा जाए तो, काफी लंबा जीवन है। जो न जाने कब घटता जाता है ? क्योंकि इंसान अपने स्वार्थ अपने कर्मों में इतना लिप्त रहता है। उसे अपने इस जीवन का पता ही नहीं चलता, कब चला गया ?कभी -कभी तो लगता है -'सालों की दूरियां ,पल में ही बीत गयीं ,तो कभी लगता है ,एक -एक पल वर्षों में बीत रहा है। ये बात भी हम पर ही निर्भर करती है ,जब हम व्यस्त होते हैं तो समय का भान ही नहीं रहता और जब खाली होते हैं ,काटे नहीं कटता।
यदि किसी भी इंसान को अपने आपका अवलोकन करने के लिए कहा जाए , तो वह अपने को अच्छा ही बताएगा। यदि कोई गलती का अहसास कराता भी है ,तो वह कहेगा -'कि जो कार्य मैंने किए हैं, वह सब परिस्थिति वश या फिर भूलवश किए हैं ,गलती तो हुई है। यदि वह अपने जीवन को सुधार भी लेता है, तो क्या उसने जिन लोगों का दिल दुखाया है ? उनके हृदय में मरहम लगा सकता है , जो घाव उसने दिए हैं वह समय के साथ दिखलाई तो नहीं देंगे किंतु कभी न कभी उभर ही आते हैं। ऐसे में यदि मनुष्य अपना चरित्र या स्वभाव बदल भी लेता है, और जिन लोगों का उससे पहले पाला पड़ चुका है ,वह तो यही कहेंगे-''सो चूहे खाकर बिल्ली हज को चली। '' आईने में कभी-कभी अपने को देखा है, वह पहले कैसा था? अब कैसा हो गया है ? पहले बच्चा था जवान हो गया जवान के बाद अधेड़ ,अधेड़ के पश्चात वृद्धावस्था ! आईना उसे उसकी उम्र तो दिखला सकता है किंतु उसके हृदय में हो रहे परिवर्तन को, तो वह स्वयं अपने मन के आईने से देखेगा तो उसे मालूम होगा कि उसमें कितना परिवर्तन आया है ?
यह परिवर्तन है भी, यह समय के अनुसार परिवर्तित हुआ है। यदि पहले जैसे ही परिस्थितिया हो जाएं , तो क्या उसके हृदय में परिवर्तन नहीं होगा ,क्या वह परिवर्तन स्थिर रहेगा ? इसकी क्या गारंटी है ? क्योंकि इंसान की एक प्रकृति होती है। इंसान उदार स्वभाव का हो सकता है, प्रेमी जन हो सकता है, दयालु भी हो सकता है किंतु जो व्यक्ति क्रूर रहा है, जिसके मन में इंसानियत नहीं है, दया नहीं है और अचानक ही उसकी प्रकृति बदल जाती है। तो क्या वह सच में , सुधर गया है ? कुछ लोग अपने संपूर्ण जीवन में ऐशो - आराम और मौज की जिंदगी जीते हैं किंतु जब वृद्धावस्था आती है, तब वह अपने को बेबस पाते हैं , और तब उन्हें ज्ञान का अनुभव होता है, बलात ही, ज्ञान का चोला ओढ़ लेते हैं जबकि यह उनकी प्रकृति नहीं है, किंतु यह परिवर्तन उनमें परिस्थितिवश आया है।
यदि स्थिति उनके अनुकूल हो जाए, तो उनकी प्रकृति पुनः जागरूक होगी। तब भी, उनके व्यवहार में कोई न कोई बात ऐसी आ ही जाती है जो उनकी हृदय हीनता का परिचय देती है। ऐसे में यदि किसी से कहा जाए, कि तुम्हारे जीवन में, क्या परिवर्तन हुआ है ? क्या बदलाव आए हैं ? तो संपूर्ण जीवन का, उसके सामने आकर खड़ा हो जाता है ,उसके सामने घटनाएं चलचित्र की तरह घूमने लगती हैं । स्वयं का अवलोकन करता है, हां उससे कुछ गलतियां तो हुई है किंतु उसके कारण जिन लोगों को हानि हुई है , क्या कभी उन लोगों से, उसने उतने ही खुले दिल से अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगी।
मुंह से क्षमा मांगना एक अलग बात है, और हृदय से क्षमा मांगना, यानी कि दोबारा इस तरह की गलती नहीं होगी। उस बात को वह दिल से महसूस करता है। तब यह बात उस दूसरे व्यक्ति पर निर्भर करती है कि वह उसे क्षमा करता है या नहीं, लेकिन कुछ लोगों की आदत होती है। वे तुरंत ही क्षमा मांग लेते हैं किंतु समय आने पर अपनी बात से मुकर जाते हैं , वह भूल जाते हैं कि कभी ऐसा भी हुआ था क्योंकि यह उनकी प्रकृति ही नहीं थी. वह तो कुछ दिनों के लिए या कुछ पलों के लिए, अच्छे बनने का लबादा ओढ़ा था, जो हवा के झोंके से, उड़ गया।
स्व अवलोकन करना इतना आसान नहीं है, कई बार इंसान सुधर भी जाता है किंतु सुधरने का प्रयास करते-करते वह समय निकल जाता है। सच में ही हृदय से यदि कोई बदलना चाहता है, तो उसे स्वयं के अवलोकन की आवश्यकता ही नहीं है , बल्कि लोग स्वयं ही, उसकी प्रशंसा करने के लिए मजबूर हो जाएंगे। तब उसे एहसास होगा कि हां उसमें परिवर्तन आया है। कह देने से, या लिख लेने से परिवर्तन नहीं होते। कुछ लोग, कह देते हैं -'मौन रहना चाहिए। तब मान लीजिए किसी के साथ गलत हो रहा है, अन्याय हो रहा है तब भी आप चुप हैं, सही का साथ नहीं दे रहे हैं , तो क्या यह बदलाव है ? इसका हल सिर्फ मौन रहना ही है। यदि कोई इंसान गलत को गलत और सही को सही नहीं कहता है , तो यह कैसा बदलाव हुआ ? इंसान सामाजिक प्राणी है, समाज में रहेगा तो समाज के लोगों से जुड़कर भी रहेगा। ऐसे में गलत को देखकर आंख मूंद लेना भी, तो सही नहीं है।
इंसान दूसरों की परख क्या करेगा ? जबकि वह स्वयं ही नहीं जानता, कि किस परिस्थिति में उसके मन में क्या परिवर्तन आता है ? बिना स्वार्थ के कार्य करना, आगे बढ़ना, सही का साथ देना ,यह हर किसी के वश में नहीं है किंतु इंसान इतना तो कर ही सकता है यदि उससे कुछ गलतियां हुई हैं, और वह बदलना चाहता है तो दिखाने के लिए ना बदले ! हृदय से गलतियों को स्वीकार कर, जो सामने है, उसे स्वीकार करें ! हो सके तो....... उन गलतियों को सुधारने का प्रयास करे हालाँकि''गया वक़्त लौटकर नहीं आता''किन्तु भविष्य में हुई गलतियों को न दोहराये ,यही'' स्व अवलोकन '' है।