'जगत' और' दमयंती'आज उसी कमरे में, एक बार फिर आमने-सामने थे, जिसमें एक माह पहले उनकी' सुहागरात 'मनी थी।आज भी वे एक दूसरे से बातें कर रहे हैं , एक- दूसरे को समझने का प्रयास कर रहे हैं किन्तु उतने ही अज़नबी हैं ,जितने पहले थे। अभी वो यही नहीं समझ पा रहे थे, क्या सही है और क्या गलत है ? दमयंती तो जैसे दौराहे पर आकर खड़ी हो गई थी, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें ? उस दिन केक भेजने वाले के प्रति उसके मन में, उस होटल वाली घटना के कारण, कुछ भाव आए थे, क्या वे' जगत' के लिए होने चाहिए थे ? किंतु मैंने तो सर्वप्रथम 'ज्वाला' को ही देखा था, यह कैसी विडंबना है ? दोनों एक हैं, एक ही परिवार से हैं, किंतु दोनों को ही तो नहीं अपना सकती।
वह बिस्तर से उठकर, खिड़की के पास जा खड़ी हुई, और उस चांद को फिर से देखने लगी, जो धीरे -धीरे अपनी दिशा की ओर बढ़ रहा था ,वो जानता है, उसे किससे मिलने जाना है ?उसे अपने गंतव्य का मालूम है। दमयंती की रात्रि भी धीरे -धीरे सरक रही है किन्तु वो अभी भटकी हुई ,उस दिशा की तलाश में है।
'चाँद 'सब पर अपना बराबर प्रकाश डाल रहा है , इसके मन में किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है, इसके लिए सब एक समान हैं ,तभी पीछे से आकर जगत बोले।
हम्म्म, किन्तु मैं चाँद नहीं ,गहरी स्वांस लेते हुए दमयंती बोली।
'चाँद' से कम भी नहीं ,अपनी ही उलझनों में उलझी ,तुम अपनी चमक खो रही हो,तुम्हें रौशनी की तलाश है।
तब वह अचानक बोल उठी -हो सकता है , यदि 'ज्वाला' से पहले आप मिल गए होते, तो शायद यह भावनाएं आपके लिए होतीं।
तुम ज्वाला से मिली ही कितनी बार हो ? तड़पकर वो बोल उठे। बस एक ही मुलाकात में तुमने,उसे अपनी संपूर्ण जिंदगी सौंप दी।
सौंपना तो चाहती थी, धीमे से स्वर में बुदबुदाई -किंतु उन्होंने स्वीकार नहीं किया,आँखें नम हुईं ,उसके अधरों में कंपन था,उसकी स्वांसों में सिसकी सी थी।
क्या, कुछ कह रही हो, या कहना चाहती हो।
नहीं ,क्या कहूंगी,जब मैं स्वयं को ही नहीं समझा पा रही हूँ।
ज़िंदगी इतनी मुश्किल भी नहीं ,जितना कठिन तुमने इसे बना दिया है ,या बना रही हो। बदलते हालातों के साथ बदलना सीखो ! नदी को जब आगे बढ़ना होता है ,तो स्वयं ही रास्ता तलाश लेती है ,कभी कंकड़ -पत्थर से होकर गुजरती है ,तो कभी समतल में भी बहती है ,वो बहना नहीं छोड़ती। तुम्हें बहना है ,हमारे लिए, इस घर -परिवार के लिए ,सब धीरे -धीरे आसान होता चला जायेगा। उस चांद को देख रही हो, वो भी तो अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहा है ,हो सकता है ,राह में बादल उसका रास्ता रोक लें। वो कुछ पल या देर के लिए बादलों में छुप तो सकता है किन्तु अपनी राह नहीं बदलेगा। तुम्हें भी तो अपनी मंजिल तय करनी है।
वो मंज़िल क्या है ? वही तो समझ नहीं आ रहा है।
कुछ राहें हम चुनते हैं ,कुछ राहें, हमें चुन लेती हैं ,जिन्हें हम चुनते हैं वे राहें और उनकी उलझनें दिखलाई देती हैं किन्तु जो राहें हमें चुनती हैं ,तब उसे हम क़िस्मत का चमत्कार भी कह देते हैं ,या फिर मजबूरी !ये चाँद भी तो दो दिशाओं के मध्य घूमता रहता है ,अपनी प्रेमिकाओं से मिलता है ,रात्रि से पहले संध्या से !
और दूसरी कौन ?जगत की बातों में दिलचस्पी लेते हुए दमयंती ने पूछा।
प्रातः की भोर से पहले उसी का रूप जो अत्यंत सुहावना लगता है ,मनोरम दृश्य लेकर आता है ,''ब्रह्म मुहूर्त ''संध्या'' काली अंधियारी रात्रि लेकर आती है किन्तु तीसरा पहर 'भोर की उजास' लेकर आता है ,जो जीवन में खुशहाली ,उमंगें भरता है।एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
आप कहना क्या चाहते हैं ?आपके आधार पर' संध्या 'बुरी है।
नहीं ,वो भी सुकून भरा आराम देती है , अपना आँचल फैलाकर , दिनभर के थके इंसान को आराम और सुकून से अपनी गोद में सुला, दिनभर के लिए तैयार करती है। अपनी -अपनी जगह दोनों का ही अपना -अपना महत्व है।दमयंती लगातार चाँद को देखे जा रही थी। अब क्या चाँद का मन टटोलने का प्रयास कर रही हो, वो किसका है ?मुस्कुराते हुए जगत ने पूछा।
वह तो सबके लिए समान है।
क्या मैं और 'ज्वाला' समान नहीं हो सकते ?
यह आप, कैसी बातें कर रहे हैं ?
यह तो हमारे विचार हैं, जो हमारे अंदर भिन्नता पैदा करते हैं , प्यार की दृष्टि से देखोगी तो सब समान नजर आएगा जो प्यार ,अपनापन , तुम्हें उससे मिलेगा, मुझसे भी वही मिलेगा। बस तुम्हारा दृष्टिकोण बदलना चाहिए।
मैं क्या कर सकती हूं ? परेशान होते हुए, दमयंती जगत के पास आकर खड़ी हो गई और बोली -आप में और उन में अंतर है।
कोई अंतर नहीं है, दृष्टिकोण का ही अंतर है ,वही स्पर्श तुम्हें यहां भी महसूस होगा, कहते हुए जगत ने दमयंती का हाथ पकड़ लिया। क्या पहली रात तुम्हें पता चला था ? कि ज्वाला है या जगत ! तुमने क्या महसूस किया था ? वही प्यार, वही अपनापन, किंतु प्रकाश होते ही तुम्हारा दृष्टिकोण बदल गया। चेहरा पहचान में आने लगा।
इसीलिए तो प्रकाश की उपज हुई है, ताकि प्रकाश में सब कुछ स्पष्ट नजर आए वरना अंधेरा तो धोखा ही देकर जाता है, जैसे मेरे साथ हुआ,कड़वाहट से दमयंती बोली।
तुम उसे अभी भी, धोखा समझ रही हो। वह धोखा नहीं था, दृष्टि भ्रम था, अंधकार में कई बार, बिगड़े और टूटे रिश्ते भी संभल जाते हैं, क्योंकि हम प्रकाश में कुछ ज्यादा ही स्पष्ट देखने का प्रयास करने लगते हैं किन्तु उस प्रकाश में भी बाहरी रूप ही नज़र आता है ,आंतरिक नहीं।
यह आप मुझे अपने दृष्टिकोण से समझ रहे हैं, किंतु मुझे ऐसा नहीं लगता।
क्या' ज्वाला' तुम्हारे साथ रहने के लिए तैयार है ? दमयंती की तरफ देखकर, जगत ने पूछा। उसके इस प्रश्न पर दमयंती की नजरें झुक गईं और बोली -हो सकता है, परिवार का दवाब हो, या फिर समाज का डर !
यह ड़र तुमने महसूस क्यों नहीं किया ? तुमने सबके सामने स्पष्ट होकर, अपनी बात रखी , तुम्हारे अंदर प्रेम की ताकत थी, उसकी सच्चाई थी किंतु ज्वाला के अंदर अभी भी भय है, वह इस रिश्ते को सबके सामने स्वीकार क्यों नहीं कर पाया ?' जगत 'ज्वाला के प्रति, दमयंती के मन में कुछ ऐसे विचार भरना चाहता था जिससे उसे सही- गलत का ज्ञान हो सके।
कई बार रिश्तों के कारण, हम अपने उस महत्वपूर्ण सबसे अजीज़ रिश्ते को चाहते हुए भी स्वीकार नहीं कर पाते , हो सकता है, तुम्हारे भाई, तुम्हारे लिए अपने 'प्यार का बलिदान' देना चाहते हैं।
तब उसका यह बलिदान व्यर्थ क्यों जा रहा है ? क्या उसके त्याग की कोई कीमत नहीं।
वे अपने प्यार का बलिदान दे रहे हैं, मैं नहीं , मुझे अभी सोचने का समय चाहिए। अचानक ही जिंदगी में इतनी बड़ी हलचल हो गई। ज्वार- भाटे के पश्चात बहुत कुछ टूटता भी है और बिखरता भी है और सामान्य होने में उसे समय भी लगता है। जीवन अस्त -व्यस्त हो गया ,ज़िंदगी तितर -बितर नजर आ रही है। उस बिखरे हुए जीवन को समेटने में अभी समय लगेगा।
तुम्हारा ही नहीं, यहां हम सभी का जीवन अस्त -व्यस्त हुआ है ,अब बिखरे हुए को समेटना भी तो है, संभालना भी तुम्हें ही है सब कुछ जगत ने दमयंती पर छोड़ दिया।मुझे तुम्हारी प्रतीक्षा रहेगी ,तुम कब इस राह से गुजरोगी ,मैं प्रतीक्षा करूंगा।
कहीं ये प्रतीक्षा लम्बी न हो जाये।