कोई तो संग है,साथ निभाता है।
हर सुख -दुख का साथी है।
दिखता नहीं कोई ,
''साया ''वो अपना सा !
साथी बन,साथ निभाता है।
वह कौन? आखिर कौन है,वो ?
हरदम साथ निभाता है।
चलता है ,संग-संग,
उपलब्धियों का साक्षी बन ,
संग -संग बढ़ता रहा।
कुछ परछाइयां हैं,अस्पष्ट सी....
जो दिखती नहीं,इन नयनों से
ज्ञान के प्रकाश में संग खडा,
वह साया !मेरा अपना था ।
प्रकाश बिन , अस्तित्व कहां ?
लुप्त हुआ,अंधकार में
मेरा साया, मुझ में ही समा गया।
चढ़ता ,सीढ़ी दर सीढ़ी बढ़ता गया।
बन गया ,जैसे मेरा अपना ही साया !
मेरा' अहं' मुझसे भी बड़ा हो गया।
चला था, जिस मंजिल की ओर,
वह भी बढ़ता गया, रोशनी में,
मुझे, मेरा आइना दिखला गया।