कुछ समझ नहीं आ रहा, जिंदगी कहां से कहां जा रही है ? हम अपनी शर्तों पर जीना भी चाहते हैं, स्वतंत्रता भी चाहते हैं ,'' दायरों में रहकर भी, दायरे तोडना चाहते हैं।'' कहीं , कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है। जब मैं परीक्षा देने जाती थी तो उस समय कुछ लड़कियाँ जींस में या कुछ भी विदेशी वस्त्र ,ज्यादा कुछ नहीं तो बिना आस्तीन के वस्त्र पहनकर आती थीं। उन्हें देखकर ,तब हमें लगता था ,ये लोग कितनी आधुनिक हैं ,कैसे रहती हैं ? उनमें अलग ही आत्मविश्वास नजर आता था। अपने आप को उस समय हम हीन भावना से ग्रसित महसूस करते थे। भले ही हमारे सलवार सूट,अच्छे डिजाइन के बने हुए क्यों न हों , अच्छे बेहतरीन कपड़े के बने हुए थे, फिर भी लगता था। कुछ तो कमी रह गई है। सुनीता यही सब बातें सोच रही थी, तब वह स्वयं तो, ऐसे कपड़े नहीं पहन पाई, जब कुंवारी थी, तो सोचती रहती थी, एक झिझक बनी रहती थी। विवाह के पश्चात तो यह कुछ संभव ही नहीं था इसलिए सुनीता ने अपनी बेटी के लिए, किसी भी तरह की कोई बंदिश नहीं रखी उसे सभी तरह के कपड़े पहनने देती है ताकि उसे भी मेरी तरह एहसास न हो।
किंतु आज लगता है, क्या ऐसे कपड़े पहनना ही आधुनिकता का परिचायक है। इस तरह रहने से इंसान की सोच तो नहीं बदलती। जो इंसान जैसा होता है, वैसा ही रहता है। अभी मेरी बेटी छोटी है, वह कुछ भी पहन ले उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता क्योंकि ऐसा रहने की उसकी आदत जो बन गयी है। समय के साथ-साथ सुनीता को अब ये एहसास होने लगा ''आत्मविश्वास अपनी शिक्षा और ज्ञान से बढ़ता है'' कपड़े पहनने से नहीं , आज वही बातें सोचकर, उसे हंसी आ जाती है।
कुछ दिनों की छुट्टी लेकर सुनीता बच्चों के पास जाने के लिए बस में चढ़ गयी। सोच तो रही थी -बच्चों से इतने दिन दूर रही इतने दिनों की कमी पूर्ण कर दूंगी। बच्चों को घुमाकर भी लाऊंगी किंतु परीक्षा नजदीक हैं ,इस समय ऐसा सोचना भी गलत है। मनुष्य न जाने कैसे स्वयं ही, इन सब में फंसता चला जाता है। पहले शिक्षा, उसके पश्चात रोजगार, उसके पश्चात परिवार, बस इन्हीं चीजों के इर्द-गिर्द सम्पूर्ण जीवन घूमता रहता है। अब लगता है, वह अपने लिए कब जीता है ? जब तक कोई मन मुताबिक चीज नहीं मिल जाती, तब तक उसकी चाहत बनी रहती है किंतु जैसे ही, वह चीज हासिल कर लेता है, तब उसे एहसास होता है इसके लिए उसने कितना परिश्रम किया ? कभी-कभी बेईमानी भी नजर आने लगता है।तभी बस में से आवाज आई ,चलिए उतरिये !जिन्हें यहाँ उतरना है। सुनीता ने अपनी आँखें खोलीं और अपना सामान उठाया और बस से उतर गयी।
उसके घर पहुंचते ही, बच्चे बहुत प्रसन्न हुए ,जाते ही बच्चों की, पढ़ाई पर ध्यान देना आरंभ कर दिया। जब बच्चे परीक्षा देने चले जाते, मन ही मन सोचती बच्चों पर कितना दबाव पड़ जाता है ? मेरे आने से कम से कम, सुकून से परीक्षा तो दे रहे हैं कुछ दिनों के लिए ही सही, संदीप भी जैसे निश्चित हो गए हैं।
एक दिन वह संदीप से बोली -मैं सोचती हूं - मुझे, अब नौकरी छोड़ देनी चाहिए।
क्यों ,तुम ऐसा क्यों कह रही हो ?
मेरे न रहने पर बच्चे और आप परेशान होते हो। क्या आपको मेरी याद नहीं आती ,कहते हुए संदीप की आँखों में झाँकने का प्रयास किया किन्तु वो तो नजरें झुकाये बैठा था। आप कुछ जबाब नहीं दे रहे हैं।
कुछ दिनों की परेशानी ही तो है , जिंदगी यूं ही चलती रहती है, तुमने इस नौकरी के लिए कितना परिश्रम किया है? अब तो बच्चे बड़े हो रहे हैं , अब तुम निश्चिंत होकर,अपना कार्य कर सकती हो। बच्चों की भी हम पर आश्रित होने की एक सीमा है। जब तक वह हमारे, अधीन है तब तक ही उन्हें हमारी जरूरत है। उसके पश्चात उनकी एक अलग दुनिया हो जाएगी। कम से कम तुम और मैं, सेवा मुक्त होने से पहले , व्यस्त तो रहेंगे वरना बच्चों का इस तरह छोड़ कर जाना हमें, आहत भी कर सकता है।
यही जीवन का सत्य है, हर मनुष्य की , अपनी एक मंजिल होती है , अपना अलग रास्ता होता है, जिस पर उसको चलना होता है। यह अलग बात है कि वह परिवार के लोगों के साथ चलता है या बाहर के लोगों को साथ लेकर चलता है लेकिन इस जीवन में उसका चलना तो तय है। हम भी जीवन की डगर में, आगे बढ़ रहे हैं उसमें कुछ लोग साथ मिल जाते हैं , कुछ लोग सीख दे जाते हैं। लोगों का तो नहीं, यादों का कारवां बन जाता है। रही मेरी बात ,तुम मेरी जीवनसंगिनी हो ,कभी -कभी तुम्हारी बहुत याद सताती है किन्तु तुम्हारी इन दो निशानियों को देखकर खुश हो लेता हूँ और व्यस्त हो जाता हूँ ,इस उम्मीद से शायद हम फिर से साथ रह सकेंगे ,सुनीता का हाथ थामकर संदीप बोला।छुट्टियों में तो तुम आ ही जाती हो।
संदीप की बातें सुन सुनीता भावुक हो गयी। मैं इतना सब कुछ नहीं समझती , अब मैं सोच रही हूं कि मुझे आप लोगों के साथ रहना चाहिए आपको और बच्चों को मेरी आवश्यकता है।
आवश्यकता तो उस समय भी थी जब बच्चे बहुत छोटे थे किंतु अब तुम्हें उनसे प्यार हो गया है, इसलिए इस बात का एहसास अब हो रहा है। यह बात मैं समझता था मैं तुम्हें जबरन ही रोक भी सकता था किंतु उससे कुछ लाभ नहीं होता। हो सकता है, हमारे रिश्ते में दरार ही पड़ जाती , शायद स्थिति कुछ और होती। किंतु मैंने उस सबको महसूस कर, अनदेखा कर दिया। अब तुम्हें एहसास हो रहा है, बच्चों की दूरी ही नहीं ,उनकी ममता के कारण तुम्हें ऐसा लग रहा है। 2 वर्ष पश्चात, तुम अपनी बदली यहीं करा लेना, हम लोगों का साथ भी होगा और तुम्हारा कार्य भी चलता रहेगा।हो सकता है ,तुम भावुक होकर आज नौकरी छोड़ दो !यहाँ आकर फिर से तुम्हें एहसास हो कि तुमसे गलती हुई है। ऐसा कोई भी गलत निर्णय मत लेना।
संदीप के इस तरह समझाने से, सुनीता को लग रहा था कि इस दूरी के कारण, अब संदीप में वह पहले जैसा नहीं रहा. क्या, अब उसे मेरी जरूरत महसूस ही नहीं होती ? मेरे बिना वह अच्छे से जिंदगी व्यतीत कर रहा है,तब उसे देवयानी की बातें स्मरण हो आईं ,जब तक परिवार को तुम्हारी आवश्यकता है,तब तक तुम्हें याद करेंगे ,धीरे -धीरे तुम्हारे बग़ैर रहने के आदि हो जायेंगे।
इस बैरागी मन को कौन समझाए ? यदि वह उसका समर्थन नहीं करता, तब सोचती, कि वह जिंदगी में आगे बढ़ना चाहती है और वह उसके कदम पीछे खींच रहा है और अब जबकि वह कह रहा है, कि तुम अपने सफर में आगे बढ़ो ! तो उसे लगता है, जैसे संदीप को मेरी आवश्यकता ही नहीं।