आज सुनीता को देवयानी ने,' चाय पार्टी' पर बुलाया था, यह बात सुनीता को मालूम नहीं थी कि देवयानी ने उसे किस लिए अपने घर पर आने का निमंत्रण दिया है, किंतु वहां जाकर उसे मालूम हुआ। उसे ही नहीं गांव की, अन्य कई महिलाएं भी उसे 'चाय पार्टी' में शामिल थीं। गांव की महिलाओं के चले जाने के पश्चात, सुनीता, देवयानी से अकेले में कुछ बात करना चाहती थी उसके मन में कुछ प्रश्न उठ रहे थे जिनके वह सवाल जानना चाहती थी। तब देवयानी उसे अपने और चौधरी साहब के विषय में बताती है - हमारे चौधरी साहब भी, कम पढ़े-लिखे नहीं हैं, पढ़- लिखकर बाहर की तरफ तो हर कोई भागता है किंतु अपने ही स्थान पर, वहीं रहकर उन्नति करें वह अलग बात है। मैं मानती हूं, यहां पर व्यापार के इतने साधन नहीं है , इसके लिए हमें थोड़ा सा, अपना मार्ग बदलना होता है। शहर की भीड़ बनकर, हम नहीं रहना चाहते थे इसीलिए यहीं पर हमने कुछ करने का निर्णय लिया।
वैसे आप एक डॉक्टर बनना चाहती थीं किन्तु क्या कभी आपको इस बात का दुःख नहीं होता ?कि काश !आप डॉक्टर होतीं तो आपकी ज़िंदगी आज कुछ और ही होती।यदि आप आगे पढ़ना चाहती ही थीं तो आपके पति भी आपको आगे पढ़ा सकते थे।
आप सही कह रहीं हैं ,शुरू -शुरू में मुझे लगता था कि मैं डॉक्टर नहीं बन पाई इस बात का दुःख भी होता था किन्तु इन्होने एक दिन मेरी उदासी का कारण जानना चाहा ,तब उन्हें मैंने यही बात बतलाई ,तो दृष्टि के पापा बोले - मैं मानता हूँ ,तुम्हारा एक सपना था ,इस संसार में हर किसी का कोई न कोई सपना होता है किन्तु क्या सभी के स्वप्न पूर्ण हो पाते हैं ?मैं चाहूँ तो तुम्हें डॉक्टरी की शिक्षा के लिए ,पढ़ाई का खर्चा भी दे सकता हूँ। मान लो !तुम इतनी मुश्किलों के पश्चात डॉक्टर बन भी गयीं ,तब क्या ? तब तुम्हारी इच्छा होगी मैं शहर में रहकर प्रैक्टिस करूं ,तब हमारे रिश्ते का क्या होगा ?और यदि तुम गांव में ही प्रैक्टिस करती हो ,तब भी संतुष्ट नहीं रह पाओगी।
मेरे विवाह करने का कारण यही था कि इस घर को तुम सम्भालो और मैं बाहर,हमारे पास पैसे की कोई कमी नहीं है ,कमी है, तो इस सम्पत्ति की देखरेख की। पिता के जाने के पश्चात मैं अकेला पड़ गया हूँ। यदि तुम तब भी कुछ करना चाहती हो तो यहाँ रहकर ऐसा कुछ करो !जिससे यहाँ की महिलाओं को भी रोजगार मिले ,उनकी आमदनी हो और तुम्हारी शिक्षा का लाभ भी तुम्हें ही नहीं अन्य महिलाओं को भी मिले।'' तुम तो बहती नदी हो ,थोड़ा सोचोगी और प्रयास करोगी तो रास्ता स्वयं ही निकल जायेगा।''
यह तो बहुत अच्छी बात है, सर! बता रहे थे कि आपने कोई कुटीर उद्योग खोला हुआ है।
सही कह रहे थे, आईये चलिए ! आपको मैं आज अपने 'कुटीर उद्योग' का भ्रमण करा देती हूँ। कहते हुए वह उठ खड़ी हुई, दोनों साथ में ही, घर के पिछले दरवाजे की तरफ बढ़ गईं , क्या यहां से भी रास्ता है ? आश्चर्य से सुनीता ने पूछा।
जी हां,' रास्ते होते नहीं, बनाने पड़ते हैं।' हमें यहां से रास्ता बनाना पड़ा ताकि मैं घर और काम दोनों में ही तालमेल बैठाकर चल सकूं। पढ़ना और पढ़कर आगे बढ़ना दोनों में काफी अंतर् है। हम महिलाओं के लिए तो चुनौती बन जाता है। जब घर -परिवार के साथ तालमेल बैठाकर हम अपने सपनों को भी जीती हैं। सीमाएं लांघकर हर कोई उड़ सकता है किन्तु उस दायरे में रहकर उड़ान भरना भी कम सरल नहीं है।
यह भी सही है ,उड़ान की कोई सीमा न हो तो रास्ता भटक भी सकते हैं।
हम तो बहती नदियां हैं ,मार्ग निकाल ही लेंगी ,कहते हुए सुनीता की तरफ देखकर हँसते हुए देवयानी बोली -इसे ,भला आपसे बेहतर कौन समझ सकता है ?
हां मैंने भी, आगे बढ़ने के लिए काफी परिश्रम किया किंतु अब मैं अपने परिवार को समय नहीं दे पा रही हूं ,अब इस बात का अफ़सोस होता है ,बच्चों का बालपन ,मेरी उलझनों और सपनों को पूर्ण करने की चाहत में चला गया।
यह तो होता ही है ,किसी की खुशियों के लिए या तो हमें त्याग करना होगा या फिर हमारे लिए जीने में ,तब भी किसी न किसी का त्याग ही होगा। बात यह होनी चाहिए ,हम त्याग भी कर रहे हैं और उसका परिणाम भी यदि अच्छा नहीं आया तो दुःख होता है। बातें करते -करते दोनों एक बड़े से कमरे में पहुंच गयीं। तब देवयानी बोली -यह देख लीजिए ! यह हमारा कुटीर उद्योग का, वह स्थल है, यहां पर सभी महिलाएं एकत्र होकर अपनी कार्य कुशलता के आधार पर अचार ,पापड़ और बड़ियाँ बनाती हैं। दूसरी तरफ उसने दरवाजा दिखलाया , उस तरफ हमारा' गोदाम' है जहां पर माल बनकर तैयार होता है। बाईं तरफ दूसरा दरवाजा था, उसकी तरफ इशारा करते हुए वो बोलीं -वह हमारा कच्चे माल का गोदाम है। यहाँ सभी महिलाएं अपने खाली समय में, सामान बनाती हैं और वह सामान गाड़ियों में भरकर, बाहर भेजा जाता है। मेरा समय भी व्यतीत हो जाता है और थोड़ी बहुत आमदनी भी हो जाता है।
यह तो बहुत अच्छा है, घर भी पास में है, और काम भी यही से हो जाता है।
आज हमने उन सभी महिलाओं की छुट्टी कर दी थी, कहते हुए वह गोदाम की तरफ गई और वहां से कुछ पैकेट उठा कर ले आई। सुनीता के हाथ में देते हुए बोली -कुछ पापड़ और बड़ियाँ हैं इन्हें लेकर जाइए ! और खाकर बताना कैसे बने हैं ? पढ़, लिखने के पश्चात हमारा उद्देश्य यही तो रहता है कि कुछ कार्य किया जाए। मान लीजिए मैं डॉक्टर भी बन जाती, तब भी मेरा उद्देश्य यही रहता कि लोगों की सेवा करना है और कार्य करना है। आप भी तो शिक्षक बनकर लोगों की सेवा ही तो कर रही हैं, अंतर सिर्फ इतना है , आप शहर से गांव की तरफ आई है, और हम गांव में ही रह रहे हैं किंतु आप अपने बच्चों और परिवार से दूर हैं।
इस सबमें मैं यह नहीं समझ पा रही हूँ ,ये मेरे लिए अच्छा है या गलत !चिंतित स्वर में सुनीता बोली।
एक तरह से देखा जाये तो आपके लिए सही है ,आपका सपना पूरा हुआ है किन्तु दूसरी तरफ आपके बच्चे आपके पति हैं जिनको साथ में होना चाहिए ,बच्चे थोड़े बड़े हुए ,तो उन्हें माँ का क्या एहसास होगा ?मान लीजिये !आपने कोई मेड लगाई भी है ,तो माँ की कमी को दूर नहीं कर सकती। आपके पति दिनभर के थके एक गर्म चाय की इच्छा रखते होंगे ,पत्नी के साथ ,उसकी मुस्कान की इच्छा रखते होंगे। इच्छा होती भी हो तो कुछ कह नहीं सकते क्योंकि इस नौकरी से आपके सपने जो जुड़े हैं। मुस्कुराते हुए बोली -आजकल लड़के -लड़की तो अकेले रहने पर भी गलत कदम उठा लेते हैं ,और वो कबसे अकेले रह रहे हैं ?कहते हुए उसने सुनीता की आँखों में झाँका।
वैसे तो मुझे यहाँ रहते हुए तीन वर्ष हो जायेंगे किन्तु छुट्टियों में तो वहां जाती ही हूँ ,अपने मन में आये सवालों को झुठला देना चाहती थी। बातें करते हुए वो लोग फिर से हवेली में प्रवेश कर गयीं।