सुनीता पढ़ - लिखने के पश्चात , नौकरी करना चाहती थी किंतु इस बीच ही, उसका विवाह संदीप से तय हो गया। सुनीता ने संदीप से पहले ही कह दिया था -कि वह पढ़ -लिखकर, घर पर बैठने वाली नहीं है, वह नौकरी करेगी। संदीप ने उसे साँत्वना दिया 'कि जैसा वह चाहे की वैसा ही होगा 'किंतु अपनी ससुराल आकर वह दो बच्चों की माँ बन गयी। वह अब अपने को बंधा हुआ महसूस कर रही थी। मैं अब इस गृहस्थी में फंस गयी ,अब मुझे आगे बढ़ने का मौका नहीं मिलेगा। यही सब सोचकर, वह अपने सपने पूर्ण करने के लिए तड़फ़ड़ा रही थी, हालांकि संदीप ने कभी उसे हतोत्साहित नहीं होने दिया किंतु उसे लगता, संदीप की यह हमदर्दी भी झूठी है, उसका आश्वासन भी व्यर्थ ही है क्योंकि अब उसे लगने लगा था-संदीप उसे सिर्फ बहका रहा है, कभी-कभी वह झुँझला जाती।
सुनीता की मनःस्थिति देखकर, संदीप उसे समझाने का प्रयास करता और कहता - तुम अपनी, तैयारी करती रहो ! इस साल नहीं तो अगले वर्ष आ ही जाओगी। कभी-कभी वह परेशान हो जाती, और सोचती -यदि मेरी नौकरी लग भी जाती है तो बच्चों को कौन संभालेगा ? तब उसे , उसका सपना , व्यर्थ होता नजर आता।वह अक्सर दुविधाओं के झूले में झूलती रहती।
अभी उसके बच्चे छोटे ही थे, और उसके साक्षात्कार के लिए बुलावा आ गया , वह मन ही मन बहुत प्रसन्न थी, जैसे उसे उड़ने के लिए संपूर्ण गगन मिल गया हो। अपनी प्रसन्नता को वह अभी महसूस करना चाहती थी ,तभी उसकी मम्मी का फोन आया,उन्होंने उसे समझाया भी था, बच्चे ,अभी छोटे हैं, इनका ख्याल कौन रखेगा? किंतु उस समय तो उसे, बच्चों की जैसे परवाह ही नहीं थी उसका सपना ही उसके लिए सब कुछ था जो अब पूरा होने जा रहा था।
तब सुनीता लापरवाही से बोली -ये संदीप के बच्चे भी तो हैं, उनके पिता है वे अपने आप देख लेंगें। यह तो अच्छा हुआ, उसकी नौकरी नजदीक ही लगी थी। अब वह बच्चे और नौकरी में तालमेल बैठाने में लगी रहती थी। धीरे-धीरे अपने को संभाल भी रही थी और बच्चे भी पढ़ रहे थे। उसे लग रहा था, जैसे सारी दुनिया उसके आंचल में सिमट कर आ गई है , सब कुछ अच्छे से हो रहा था।
पांच वर्ष पश्चात अचानक उसका स्थानांतरण हो गया और वह इस गांव में आ गई। अब उसे अपने बच्चों से प्यार था, और अपने परिवार की चिंता भी थी किंतु अब परिवार से दूर रहकर वह कैसे यह सब कर पाएगी ?
तब संदीप ने ही ,उसे समझाया-अब बच्चे बड़े भी हो रहे हैं, थोड़ा काम स्वयं भी कर लेते हैं, हम मिलजुल कर, सब संभाल लेंगे तुम चली जाओ ! उनके इस आश्वासन पर, वह इस गांव में आ गई किंतु कभी-कभी उसे बच्चों की बड़ी याद आती और उसे लगता , कि वह अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से पूर्ण नहीं कर पा रही है।
अब तक तो उसकी यही सोच थी, कि जब इतनी पढ़ाई लिखाई की है तो नौकरी क्यों नहीं करनी है ? नौकरी भी आवश्यक है वरना आज बेटी के फोन से उसे एहसास हुआ कि अब उसके बच्चों को उसकी जरूरत है। मन ही मन सोच रही थी कि किस तरह उसे प्रधानाचार्य से, छुट्टी की बात करनी है। दूर रहकर तो उसे बच्चों की याद, कुछ अधिक ही आती थी।
आज चौधरी अतर सिंह जी के घर से बुलावा आया है, न जाने उन्होंने क्यों बुलाया होगा ? वह सोच रही थी, शायद, उनकी बेटी ने पतंग की प्रतियोगिता में जीती है इसलिए खुशी के कारण बुलाया होगा, वह तैयार होकर, चौधरी अतर सिंह के घर जाती है वहां जाकर देखती है वहां पर पहले से ही गांव की बहुत सारी महिलाएं बैठी थीं। उन सभी को देखकर सुनीता ने हाथ जोड़ दिए, तब सभी ने जवाब दिया-राम- राम बहन जी ! वह सभी महिलाएं उसे 'बहन जी' कहकर ही बुलाती थीं।
क्या कुछ विशेष बात है ? मुझे यहां क्यों बुलाया है ? कुछ देर पश्चात, वहां पर चाय और नाश्ता भी आ गया।
बहन जी आज, सोचा- बच्चियों की जीत की खुशी में 'चाय पार्टी' कर ली जाए, हमारे गांव की बेटियां जीती हैं , हम महिलाओं के लिए क्या यह, कम खुशी की बात है ? देवयानी जी, सुनीता की तरफ चाय की प्याली आगे करते हुए बोली -चाय पीने के लिए वैसे तो किसी बहाने की आवश्यकता नहीं ,किन्तु आज बहाना भी है।
यह तो आप ठीक कह रही हैं। मौका कोई भी हो, छोटी से छोटी खुशी को मनाने में कोई बुराई तो नहीं है, अच्छी बात है। सुनीता ने देखा, चाय के साथ नाश्ते में, समोसे, पापड़, पकौड़ी इत्यादि घर की बनाई गई चीजें ही थीं तभी उसे प्रिंसिपल साहब की बात याद हो आ गई , जिन्होंने बताया था ,' कि देवयानी जी ने एक 'कुटीर उद्योग' खोला हुआ है। अधिकतर महिलाऐं चाय और नाश्ता करके जाने लगीं किंतु सुनीता जानबूझकर वहीं रुक गई। उसे देवयानी जी से कुछ बातें जो पूछनी थीं ,सबके जाने के पश्चात वह देवयानी जी से बोली -आप कहां तक पढ़ी हुई है ?
देवयानी ने सुनीता की तरफ देखा और मुस्कुरा कर बोली -आप यह सब मुझसे क्यों पूछ रही हैं ?
नहीं, वैसे ही पूछ रही हूं, कल सर से कोई बात हो रही थी तब उन्होंने बताया कि आप पढ़ी-लिखी हैं।
तो क्या आपको लगता था ? जो गांव में रहते हैं, वह पढ़े-लिखे नहीं होते।
नहीं, ऐसा तो नहीं है, लेकिन मेरा मानना यह था कि जो व्यक्ति पढ़ा लिखा होगा वह गांव में न रहकर गांव से बाहर निकलने का प्रयास करेगा। गांव में रहकर अपनी शिक्षा क्यों व्यर्थ गवांयेंगा ?
शिक्षा कभी भी व्यर्थ नहीं होती, वह तो इंसान को आगे बढ़ाने के मार्ग परिष्कृत करती रहती है। यह आवश्यक नहीं कि आप पढ़े और शहर में नहीं रहे तो आप, कुछ भी नहीं कर सकते। अगर आपके पास शिक्षा है, कुछ करने का जज्बा है, तो आप कहीं भी रहकर कुछ भी कर सकते हैं। अब आप, अपने आपको ही देख लीजिए ! शिक्षा आपने शहर में ग्रहण ही की, किंतु आपकी बदली यहां गांव में हो गई क्योंकि गांव के लोगों को तो सरकार भी बढ़ावा देती है, गांव की उन्नति चाहते हैं। वैसे तो मैंने विज्ञान से परा स्नातक किया हुआ है। मैं डॉक्टर बनना चाहती थी किंतु विवाह होने के पश्चात, मैं यही कि होकर रह गई किंतु मेरा मार्ग अवरुद्ध नहीं हुआ और मैंने यहीं रहकर, अपना आगे बढ़ने का मार्ग चुन लिया।
क्या सुनीता आज देवयानी से कोई सीख लेकर जाएगी ,क्या उसको उसके सभी सवालों के जबाब उसे मिल जायेंगे ?चलिए आगे बढ़ते हैं।