कड़क ठंड में ,स्वेटर ही नहीं, शॉल भी चाहिए।
साथ में गरमा- गरम चाय -पकौड़ा भी होना चाहिए।
थरथर कांपता बदन, जीवन संघर्षों को अग्नि चाहिए।
जज़्बा ! जो बढ़ा सके , ऐसा ताप होना चाहिए।
मन खुश रहना चाहता, खुशियां बांटने वाला होना चाहिए।
उत्साहित हो मन,सोचता -काँपती ठंड में किसी को सहारा चाहिए।
सोचा,किसी दीन को दें, स्वेटर-शॉल! भार कम होना चाहिए।
पूछा- किसी दीन से, तो बोला -मुझे भीख़ नहीं काम चाहिए।
कब तक दूजे के दया पर पलता रहूंगा?
दीन -हीन बना रहूंगा,जीवन में परिवर्तन चाहिए।
लोगों से दया की'' उम्मीदें '' करता रहूंगा।
अब मुझे किसी की 'उम्मीद' बनना चाहिए।
बुराइयों सा ,स्वेटर लिपट जाता अंगों से,
तालमेल को, ढकने के लिए शॉल होना चाहिए।
कर्म करते ये हस्त !,शीत में हिम हुए जाते हैं।
इन मेहनतकश मजदूरों को शॉल की उष्मा चाहिए।