Sazishen [part 118]

मन ही मन चंपक सोच रहा था, जिंदगी इतनी जल्दी समाप्त भी नहीं हो जाती। कहीं न कहीं ,कोई न कोई उम्मीद रह ही जाती है,जो जीने की वजह बन जाती है।  शायद, मेरे जीवन में एक बार खुशी देखना बाकी रह गया था।  जिस राह को मैं छोड़ चुका था, अब मुझे उसी राह पर चलना होगा, यह मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि पुनः उसी मार्ग पर मोक्ष द्वार नजर आएगा। देर से ही सही, किंतु उसे विश्वास नहीं हो रहा था क्या ऐसा हो सकता है ?


अपने कमरे में आ ,वह आराम से बिस्तर पर लेटकर सोचने लगा अभी जो उसने सुना क्या वो सच था या स्वप्न, कहीं मेरे साथ यह नीलिमा सक्सेना, मजाक तो नहीं कर रही , किंतु वह मुझसे मजाक क्यों करेगी ? अपने आप से ही प्रश्न पूछता और जवाब दे देता। उसे मालूम है, मैंने यह 'अनाथ आश्रम' किसलिए खोला था शायद उसे, मेरे दर्द का कुछ तो एहसास होगा। तभी तो आज इतने दिनों पश्चात, उसने मुझे कोई अच्छी सूचना दी है वरना मैंने  तो सोच ही लिया था कि अब मेरे जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं होगा। अपने को अंदर ही अंदर वह , उस खुशी के लिए तैयार कर रहा था। विश्वास नहीं हो पा रहा था, उसकी जिंदगी में ऐसा कुछ अच्छा भी घटित हो सकता है।तब सोचा -' क्यों न, इस खुशी को मां के साथ बांट लूँ।'इच्छा हो रही थी ,कोई तो मुझे समझे मेरी बात को सुने और समझे ,मुझे एहसास कराये कि मेरे साथ अब जो भी होगा अच्छा ही होगा। 

 धीरे-धीरे आपने  सभी रिश्ते साथ छोड़कर जा चुके हैं, दादी ,पत्नी, पिता सब चले गए, शायद मैं इसीलिए जिंदा हूं ,मरने से पहले मैंने जो अन्याय किया था ,अब उसे न्याय में बदल सकूँ।  मां की भी तमन्ना पूरी हो जाएगी, क्या, मैं उनसे वह खुशी बांट लूं ?उत्साहित होकर उसके कदम अपनी माँ के कमरे की तरफ मुड़ते किन्तु तभी उन कदमों पर नियंत्रण भी करे लेता। कहीं ये सत्य न हुआ तो.....  अचानक ही उन्हें, यह  खुशखबरी दूँगा। नीलिमा को दोबारा फोन करके देखता हूं। नहीं, ऐसा करूंगा तो उसे लगेगा -'शायद, मैं  कुछ ज्यादा ही उतावला हो रहा हूं,  होना भी तो चाहिए, इतने दिनों पश्चात, मेरे जीवन में एक आनंद की लहर आई है। मैं समझ नहीं पा रहा हूं, मैं किस तरह उसका स्वागत करूं ? किस तरह उससे मिलने जाऊंगा। सोचते हुए कांपते हाथों से उसने फोन का रिसीवर उठा ही लिया और नीलिमा को फिर से फोन लगा दिया। 

हेेलो सर ! आपने मुझे याद किया। 

मैं जानना चाहता हूं, क्या सच में मैं, उनसे मिल सकता हूं ? मैं उन्हें देख सकता हूं। 

क्यों नहीं, आपके अपने ही तो हैं , बस थोड़ा समय के साथ दूर हो गए थे। 

आप उनसे मिलना चाहेंगे, वैसे मैंने अभी पूजा को बताया नहीं है कि मैंने  उसके यहाँ होने की  सूचना आपको दे दी है , न जाने उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी ? हां, यह बात अवश्य है कि मैंने  उसे, उसके बेटे को लेकर, उसके भविष्य को लेकर परम को , उसके परिवार से मिलाने के लिए ,मनाने का प्रयास तो किया है। यदि ऊपर वाला चाहेगा, तो आप लोग शीघ्र मिलेंगे। 

क्या मैं आ जाऊं ? अभी तो मेरे मन को विश्वास भी नहीं हो रहा किंतु इतना उतावला भी हो रहा है कि मुझसे  रुका  भी नहीं जा रहा। अब उनसे मिलने के लिए बचा ही कौन है? मैं हूं या माँ है,डरता हूँ , वे लोग मुझसे मिलना भी चाहेंगे या नहीं, नहीं जानता। 

आप ही बता दीजिए कि आप मुझसे  क्या चाहते हैं ?

तुम शीघ्र से शीघ्र, उनसे मिलाने का प्रबंध कर दो !तो तुम्हारी बड़ी मेहरबानी होगी,नीलिमा की चरौरी सी करते हुए चंपक बोला।  

इसमें मेहरबानी क्या है ? मुझे जो उचित लगा, मैंने वही करने का प्रयास किया एक बिछड़े परिवार को, मिलाने का प्रयास किया है। 

यह मेहरबानी नहीं तो, और क्या है ? तुम इस बात को भूल भी सकती थीं , अपने समयाभाव के कारण, इस रिश्ते को झुठला भी सकती थीं , नजरअंदाज भी कर सकती थीं किंतु तुमने चाहा हमें मिलना चाहिए तो तुम एक मजबूत सेतु का कार्य कर रही हो। इससे बड़ी और क्या बात होगी ? कहते हुए चंपकलाल की आंखें नम हों आई। अब तक जीवन में इतनी परेशानियां और इतनी निराशा झेली है, अभी तो उसे विश्वास भी नहीं हो रहा था कि वह अपने परिवार से मिल भी पाएगा या नहीं,सोचकर ही ड़र लगता है।  किंतु उसका  मन  नीलिमा के शब्दों के आधार पर, विश्वास करने को कह रहा है इसीलिए नीलिमा से एक उम्मीद की डोर बांध ली है। वही उसकी डूबती आशाओं को, उम्मीद की किरण से पार करवायेगी। 

सर ! मैं एक-दो दिन में देखकर, उनसे बातें करके, आपको कुछ जवाब देती हूं, उन्हें बताना भी जरूरी है कि आप उनकी प्रतीक्षा में हैं। क्या आप उनसे मिलने के लिए यहां आ सकते हैं ? हो सकता है ,वह न जाए, क्योंकि उसे ऐसी स्थिति में आपने ही छोड़ा था ,उनकी नाराज़गी भी जायज़ है।  कायदा तो यही बनता है, आप उन्हें मान के साथ मनाकर यहां से ले जाएं। हां यह बात अवश्य है, मैं आप लोगों के मिलने का साधन अवश्य कर दूंगी। 

बोलो ! कब आना है ? 

इतने भी उतावले मत बनिए ! मैं पहले घर में बात करके और आपके बेटे परम से भी, मिलकर से जानना चाहूंगी क्या वह अपने पिता से मिलने के लिए तैयार है ? बस मुझे एक-दो दिन का समय दीजिए। 

एक उम्मीद देकर नीलिमा ने, फोन रख दिया किंतु अब उसे लग रहा था, उसके सर पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ गया है उसे उन लोगों को मिलना होगा किंतु क्या डॉक्टर पूजा उनसे मिलना चाहेगी। उससे बात तो की थी लगता तो यही है किंतु जब तक उसके मन में यह भावना प्रबल नहीं होती, हो सकता है, इसका विपरीत असर भी हो सकता है।

 नीलिमा अभी यही सोच रही थी तभी उसकी बेटी कल्पना का फोन आया ,मम्मा ! हमारे घर में पुलिस आई है। 

क्यों, क्या हुआ ?

पापा जी ने ,पुलिस में सूचना दे दी है, मेरी सास कहीं भी नहीं मिल रही हैं , पहले तो यही सोचा था, कि कहीं गई होगीं किंतु अब कई दिन होने के पश्चात मेरे ससुर ने, पुलिस स्टेशन जाकर यह खबर पहुंचा दी है और रिपोर्ट भी लिखवाई है। पुलिस छानबीन कर रही है। 

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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