Moko kahan dhundhe re bande

                                                        '' मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में। ''

                                                        न देवल में, ना मस्ज़िद में, न काबे, कैलाश में। ''

कबीरदास जी ने कितना अद्भुत भजन वर्षों पहले लिखा था। कहने वाले तो कहते हैं -कि' घट -घट में राम हैं।' यानी सबके हृदय में प्रभु विराजमान हैं। तब इंसान इधर-उधर क्यों भटक रहा है ? क्यों वह, तीर्थ में, मंदिर- मस्जिदों में, सत्संगों में घूम रहा है। वह क्या खोजना चाहता है ? जब राम उसके 'घट' में निवास करता है तो बाहर किसे ढूंढ रहा है ? अपने अंदर ही क्यों नहीं झांकता है ? अभी कुछ दिनों पहले,मेरठ में एक कथा वाचक के, सत्संग में भगदड़ मच गई , जिसके कारण कई महिलाओं को चोट आई।कहा जाता है ,एक लाख से ज्यादा लोग थे ,जिनमें बुजुर्ग और महिलाएं थीं। 


ये उसी दिन की ही बात नहीं है,बल्कि कोई भी संत -महात्मा ,या कोई बाबा जी आते हैं,तो लोगों का श्रद्धा भाव जाग उठता है और भीड़ बढ़ जाती है ,जो अपनी ही मुसीबत का कारण बन जाती है। मैं ये पूछना चाहती हूँ ,क्या उनकी 'भक्ति -भावना 'तब ही उजागर होती है।  जब कोई कथावाचक या कोई महात्मा आते हैं। उस कथा में ऐसा क्या विशेष था ?जो आपको पुस्तकों में ,गूगल पर ,या फिर टेलीविजन पर उपलब्ध नहीं होगा। 

स्वयं प्रदीप मिश्रा जी की वीडियो,यू ट्यूब पर मिल जाती हैं ,जिनका उन्हें अच्छा -ख़ासा मेहनताना भी मिलता है। मैंने सुना है ,कथा करने के लिए उन्हें दस लाख तक पारिश्रमिक दिया जाता है। यह तो उनका व्यापार है ,इसमें श्रद्धा भाव ,उपासना कहाँ रही ?मान लीजिये ,आप उनकी कथा सुनने चले भी गए ,तो भगदड़ का क्या कारण रहा ?इतनी ठंड में कुछ लोग बाहर निकालकर चले भी गये तो,वहां कोई उचित प्रबंध नहीं था। कथावाचक को अपनी कथा से मतलब था। आयोजकों को अपने आयोजन से किन्तु जब भगदड़ मची ,तो उस जनता से किसी को कोई मतलब था जो भीड़ में कुचली गईं। किसी ने ये भी पूछा-  कितने घायल हुए ? उनके इलाज का उचित प्रबंध का सोचा या स्वयं प्रदीप मिश्रा जी ने कहा -मैं अपनी कथा का मूल्य नहीं ले रहा ,जितने भी घायल हैं उनके इलाज का उचित प्रबंध किया जाये। 

ज्यादातर जितने भी महात्मा हैं ,या कथावाचन करते हैं ,सभी महिलाओं को यही समझाते हैं -सास अपनी बहु से न लड़ें ,पति की सेवा करें ,पति को 'परमात्मा 'समझें। एक -दूजे से ईर्ष्या की भावना न रखें ,ये सभी बातें वो कितना ग्रहण करती हैं ?जब उनके विषय में ये कटाक्ष किये जाते  हैं  ,मुस्कुरातीं हैं ,महाराज जी या बाबा जी ने हमारी कमजोर नब्ज़ पकड़ी हैं। क्या ये बात सभी नहीं जानते ?कोई रिश्तेदार या पड़ोसी समझाये ,तो लड़ने के लिए दौड़ पड़ेंगी। बाबा समझाये तो खुश !

जो महिलाएं वहाँ चोटिल हुईं ,क्या उन्होंने इतने बुरे कर्म किये थे कि उन्हें भीड़ से कुचलने से बचाया गया या फिर इससे उनके बुरे कर्म कट रहे थे या बैठे -बिठाये मुसीबत को निमंत्रण दे दिया। सतसंग में जाकर कथा सुन रहीं हैं ,अचानक किसी की साड़ी पर दृष्टि गयी ,सारी कथा भूल, उस साडी के रंग और डिजाइन ,उसके मूल्य में खो गयीं। कथा सुनते कोई सहेली मिल गयी ,एकदम चेहरे पर प्रसन्नता आई और महात्मन क्या कह रहे हैं ?उसे भूल, सहेली से बतलाने लगी और घर में सब ठीक। स्वर भले ही धीरे हों किन्तु जिस कार्य के लिए तुम यहाँ हो ,उसमें कितना ध्यान है ? उसे कितना ग्रहण किया ?

क्या सबसे ज्यादा कष्ट महिलाओं को ही होते हैं ? किसी भी सत्संग में देख लीजिए, महिलाओं की भीड़ की अति  होती है , उन्हें अपने घर में ही, हर इंसान में परमात्मा क्यों नहीं दिखता ? सास को बहू के अंदर बहु को सास के अंदर, ससुर के अंदर, पति के अंदर परमात्मा क्यों नहीं दिखता ? जब घट -घट में परमात्मा बैठा है। हम अपना स्वभाव बदल भी लें , दूसरे का स्वभाव जरूरी नहीं, हमसे अच्छा हो , तो क्या उन परेशानियों को भुलाने के लिए सत्संग ही एक माध्यम है ? घर के एकांत कोने में, मन  को एकाग्र करना, ज्ञान की बातें पढ़ना , अपनी रुचियों को उजागर करना, क्या यह उचित समाधान नहीं है ?

महिलाओं की इसी कमजोरी के चलते ,निर्मल बाबा ',राम -रहीम ',आशाराम बापू ' जैसे महात्मा पनपे हैं ,जो आज जेल की हवा भी खा  रहै हैं। बैठे -बिठाये ,लाखों में नहीं ,करोड़ों में खेल  गए। आम जनता से कहते है -मोह -माया त्यागो !और स्वयं मोह -माया ,राजनीति ,और व्यापार पर कुंडली मारकर बैठ गए। महिलाओं का शोषण भी किया किन्तु समाज की सताई महिलाओं को वहीं जाकर संतुष्टि मिली। जब अपने भगवान में इतनी श्रद्धा थी,तो खलबली का क्या कारण रहा ?मन शांत था तो वहीं क्यों नहीं बैठी रहीं ?थोड़ा असहज होते ही भागना क्यों पड़ता है ?क्योंकि मन शांत  नहीं है ,आज इस बाबा के ,कल दूसरे बाबा  के यहाँ  क्यों भटकना पड़ रहा है ?जो अपना' सुरक्षा कवच' है ,अपना घर ,अपना परिवार ,उसमें शांति नहीं ,दुनियाभर के कर्जें ,परेशानियां बाबा अपने ऊपर नहीं ओटते। हाँ ,कुछ शब्द मन के मुताबिक बोल देते हैं ,या वहां जाकर थोड़ी देर के लिए ,वातावरण परिवर्तन के कारण मन, समस्याओं को भूल जाता है। 

जैसे एक शराबी ,शराब पीकर कुछ देर के लिए मस्त हो जाता है किन्तु जब नशे से बाहर  आता  है तो समस्या पहले से ज्यादा बड़ी नजर आती है ,क्योंकि जो पैसे उसके पास थे,उनकी तो वह दारू पी चुका।  उन पैसों से थोड़ी समस्या सुलझती ,उस पैसे को तो वो दारू में उड़ा चुका। बाबाओं के पास जाने का भी कुछ महिलाओं में अथवा पुरुषों में नशा सा है ,इधर से उधर भटकते रहते हैं किन्तु शांति उनसे कोसों दूर रहती है। शायद अपने आप से भागना चाहते हैं ,वहीं तो परमात्मा बैठा है ,कभी अपने अंदर झाँक कर देखा। देखना भी नहीं चाहते ,मैं मानती हूँ परेशानियों में मन विचलित हो जाता है किन्तु ऐसे में उसके पास जाएँ जो समाधान करे,जो तुम्हारे साथ खड़ा हो।समस्या की जड़ को ढूंढो और उसे समाप्त करने का प्रयास करें।  

अपने मन को इतना निर्मल कर लो ! हर 'बालरूप में कान्हा नज़र आएंगे  -तभी तो कहा गया है ,ताकि रही भावना जैसी ''प्रभु मूरत देखी तिन तैसी '' कान्हा के कई रूप अपने आस -पास नजर आएंगे। 

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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