सच- झूठ ,का निर्णय कोई कर पाया नहीं ।
क्या सच !और क्या झूठ !समझ पाया नहीं ?
सच लगता केरेले सा,सरलता से पचता नहीं।
इन दोनों को कोई ठीक से आंक पाया नहीं।
मध्य दोनों के शब्दों और सोच का फासला है।
झूठ में , सच छुपा बैठा,यह सच की परछाई है।
एक जमीन तो दूजा...... गगन की रहनुमाई है।
विरोधी दोनों, एक प्रकाश तो दूजा अँधकार है।
सच, सच्चा तब भी किसी ने अपनाया नहीं ।
झूँठ, फ़रेब को तो यह समझ ही आया नहीं ।
झूठ इमरती सा, फिर भी जा डूबा चाशनी में
झूठ , नर्म सहजता से समा जाता आँखों में।
सच ,एक परत में भी,ठीक दिख पाता नहीं ।
सामने होकर भी, समझ क्यों ?आता नहीं।
ये ,झूठ के आडंबरों में दबकर रह जाता है।
सच सा साहस समीप किसी के आता नहीं।
झूठ दुबक -दुबक कर आगे बढ़ता जाता है।
झूठ की तपिश में,इंसा झुलसकर रह जाता है।
सच का,कठोर धरातल लहुलुहान कर जाता है।
सच का लबादा ओढ़कर भी झूठ चला आता है।
न जाने, कितने मुस्कुराते चेहरों के पीछे झूठ छुपा बैठा है ?
न जाने, कितनी मोहब्बत की परतें चढ़ाई हैं ?अकड़े बैठा है।