नीलिमा ,के कहने पर आखिर पूजा ने स्वीकार कर ही लिया कि वही,चम्पक की '' डाक्टर पूजा''है। नीलिमा के समझाने पर,पूजा बोली -शायद ,आप सही कह रही हैं, कहीं न कहीं हर रिश्ते में हम स्वार्थी हो ही जाते हैं, कहने को तो माता-पिता बच्चों को पालते हैं, किंतु वहां भी माता-पिता का स्वार्थ भी, आ ही जाता है। बच्चों को , अपने बुढ़ापे की लाठी के रूप में देखने लगते हैं, उनमें अपने सपने देखने लगते हैं, उनका भविष्य अपने सपनों से जोड़ लेते हैं, उनके सपनों के साथ अपने सपने भी जीने लगते हैं किंतु क्या किया जा सकता है ? जब स्वार्थी लोगों से पाला पड़ता है ,तो हमें भी स्वार्थी बनना पड़ता है। चम्पक और मेरे रिश्ते में प्रेम ही था, किन्तु उसके स्वार्थ के कारण मैंने क्या कुछ नहीं झेला ?
हम, हर किसी के सामने आईना लेकर तो नहीं खड़े हो सकते। दूसरे को आईना दिखाने से पहले, अपने अंदर झांकना होगा, हम कहां तक सही हैं और कहां पर गलत है ? हम भी इंसान हैं , गलतियां हमसे भी होती हैं। हां, यह बात अलग है, जिनके द्वारा हमें ठेस लगती है, दुख होता है ,सीने में जलन होती है, और उनका स्वार्थ जब हद से गुजर जाता है। तब वह क्षमा योग्य नहीं होता, कहते -कहते उसे धीरेंद्र की याद आई ? तब भी हम जीते हैं, यह जीवन है, जब तक जी रहे हैं, कठिनाई, समस्याएं ,परेशानी तो आती ही रहेंगीं। नीलिमा की आंखें नम थी, किंतु होठों पर मुस्कुराहट थी। पूजा समझ गई, इनका कहीं कोई दर्द छलक आया है। तब वह बोली-कॉफी मंगवा लूं ,
नहीं ,अब हम चलेंगे , चलो कल्पना ! चलते समय वह थोड़ा रुकी और बोली- एक बात कहूं, अपने जीवन में हमने जो भी कष्ट देखें या झेले , उनका हमें एहसास है किंतु आगे अपने बच्चों के लिए हमारा यही प्रयास रहेगा, कि उनके जीवन में कोई कड़वी यादें ना हों।
नीलिमा के चले जाने के पश्चात ,पूजा सोचती है -कह तो ठीक रही थी, जीवन है ही कितना बड़ा ? अधिकांश उम्र तो यूं ही निकल गई, नाराजगी और क्रोध में, कम से कम अपने' परम' को मैं उसके परिवार से मिलवा तो दूंगी। किंतु जब भी, चंपक के विषय में सोचती, उसे क्रोध आ जाता, और वह अपने आगे बढ़ते कदमों को वहीं रोक लेती।
हैलो ,सर !आपके लिए ख़ुशख़बरी है।
अरे नीलिमा !तुम तुमने तो बहुत दिनों पश्चात फोन किया। ये भी नहीं बताया, आजकल कहाँ हो ?
आप तो जानते ही हैं ,मेरे साथ क्या हुआ था ? मेरी कोई गलती नहीं थी ,तब भी मुझे वहां से मुँह छुपाकर आना पड़ा।
अब किया भी क्या जा सकता है ?उस समय सब कुछ तुम्हारे विरुद्ध था ,एक बार को तो मेरा विश्वास भी डगमगा गया था । अच्छा ही हुआ तुम ,यहां से चलीं गयीं ,लोगों में इतना आक्रोश भरा था ,तुम्हें छोड़ते नहीं।
मैं जानती हूँ ,सर ! अब तुम मुझे बार -बार सर क्यों कह रही हो ?अब क्या मेरी संस्था में हो ?अब मैं तुम्हारा बॉस नहीं।
जानती हूँ ,किन्तु अब आदत जो बन गयी है ,आप जानते हैं ,मेरे साथ जो भी हुआ था ,वो मेरी नौकरानी चम्पा का ही कार्य था।
यह तुम क्या कह रही हो ? वो इतना बड़ा षड्यंत्र कैसे रच सकती है ?
उसने मेरे यहाँ से हटकर ,मुंबई में एक अमीर विधुर से विवाह कर लिया उसके पैसे के दम पर,मेरे साथ ये सब कर रही थी।
ये तुम्हें कैसे पता चला ?
वो मुझे मिली थी ,किन्तु यहाँ नाम बदलकर रह रही है किन्तु उसकी हरकतें वही हैं ,ख़ैर आप उसकी बात छोड़िये !अब आप मुझे यह बताइये !यदि मैं आपको, आपके जीवन की सबसे बड़ी ख़ुशख़बरी सुनाऊँ तो आप मुझे क्या देंगे ?
तुम्हें देने के लिए ,मेरे पास है ,ही क्या ?अब जीवन में किसी ख़ुशी की उम्मीद रही ही नहीं।
वैसे आप बताइये ! आपके जीवन की सबसे बड़ी ख़ुशी क्या है ?
मुझे नहीं लगता ,अब मेरे जीवन में कभी बहार आएगी भी ,वैसे आज क्या हुआ है ? जो तुम इस तरह से पहेलियाँ बुझा रही हो।
अब आपने मेरा इनाम तो बताया नहीं किन्तु मैं आपको आपके जीवन की ख़ुशी ,आपके बेटे और आपकी पूजा से मिलवा सकती हूँ।
चम्पक के मन में ख़ुशी की एक लहर सी दौड़ी, किन्तु तुरंत ही अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करते हुए ,बोले - देखो !अब तुम्हारी उम्र हो चली है ,मेरे साथ इस तरह का मज़ाक मत करो !
मैं मज़ाक नहीं कर रही ,आप क्या मेरे देवर लगते हैं ,कहते हुए हंसने लगी और बोली -यदि आपको मुझ पर विश्वास न हो तो ,एक बार यहाँ आ जाइये ! आपको मिलवा ही देती हूँ। आपकी पूजा और आपका बेटा 'परम 'दोनों यहीं हैं।
अब चम्पक को ,नीलिमा पर विश्वास करना ही पड़ा ,उसके हाथ से फोन जैसे छूट जायेगा। आँखों से अश्रु धार बह चली ,नीलिमा कहे जा रही थी किन्तु उधर से कोई जबाब नहीं आया। सर ! सर ! आप मेरी बात सुन रहे हैं ,वो दोनों यहीं हैं ,आपके बेटे का नाम परम है ,उन्होंने फोन रख दिया ,क्या वो सही कह रही है ? ज़िंदगी ने मेरे साथ बहुत बड़ा मज़ाक किया है, मेरे कर्मों की सजा मुझे इसी जन्म में मिली है ,तो क्या मेरी गलतियों की माफी है ? पूजा !कितनी रो रही थी ?मेरा साथ चाहती थी किन्तु मैंने क्या किया ?उसके जज्बातों को ठुकरा आगे बढ़ गया। उस समय वो मेरे बच्चे की माँ बनने वाली थी ,मेरे कारण उसने क्या कुछ नहीं झेला होगा ?
मैं कैसे उससे नजर मिला पाउँगा ? कैसे उससे, अपनी गलतियों की माफी मांग पाउँगा ? वो भी ,एक बच्चे की लालसा में चली गयी। हर रोज तड़पती थी ,कहती थी -मैं तुम्हें एक बच्चा भी नहीं दे सकी ,मेरा जीना व्यर्थ है। मैं उसे संभालने का प्रयास भी करता ,तो घर में दादी और माँ की आशाओं को पूरा न कर पाने के के कारण, वो मन ही मन घुट रही थी। वो भी चली गयी और दादी भी।अब जीवन में बचा ही क्या है ? हाँ ,एक तमन्ना तो थी ,इस सम्पत्ति के वारिस की ,क्या वो सच में है ? मन में एक उमंग की लहर सी उठती और आँसुओं संग गालों पर आ थिरकती। मन नीलिमा की बात मानने को आतुर था तो दिमाग़ कह रहा था ,जल्दबाज़ी ठीक नहीं ,धैर्य से काम लेना होगा।
