रूठा -
नहीं करना विवाह, पिताजी ! मुझे ,
ऐसी लड़की से, ब्याह !जो हो देसी नार !
नहीं पहनना मुझे,उससे फूलों का हार !
तब भड़कते बेटे को पिता ने यूँ समझाया
'' देसी नार ही बसाएगी ,तेरा घर- द्वार !
कहा तेरा मानेगी, कहे एक ही पुकार !
'पति परमेश्वर' समझेगी पूजेगी, हर बार!
कहता हूँ,पुत्र ! मान ले !पिता की बात !
पढ़ी -लिखी है ,संस्कारों से बंधी है।
मां भी तेरी, उससे विवाह के लिए अड़ी है।
देहाती बीवी''जब आएगी ,तेरी ज़िंदगी बन जाएगी।
चढ़ा घोड़ी -
खूब धूम -धड़ाके, बैंड -बाजे संग ,
ले बारातियों को ,रिश्तेदारों को ,
चढ़ घोड़ी ,पहुंचा दूल्हा ! उनके द्वार !
न चाहते हुए भी ,पहनाया पुष्प हार !
ले आया उसे, सकुशल अपने द्वार !
दोस्तों ने खूब चिढ़ाया- हो गया बंटाधार !
देख उसे ,लगा ,किस्मत मेरी फूट गयी।
सुहागरात पर मुझसे पहले ही........
पलकें उसकी झपक गयीं ।
सोचा भी ,मैंने था ,अपने आप आयेगी।
दो मुझे सम्मान! पत्नी का गिड़गिड़ायेगी।
जैसा सोचा ,वैसी नहीं -
उसे गंवार समझ ,ले आया अपने द्वार !
प्रातःकाल उठ देखा,वो पढ़ रही थी,अख़बार !
जैसा सोचा ,वो, वैसी नहीं थी।
लगा मुझे ,फूटी क़िस्मत जग रही थी।
गंवार हूँ ,चाय ले आऊं,चाय संग पकौड़े भी लाऊं !
मैंने हकलाकर उससे कहा -रात तुम सो गयीं थीं ।
कई सारी रस्में निभाई ,बहुत थक गयी थी।
लगता है ,तुम भी तैयार नहीं थे।
पलंग पर हमारे, गुलाब नहीं थे।
मैंने क्षणभर को उसको चौंककर देखा।
उसके चेहरे पर आई ,व्यंग्य की रेखा !
हम बस ,यही सब सोच रहे थे।
क्या ''देहाती बीवी ''से वार्तालाप कर रहे थे ?
अजब -
मेरे संग शहर,जाने के नाम पर......
वो तनिक मुस्कुराई ,और शरमाई !
बहुत सोचा मैंने , उसने ही गुत्थी सुलझाई।
गांव में ,भले ही पली -बढ़ी हूँ।
देहाती हूँ ,पर गंवार नहीं हूँ।
गांव भी अब ,गंवार नहीं रहे।
साधन सभी, गांवों में भरे पड़े हैं।
शहरों से देहाती, आज भी स्वस्थ बड़े हैं।
शहर में भी लोग ,देहात से आए हैं।
शहरों में आ ,अपने देहात को भुलाये हैं।
वो तो संस्कारों की बात है ,
कोई भी शहरी ऐसा न होगा ,
जो आज भी गांव से जुड़ा न होगा ।
गांव में रहने वाला गंवार नहीं होता।
देहात में रही, पली बढ़ी ,देहाती बन गयी।
उसकी बातें सुन लगा, जैसे शामत आ गई।
मैं पूछता -कौन कहता ?देहाती मेरी लुगाई !
मेकअप -
जब मेरी बीवी मेकअप लगाकर आई।
सामने देखकर भी ,पहचान न आई।
कितना रूप- रंग बदल गया था ?
देख उसे......
मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व हिल गया था।
क्या सुंदरता , उसने पाई ?
यह बात मुझे बाद में , समझ आई।
मैंने देहाती नहीं ,'चतुर 'नार है पाई।
उसने रंग अपने, सभी मुझे दिखलाये।
तब नारी के विभिन्न रूप समझ आये।
सम्मान -
बातों ही बातों में ,मैंने की उसकी अवहेलना !
यह उसने एहसास कराया।
उस देहातिन ने जब अपना रंग दिखलाया।
मैं चौके मार रहा था ,वो छक्के उड़ा रही थी।
बात -बात में, गलतियों पर ताने सुना रही थी।
उसे गंवार समझ मैंने ,उसका दिल दुखाया।
नहीं,वह गंवार है ,इसका एहसास कराया।
आखिर वो भी तो इंसान है।
उसके भी कुछ अरमान हैं।
हर कोई सीखकर नहीं आया।
यही किस्सा, उसने मुझे समझाया।
सम्मान दिया है ,आपको !
लानत है ,मुझ पर यदि वो ही सम्मान नहीं पाया।
उस गंवार ने ही मुझे जीवन का अर्थ समझाया।
मालकिन -
पहले मेरी बीवी बनी ,फिर बच्चों की माँ !
घर की बहु बन ,की सास -ससुर की सेवा !
न जाने ,उसने कैसा जादू सब पर फेरा ?
खा रही ,आजकल दूध -मलाई मेवा !
घर -गृहस्थी संग, हमें संभाला !
घर के कोने -कोने में ,उसका बोलबाला !
आश्रित हम सभी ,उसके !
प्रेम का जो उसने बीज बो डाला !
लगा, हम सबके दिलों पर ताला
घर की कुँजी बनी ,सोचते -काश !ऐसी हो हर बाला !
सरेआम आम लूट लिया ,
घर ही नहीं ,दिल अपने नाम किया।
आज सब पर हुकुम चलाती है।
मालकिन बन हम पर बातों के चाबुक चलाती है।
गिरफ़्त हुए ,उसकी क़ैद में ,
आज वो ''ज़ालिम जेलर ''कहलाती है।