जीवन सफ़र के ,राही सभी ,
मंजिल सबकी अपनी-अपनी।
राहें सब की , जुदा - जुदा !
सोच औ कर्म की इस भूमि में,
कुछ लिख दी जातीं , मंज़िलें !
रेखांकित हो आईं, करतल पर,
कुछ ' मानस पटल'' की रेखा।
किस्मत का खेल किसी ने न देखा।
तय मंजिल सभी की, अपनी -अपनी।
चलें, किस राह ? अनजान सफ़र !
दिखती नहीं, वह क़िस्मत रेखा !
दो राही -
हम दो राही....... ,
रस्ते थे,न्यारे -न्यारे !
आज मिले दो पथिक...... ,
लगे, इक दूजे को प्यारे !
मंजिल की तलाश में ।
मंजिल अबूझ पहेली ,
नहीं यह किसी की सहेली !
धुंधले से , आकार हैं ,
सोच का आधार है
पहुंचना कहां ?ये सवाल है।
तुम ! राह में, साथी बने,
''हमराही ''हो गए।
आलंबन न दे ,मुझको ,
तुम ,बेवफ़ा हो गए ।
राही बन, हम साथ थे,
मंजिलें थीं, जुदा-जुदा !
तुम ही नहीं,
मंजिल पाने की धुन में,
क्या,कुछ छूट गया ?
रिश्ते छूटे ,बंधन टूटे ।
अनजान मंजिल की ओर,
हम बढ़ते चले ।
पहुंचे कौन ,कहाँ ?
मंजिल ,अपनी -अपनी।