Balika vadhu [29]

पहली बार जब, ''सरस्वती''' अरशद' से मिली थी, तब वह एक बगीचे में बैठी हुई थी। बहुत देर से एक लड़का ,उसे देखे जा रहा था। जब वह उधर देखती तो नजरें घुमा लेता। पहले तो सरस्वती ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया किंतु उसके इस तरह बार-बार देखने पर, सरस्वती उसके करीब पहुंच गई और बोली -ए मिस्टर ! इस तरह क्यों घूर रहे हो ?

शायद ,अरशद को ,इस बात की उम्मीद नहीं थी कि इस तरह यह लड़की उसके समीप आकर, उससे इस तरह का सवाल पूछ बैठेगी , इसलिए थोड़ा वह सकपका गया और बोला -मैं आपको नहीं देख रहा हूं, मैं तो यहां पर, फूलों और पेड़ पौधों को देख रहा हूं। आप मुझे गलत समझ रही हैं। 

मुझे बेवकूफ बनाने का प्रयास मत करो ! एक लड़की को लड़के की नजर का पता चल जाता है ,तुम  मुझे ही घूर रहे थे। 


ऐसा कुछ भी नहीं है, तभी वह एकदम से बोल उठा -यदि आप मेरी नजरों को पहचान सकती हैं, तो बताओ ! मेरी नजरों में क्या है ? तुम लड़कियां तो लड़कों की नजर को पहचान जाती हैं। 

वही तो मैं कह रही हूं, तुम्हारी नजर को मैंने पहचाना और मुझे पता चला कि तुम मुझे ही, देख रहे हो। 

गलत जवाब ! कहकर वह मुस्कुराया और बोला -सड़क से उसे पार देख रही हो , वहां हमारी दुकान है, वहां पर बहुत भीड़भाड़ और धुआं हो जाता है इसलिए मैं यहां आकर बैठ जाता हूं और दुकान पर भी नजर रखता हूं और मेरे किसी भी कारीगर को पता भी नहीं चलता कि मैं कहां हूं। हां, यह बात भी सही है, जब मैंने  आपको अकेले यहां पर बैठे हुए देखा, तो नजरें  इधर-उधर घूमती ही हैं , तो आपकी तरफ भी चली गईं किंतु मैं तुम्हें घूर नहीं रहा था। 

अभी तो आप बोल रहे थे इतनी जल्दी तुम पर आ गए। पहले तो सरस्वती जाने लगी, किंतु रुक कर उसने पूछा -किस चीज की , तुम्हारी दुकान है ?

खाने- पीने का सामान बनता है, बहुत ही लज़ीज खाना बनता है , कभी आइएगा, हमारी दुकान पर अब तो हमारी जान -पहचान भी हो गई। 

तुमसे किसने कहा- कि हमारी जान -पहचान हो गई। 

अभी तो हुई है, आप मुझे जान गई हैं  कि जो सामने है , वह हमारी ही दुकान है, और मेरा नाम 'अरशद 'है। मैं पढ़ा -लिखा हूं और नौकरी भी करता हूं। इस दुकान पर अधिकतर मेरे अब्बू ही बैठते हैं किंतु आज छुट्टी है इसलिए मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी गई है, किंतु मुझे धुएं की,आदत नहीं है इसलिए यहां आकर बैठ गया। ताकि अब्बू की बात का मान भी रखा जाए, कारीगरों पर निगाह भी रहे। वैसे आपने मेरा नाम तो जान लिया किंतु अपना नाम नहीं बताया। 

इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, कहकर सरस्वती वहां से उठकर आ गई। कुछ दिन तक तो वह उस बगीचे में गई ही नहीं, फिर एक दिन सोचा -जाकर, उस दुकान पर देखती हूं, क्या लजीज खाना मिलता है ? सब' नॉनवेज' ही होगा।  यह सोचकर मैं दुकान पर गई और खाने के लिए ,कुछ शाकाहारी मांगा, उसकी बात सुनकर, वहां बैठे अन्य लोग भी मुस्कुराए , तभी एक व्यक्ति उसके लिए, एक पराठा लेकर आया, जो मेवों से सजा हुआ था। ये क्या है ?

ये शाकाहारी है ,आप इसे खाइये !बहुत स्वादिष्ट लगेगा। 

इसे क्या कहते हैं ?

इसे ''शीरमाल ''कहते है।आप इसे खाइयेंगी तो बहुत अच्छा लगेगा। 

ये किसकी दुकान है ? तभी एक आदमी अंदर से आकर बोला -क्यों, क्या  बात है ?

उस व्यक्ति को देखकर ,सरस्वती थोड़ा घबरा गयी और उस सामान को लेकर वापस घर आ गयी ,वे खाने में बहुत अच्छे लग रहे थे। कुछ नया खाने को मिला ,अब यही लाया करूंगी। 

बात आई गयी हो गयी ,एक सप्ताह पश्चात ,उस दिन भी अरशद वहीं बैठा था। आज वह सरस्वती को देखते ही वो बोला -तुम मेरा पीछा क्यों कर रही हो ?

क्या मतलब ?मैं भला तुम्हारा पीछा क्यों करने लगी ?

जब भी मैं यहाँ आता हूँ ,तुम भी आ जाती हो। 

मैं यहाँ धूप लेने के लिए आती हूँ किन्तु तुम अपनी दुकान पर क्यों नहीं बैठते ? यहाँ आ जाते हो। 

मेरी इच्छा मैं कहीं भी बैठूं ?उस दिन तो तुम्हें बताया था कि वहां छोंक और धुएं के कारण नहीं बैठ पाता। 

वहां ऐसा कुछ भी नहीं है ,दरअसल वो दुकान तुम्हारी नहीं है ,इसीलिए यहाँ बहाना बनाकर  बैठे हो। मैं उस दुकान पर गयी और वो मेवों भरा परांठा लाई भी थी।  

इसका मतलब तुम मेरा पीछा कर रहीं थीं, और मेरे विषय में जानना चाहती थीं। मुझे सब पता है ,मेरे अब्बू को देखकर डरकर भागी।

नहीं ,मैं कुछ अलग सा खाने के लिए लेने गयी थी। 

उसे ''शीरमाल ''कहते हैं ,परांठा नहीं, कहते हुए उसने अपने पास रखा एक लिफाफा उसकी  तरफ  बढ़ाया। 

इसमें क्या है ?

तुम्हारा पराँठा ,कहकर वो मुस्कुरा दिया। 

मैं इस तरह किसी से,कोई चीज नहीं लेती। 

ठीक है ,कहकर उसने 'शीरमाल' उस लिफाफे से निकाला और खाने लगा,बोला -जहाँ तुम नौकरी करती हो ,उससे थोड़ी दूर पर ही मेरा भी दफ्तर है। 

तुम, क्या मेरा पीछा कर रहे थे ?

नहीं !

फिर तुम्हें कैसे मालूम हुआ ?मेरा दफ्तर कहाँ है ?

जिस तरह तुम मेरा पता लगाने के लिए ,हमारी दुकान पर गयीं थीं ,यह दुकान किसकी है ?पूछा था ,न..... 

नहीं तो.... हड़बड़ाते हुए सरस्वती बोली। तुम्हारे पास क्या सबूत है ?मैं वहां गयी थी ,पहले तो ये परांठा और दूसरा हमारी दुकान का सी,सी. टी. वी. कैमरा कहते हुए ,उसने मुस्कुराकर फिर से वो परांठा सरस्वती के सामने कर दिया अबकी बार बिना ना नुकुर के सरस्वती ने खाना आरम्भ कर दिया। इस तरह दोनों बातचीत करने लगे ,दोनों मिलने लगे, दोस्ती हो गयी। 

सरस्वती ! सरस्वती ! कहाँ खोई हुई है ?की आवाज ने, उसे उसके विचारों से बाहर ला दिया। उसकी मां उसे  पुकार रही थी, वह अपने विचारों से बाहर आकर, हड़बड़ा कर उठ खड़ी हुई। तुम अभी तक तैयार नहीं हुई , तैयार ही तो हूं। मां ने अपनी बेटी को, नजरभर कर देखा। कितनी बड़ी हो गई है ? कितनी सुंदर लग रही है ? उसे लड़के वालों की नजर से, तोलने का प्रयास कर रही थी। उन्हें मेरी बेटी पसंद तो आएगी, या नहीं। कहीं कुछ कमी तो नहीं रह गई है। 

अब चलो भी माँ !

ओ हो इतनी जल्दबाजी ! लड़के से मिलने के लिए इतनी उतावली हो रही है, खुश होते हुए, मां भी जैसे बच्ची सी बन गई, उसे अपने वह दिन याद हो आए जब, उसे भी देखने के लिए लड़के वाले आए थे। समय कैसे पंख लगाकर निकल जाता है ? आज मेरी बेटी इतनी बड़ी हो गई कि उसे देखने के लिए लड़के वाले आए हैं। 

laxmi

मेरठ ज़िले में जन्मी ,मैं 'लक्ष्मी त्यागी ' [हिंदी साहित्य ]से स्नातकोत्तर 'करने के पश्चात ,'बी.एड 'की डिग्री प्राप्त करने के पश्चात 'गैर सरकारी संस्था 'में शिक्षण प्रारम्भ किया। गायन ,नृत्य ,चित्रकारी और लेखन में प्रारम्भ से ही रूचि रही। विवाह के एक वर्ष पश्चात नौकरी त्यागकर ,परिवार की ज़िम्मेदारियाँ संभाली। घर में ही नृत्य ,चित्रकारी ,क्राफ्ट इत्यादि कोर्सों के लिए'' शिक्षण संस्थान ''खोलकर शिक्षण प्रारम्भ किया। समय -समय पर लेखन कार्य भी चलता रहा।अट्ठारह वर्ष सिखाने के पश्चात ,लेखन कार्य में जुट गयी। समाज के प्रति ,रिश्तों के प्रति जब भी मन उद्वेलित हो उठता ,तब -तब कोई कहानी ,किसी लेख अथवा कविता का जन्म हुआ इन कहानियों में जीवन के ,रिश्तों के अनेक रंग देखने को मिलेंगे। आधुनिकता की दौड़ में किस तरह का बदलाव आ रहा है ?सही /गलत सोचने पर मजबूर करता है। सरल और स्पष्ट शब्दों में कुछ कहती हैं ,ये कहानियाँ।

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