जब, मैं लिखती हूं, क़िरदारों में ,बँट जाती हूं।
समेट, अपने आप को........
स्वयं से ही सवाल, स्वयं ही जवाब देती हूं।
स्वयं ही माँ , तो कभी बेटी,बहु बन जाती हूं।
समेट अपना दर्द पन्नों पर, जीवन तलाशती हूं।
भरती बिन पंखों उड़ान,धरा पर छा जाती हूँ।
स्वयं बनती सवाल, उलझन को सुलझाती हूं।
जब किरदारों में बँट जाती हूं,
लम्हों को स्मरण कर ,स्वयं को खोजती हूँ।
जीवन सफ़र मेरा अपना,तब ' मैं 'होती हूं।
चुरा लेती हूं, कुछ लम्हें !अपने लिए जीती हूँ।
अपने लिए जब......... अकेली 'मैं 'होती हूं।
उन किरदारों, को अपने में जीती हूं।
बँट कर भी मैं ,मैं होती हूं।
जब मैं लिखती हूं, ख्वाबों को जीती हूं।
दर्द को महसूस कर, दवा भी बनती हूं।
कांटों में उलझी भी, कभी मुस्कुराती हूं।
कभी जी उठती हूं तो कभीबुझ सी जाती हूं।
कभी स्वयं की प्रेरक बन, आगे बढ़ जाती हूं।
जब मैं लिखती हूं, जीती हूं ,उन लम्हों को,
और किरदारों में बँट जाती हूं।
खेलती हूँ ,क़िरदारों से ,वक़्त संग बह जाती हूँ।
मिल आती.... न जाने, कितनी परछाइयों से ,
इक नया जहाँ जी आती हूँ ,जब मैं लिखती हूँ।