भाग ७ -
कृति के , जब विवाह की तैयारी हो रही थीं , सभी रिश्तेदारों को 'निमंत्रण पत्र 'दिया गया था। उसकी चचेरी बहन को कुछ दिन पहले ही बुला लिया गया था। घर में बहू -बेटियों का होना अच्छा होता है, उनके रहने से रौनक आ जाती है। कृति की मौसी की लड़की, थोड़ा उदास थी। वह कृति से बहुत बड़ी थी। उसका पति एक व्यापारी है । सुनने में आया था ,उसे भी ससुराल अच्छा मिला है और उन लोगों ने भी कोई' दहेज 'नहीं लिया है लेकिन उसे उदास देखकर, कृति के घर वालों को लग रहा था अवश्य ही इसकी जिंदगी में कुछ चल रहा है किंतु यह कुछ भी नहीं बता रही है।
अभी बाण और हल्दी की रस्में चल ही रही थीं , तभी एक दिन अचानक सुमन बोल उठी -मौसा जी इसको 'दहेज' में क्या दे रहे हैं ?
दीनानाथ जी, ने सुमन की तरफ देखा और बोले -बेटा जो हमें देना है वह तो हम देंगे लेकिन' दहेज 'देना, और लेना दोनों ही, अच्छे नहीं है। भला हो ,भगवान का, और कृति की किस्मत का कि उसे ऐसा लड़का मिला है वे लोग दहेज नहीं मांग रहे हैं। तुम्हारे पिता ने भी तो बिना दहेज तुम्हारी शादी की थी।
यह तो अच्छी बात है, मैं यह भी जानती हूँ कि मेरा विवाह बिन दहेज़ के हुआ था ,किंतु आप अपनी बेटी को क्या देंगे ?
मुझे तो नहीं लगता कि हमें दहेज देना चाहिए, दीनानाथ जी बोले -तुम हमसे ऐसा क्यों पूछ रही हो ? तुम्हारे ससुराल वालों ने भी तो दहेज नहीं लिया था।
अपने अनुभव के आधार पर ही तो कह रही हूं, जो देना है ,बेटी को अभी दे दो ! उसका अधिकार भी तो बनता है।
हां ,हां मैं ,जानता हूं, यह कानून है , संपत्ति पर बेटियों का भी अधिकार होता है किंतु तुम ऐसी बातें क्यों कर रही हो ? सभी घर वाले उसकी तरफ देखने लगे। वह मन में न जाने कितना दर्द छुपाए बैठी थी ? अचानक ही रोने लगी।
शांत हो जाओ ! तुम क्यों रो रही हो? कृति ने उससे पूछा। क्या तुम्हें मेरे विवाह की खुशी नहीं है ? क्या तुम नहीं चाहती ,कि मेरा विवाह अच्छे परिवार में हो।
रोते हुए सुमन बोली -कौन नहीं चाहेगा कि उसकी ससुराल वाले अच्छे हों , उसके अपने मायके वाले उसे प्रेम करें, किंतु घर की बात घर में ही रहे इसलिए कोई किसी से कुछ कहता नहीं है -किंतु आज मैं अपने आप को रोक नहीं सकी और मैं तुम्हें बता देना चाहती हूं। मेरे पापा भी तो 'दहेज विरोधी 'रहे हैं , और उन्होंने बिना दहेज के ही मेरा विवाह किया है।
हां हम सभी जानते हैं, यह अच्छी बात है।
किंतु आप यह नहीं जानते हैं, कि मेरे विवाह में, उन्होंने दहेज तो नहीं दिया, किंतु जब भाई का विवाह हुआ तो फट से दहेज ले लिया। उस समय उन्होंने यह नहीं कहा-'कि हम दहेज विरोधी हैं ,न ही हम दहेज देते हैं और न ही लेते हैं।' जब मैंने पापा से कहा- पापा मेरा नेग भी तो बनता है, तो कहने लगे- 'क्यों लालची बनती हो ? जब मैं अपना नेग़ मांगा तो मैं लालची हो गई और जो कुछ भी भाई के विवाह में आया ,सब समेट कर रख लिया। जब मैंने यह पूछा -कि तुमने मुझे दहेज में कुछ नहीं दिया था तो अब क्यों ले रहे हैं ?तो कहने लगे -वे लोग अपनी प्रसन्नता से दे रहे हैं, हमने उनसे कोई दहेज नहीं मांगा।
यह बात मैं जानता हूं, दीनानाथ जी बोले -किंतु यह बात करने का तुम्हारा उद्देश्य क्या है ? तुम कहना क्या चाहती हो ?
मैं यही कहना चाहती हूं, कि मेरे परिवार वालों ने मुझे धोखा दिया है।
क्या बात कर रही है ? आश्चर्य से कृति बोली।
हां ,यही सब हुआ है, मेरे पति का व्यापार, धीमा पड़ गया। वे कर्जदार हो गए, चिंता होने के कारण, बीमार भी पड़ गए। ऐसे समय में,मैं अकेली पड़ गई थी। मेरे सास - ससुर बुजुर्ग थे ,वह कुछ नहीं कर सकते थे। मैं अकेली घर के कार्य भी करती और बाहर भी पढ़ाने जाने लगी।
ऐसे समय में मैंने सोचा- क्यों न मैं ,अपने घर वालों से थोड़ी मदद ले लूं ,क्योंकि कर्जदार बार-बार मेरे दरवाजे पर आ रहे थे। तब मैंने अपने घर वालों से मदद मांगी किंतु उन्होंने स्पष्ट रूप से इनकार कर दिया। उन्हें लग रहा था- कि हमारा पैसा देखकर ,इसे लालच आ रहा है और यह किसी न किसी बहाने से, हमसे पैसा लेना चाहती है। उनकी ऐसी सोच देखकर मुझे बड़ा दुख हुआ। परेशान होकर, तब मैंने उन लोगों से कहा -इस संपत्ति में मेरा भी हिस्सा बनता है।
मेरी बात सुनकर सबसे पहले तो मेरी मां को ही क्रोध आया , और बोली -तुझे अपने भाइयों से हिस्सा लेते हुए शर्म नहीं आई , पता चलने पर भाइयों को भी दुश्मन नजर आने लगी। किसी ने मेरी सहायता नहीं की। अब मेरा क्रोध उन पर बढ़ गया था कि ऐसे समय में भी मायके वाले साथ नहीं खड़े हैं तो किस बात का परिवार! यही सोचकर मैंने , अपनी संपत्ति के लिए, दावा ठोक दिया।
रोते हुए सुमन बोली -आज मैं, अपने हिस्से के लिए, अपने ही परिवार से लड़ रही हूं, हम बहन -भाई दुश्मन बन गए हैं। बेटियों को कह देते हैं -'कि यह घर भी तुम्हारा है ,वह घर भी तुम्हारा है , किंतु उन घरों में, मैं कहां हूं?' कम दहेज लाने के कारण ,मेरी सास ने मुझ पर बहुत अत्याचार किये , मैंने बहुत कुछ सहा, सहन किया। बात- बात पर मुझे ताने सुनाती थी, किंतु मेरे माता-पिता के'' कान पर जूँ तक नहीं रेंगी '', उन्हें यह एहसास नहीं हुआ कि यह उस घर में, कैसे जीवन काट रही होगी ? और जब मुझे अपने परिवार की आवश्यकता पड़ी और मैंने चाहा -'कि मेरे भाई और मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा हो तो ,मेरे साथ कोई नहीं था। ''
कहने को मैं ,उनकी बेटी हूं, किंतु अब दुश्मन हो गई हूं। संपत्ति के अधिकारी बेटियां होती हैं, किंतु कोई देना नहीं चाहता, विवाह के समय पर इसलिए नहीं देते कि वह 'दहेज़ ' है और बाद में, तो वह उम्मीद ही नहीं करते कि ऐसा कभी कुछ होगा अपने लोगों से ही लड़ाई लड़नी पड़ती है, उनके दुश्मन बन जाते हैं।
मैं मानती हूं, 'दहेज दानव है', किंतु बहू हो या बेटी, इन दोनों ही रूप में हमारा अधिकार कहां है ? हम कहां हैं? यह पैसे का लालच, किसी भी रिश्ते को नहीं छोड़ता है। जिनके माता-पिता को अपनी बेटी को कुछ देना होता है, वह देते ही हैं, हां यह बात यह अलग है कि लड़के वाले मांग कर, अपना अपमान ही करवाते हैं। उस समय तो बेटियों को वो लड़के वाले बुरे ही लगते हैं किन्तु जब वास्तविकता से सामना होता है तो मेरी तरह रोती ही हैं। वरना यह उपहार, यह सम्मान, उस बेटी को मिलना ही चाहिए। बाद में संपत्ति में, कोई भी अधिकार नहीं देता, कुछ न कुछ तिगड़म लगाकर, उसे वहां से हटा देते हैं वह न ही, इधर की रहती है और न ही उधर की, इसीलिए मैं आप लोगों से पूछ रही थी, कहते हुए रोने लगी।
दीनानाथ जी ने, उसके दर्द को समझा और बोले -हम तुम्हारा दर्द समझ सकते हैं, मेरे दो बच्चे हैं, दोनों के हिसाब से ,मैंने अपनी संपत्ति को बाँटा हुआ है। तुम सही कह रही हो , बाद में देते हुए ,सब पर जोर पड़ता है किंतु अभी तक तो मेरी जितनी भी सम्पत्ति है उसी के आधार पर इसका विवाह कर रहा हूं और जो मुझे देना है वह इसे दे दूंगा मैंने अपनी बेटी को सम्मान के साथ जीना सिखाया है ,उसका जो भी हिस्सा होगा मैं उसके नाम बैंक में कर दूंगा। ताकि आगे चलकर तुम लोगों की तरह ,बहन -भाइयों में किसी प्रकार का झगड़ा न हो। अब तो खुश !!
इस विषय में मैं तुम्हारे परिवार वालों से भी बात करूंगा, ताकि वह तुम्हारी परेशानी को समझ सकें। समय रहते ही, हम बड़ों को भी समझ जाना चाहिए, कि आगे रिश्तो में ,किसी प्रकार की दरार न पड़े ,बेटी के लिए तो हमेशा मायका रहेगा ही ,किंतु व्यवहार ऐसा हो कि उसका मायका न टूटे ! किन्तु यह भी नहीं होना चाहिए ,''दहेज़ नहीं तो, शादी नहीं। ''