बड़ा ही अच्छा विषय चुना है -''दहेज नहीं तो, शादी नहीं'' हम बचपन से ही दहेज प्रथा के विरुद्ध ,नारेबाजी सुनते आ रहे हैं। ''दहेज ही दानव है,'' दुल्हन ही दहेज है। '' दहेज के कारण ,बहुएं जलाई जाती हैं। मुझे लगता है- हर सामान्यजन इसका विरोध करता नजर आता है किंतु जब बात अपनी पर आती है तो इज्जत का सवाल बन जाता है ,पैसा आता , किसे बुरा लगता है ? पैसे के लिए ही तो, दुनिया 'रात -दिन एक कर रही है।' नौकरी के लिए धक्के खा रही है ,इस शहर से उस शहर ,इस देश से उस देश, किंतु आवश्यकताओं की पूर्ति होती नजर नहीं आती। अब ऐसे में कहीं से'' छप्पर फाड़ ''अर्थ की प्राप्ति हो तो, क्या बुराई है ?जब देना पड़ता है तो ''दहेज ''बन जाता है और जब मिलता है, तो सम्मान की बात है, उपहार है। ऐसी दोहरी मानसिकता को आप क्या कहेंगे ?
विवाह एक'' धार्मिक और सामाजिक संस्कार ''है, इसमें दो परिवारों का ही नहीं ,दो आत्माओं का मिलन भी बतलाया जाता है। एक दूसरे के संस्कार, एक दूसरे की अच्छाई -बुराई को जीवन भर निभाना है या वहन करना भी कह सकते हैं। दहेज के कारण ही आज, लड़के और लड़कियों की उम्र बढ़ती जा रही है। कुछ लोग मुंह खोलकर मांग भी लेते हैं तो कुछ...... इशारा कर देते हैं। विवाह में दो आत्माओं का ही नहीं ,इसमें दो परिवार भी जुड़ते हैं। क्या ये सभी शाब्दिक बातें है ?किन्तु इनकी वास्तविकता तो कुछ और ही है। इन सबमें बेटी को क्या मिलता है ?ससुराल का प्यार, आशीर्वाद ,या फिर उलहाना ,अवहेलना ! मायके वालों द्वारा सिर्फ अपना उत्तरदायित्व पूर्ण हुआ कहकर निश्चिन्त हो जाना। उसका रिश्ता एक व्यक्ति से ही नहीं ,एक नए परिवार से जुड़ता है ,उसके सुख -दुःख ,सब अपने होते हैं। कुछ लड़कियाँ उन परिस्थितियों से समझौता कर लेती हैं तो कुछ सामंजस्य बैठाने में परेशानी महसूस करती हैं। ज़्यादातर ये वो लड़कियां होती हैं ,जो अपनी इच्छा से ,या शर्तों पर जीना चाहती हैं। ख़ैर छोड़िये ! ये बहस बहुत लम्बी खिंच जायेगी।
श्वेता भी ,अब चौबीस की हो चुकी है,उसके घरवालों ने उसके लिए लड़का देखना आरम्भ कर दिया है। घरवाले भी पहले लड़का देखते हैं कितना पढ़ा -लिखा है ?क्या करता है ?शराब या कोई बुरी आदत तो नहीं ,परिवार में कितनी सम्पत्ति उसके हिस्से आएगी ?आएगी भी या नहीं। हर माता -पिता अपनी बेटी के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए ,ये प्रक्रिया करता है।ये सब तो बाहरी छानबीन है किसी के मन में क्या है ?कोई नहीं बता सकता।
भाग २ -
कृति के मन में ,पैसे की कोई कीमत नहीं ,वह अपनी शर्तों पर ही जीती है,उसे लगता है ,विवाह होने के पश्चात वह अपनी ज़िंदगी को खुलकर जियेगी इसीलिए जब उसके माता -पिता ने उसके लिए लड़का देखने की बात कही तो उसने इंकार नहीं किया। अच्छा पैसे वाला परिवार देखकर ,वो उसका विवाह कर देना चाहते थे किन्तु तभी कृति को लगता ,जब मेरे माता- पिता इतना पैसा लगाकर लड़का ख़रीद ही रहें हैं तो मैं अपनी शर्तों के हिसाब से जियूँगी। उसने लड़के को पहले ही बता दिया था ,वह घर का कोई भी कार्य नहीं करेगी। पिक्चर देखने जाना ,दोस्तों के संग घूमना ,मुझे अपनी ज़िंदगी में कोई भी टोका -टाकी पसंद नहीं।
कृति की सभी मांगें, जब लड़के ने अपनी माँ को बताईं तो बोलीं -हमारे घर में क्या किसी चीज की कमी है ?इसमें कौन से 'सुर्खाब के पर लगे हैं '? हमें एक से एक लड़कियां मिल जाएँगी ,कहकर उन्होंने उस रिश्ते को वहीँ विराम दे दिया।
बेटी के जिद्दीपन ,उसके लापरवाह रवैये के कारण भी, लड़के आते और चले जाते। माता -पिता परेशान थे ,चाहे कोई कितना भी 'दहेज़' ले ले ?कोई अच्छा सा लड़का मिल जाये ,जो उसे निभा सके।
श्वेता के पिता एक छोटे से व्यापारी हैं ,बस घर के खर्चे चल जाते हैं। अब तक बच्चों की शिक्षा में और घर के खर्चों में सब व्यय हो जाता है। उनकी पत्नी ने एक दो बार पैसे जोड़ने का प्रयास भी किया किंतु कोई ना कोई ऐसा खर्चा सामने आ ही जाता कि वे जुड़े हुए ,पैसे भी खर्च हो जाते हैं। विवाह में इतने पैसों से क्या होगा ? यही सोचकर उन्हें खर्च कर देती। हां, यह अवश्य था ,बस किसी से कर्जा नहीं लिया था । जो कमाया खर्च किया। साधारण जिंदगी बसर कर रहे थे। श्वेता पढ़ने के पश्चात, अपने खर्च के लिए छोटी-मोटी नौकरी कर ही रही थी और अपनी आगे की शिक्षा भी जारी रखे हुए थी। माता-पिता को अब यही उम्मीद थी, कि हमारी लड़की पढ़ी-लिखी और गुणवान है ,लड़के को ऐसी लड़की मिल जाएगी जो नौकरी भी करती है। ' दहेज तो एक बार आता है, किंतु यह तो हर महीने कमा कर लायेगी। इसी लालच में कोई न कोई तो विवाह कर ही लेगा।
उन्हें दामाद तो ऐसा चाहिए था, जो पढ़ा -लिखा हो ,अच्छा कमाता हो। भविष्य में, बेटी को किसी भी प्रकार की परेशानी न हो। उसका मान -सम्मान बनाकर रखें। जैसे हमने अपने जीवन में परेशानियां उठाईं इन लोगों को परेशानियां न उठानी पड़ें, दोनों मिलकर काम करेंगें। किंतु यह उनकी अपनी सोच थी -जब भी कोई आता, लड़की पसंद तो आ जाती है, श्वेता ,पारिवारिक, व्यवहारिक लड़की थी। नौकरी भी कर रही थी, किंतु जब लड़केवाले पिता, के व्यापार की तरफ देखते, उनसे पूछते -क्या कर रहे हैं ,कैसा व्यापार है ? कुछ लोग तो अंदाजे से ही ,आकंलन कर लेते। यह क्या दे पाएगा ? और चुपचाप उठकर चले जाते।
मां ने, अब श्वेता की कमाई को भी जोड़ना, आरंभ कर दिया था। अच्छे कमाऊं लड़के इतनी आसानी से कहां मिलते हैं ? समय रहते उन्हें इस बात का एहसास होने लगा, ''पैसे को पैसा ही खींचता है '', चाहे इन लोगों के पास कितना भी पैसा हो ? किंतु पैसे की भूख कभी समाप्त नहीं होती।इन्हें मान -सम्मान और दिखाने के लिए भी पैसा चाहिए। जितना ज्यादा लड़का कमाता है, उतना ही ज्यादा दहेज भी चाहिए। मतलब यही हुआ, ''दहेज नहीं तो शादी नहीं'' किसी ने यह नहीं सोचा -कि श्वेता एक संस्कारी ,पढ़ी-लिखी, लड़की है।''दुल्हन ही दहेज़ ''है ,ऐसे में यह श्लोगन व्यर्थ नजर आता है। पैसे के सामने संस्कारों की कोई कीमत नहीं ,पैसा होगा, तो संस्कार तो अपने आप ही आ जायेंगे। भूखे पेट संस्कारों का क्या करेंगे ?देखा नहीं, लड़का कितना कमाता है ? सारी उम्र कमायेगा ,आगे पैसे बढ़ेंगे ही ,तुम्हारी बेटी को ही ख़ुशियाँ मिलेंगी। हमारा जो कुछ भी है ,तुम्हारी बेटी का ही तो हो जाने वाला है ,मालकिन तो यही बनेगी। हम कितने दिनों के हैं ?एक एहसान ये भी.....