चतुर को जब पता चलता है, कि उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है ,वह बड़ा ही प्रसन्न हुआ और अपने बेटे और पत्नी के लिए बाजार से कुछ सामान लेने के लिए चल दिया। रास्ते में उसे, उसके मकान -मालिक मिले जो उसे अपनी बेटी को पढ़ाने के लिए कह रहे थे। यह सब यूँ ही नही हुआ बल्कि चतुर को कई दिनों तक,मकान -मालिक की बेटी को बहलाने फुसलाना पड़ा। अक्सर वह अपने घर के बगीचे में बैठकर पढ़ती रहती थी। चतुर अक्सर उसे देखकर चुपचाप निकल जाता किन्तु अब चतुर के बहकावे में कई लड़कियां आ चुकी थीं,और अभी तक चतुर पर कोई आंच नहीं आई। कुछ शर्म के कारण ,कुछ माता -पिता के डर से ,कुछ बदनामी से बचने के लिए ,चतुर का दिया मीठा ज़हर कभी हंसकर तो कभी रोकर पी जातीं। उसे लगता वः जो भी कुछ कर रहा है ,अपने परिवार के लिए ही तो कर रहा है।
उन लड़कियों को ऐसे ही नहीं जाने देते ,कुछ को चतुर तो कुछ को ,फोटोग्राफर पसंद करता ,उनसे उनकी रातें भी रंगीन हो जातीं। दिन के उजाले में ,ऐसे शरीफ दिखलाई पड़ते,उन्हें देखकर कोई कहना तो दूर, सोच भी नहीं सकता कि असल में ,इनके चेहरे कितने भयंकर हैं ?अब चतुर की दृष्टि ,अपने मकान -मालिक की बेटी पर भी थी। वह अक्सर उसके लिए चॉकलेट लाता था और चुपचाप उसे दे देता था।
सलोनी आठंवी कक्षा की छात्रा है , आरंभ में तो उसने चॉकलेट लेने से इनकार किया किंतु जब उसे चतुर ने समझाया कि मैं भी तुम्हारे घर के सदस्य की तरह ही हूं और इसी घर में रहता हूं ,तो मुझसे चॉकलेट लेने में क्या हर्ज़ है ? यह बात तो उसे सही जँच गई तबसे वह उससे चॉकलेट लेने लगी। एक दिन ,चतुर को चॉकलेट देते हुए ,सलोनी की माँ ने देख लिया ,और कड़क आवाज में बोली -यहाँ क्या हो रहा है ?
चतुर न ही घबराया ,न ही ,परेशान हुआ ,तब वह सलोनी की माँ से बोला -देखिये ,भाभी जी !आज मेरा जन्मदिन है ,मैंने अपने जन्मदिन पर कुछ बच्चों को चॉकलेट बाँटी ,जब मैंने सलोनी को देखा तो इसको भी चॉकलेट देनी चाही किन्तु यह चॉकलेट लेने से इंकार कर रही है। अब आप ही इसे समझाइये !आज मेरा जन्मदिन है ,एक चॉकलेट तो ले ही सकती है।
ठीक है ,सलोनी !तुम भैया !से चॉकलेट ले लो ! सलोनी की माँ ने चतुर को उसका 'भइया 'कहकर अपने मन को संतुष्ट कर लिया ,क्योंकि भइया !शब्द एक सुरक्षित रक्षा कवच है ,इस शब्द के लग जाने से ,व्यक्ति इस रिश्ते का मान रखने के लिए ,कुछ भी गलत विचार अपने मन में नहीं लाएगा। जो उनकी गलतफ़हमी थी ,उन्होंने उसे भइया !कहा किन्तु चतुर ने उस रिश्ते को माना या नहीं ,यह उस पर निर्भर करता है। चतुर को भी तो सलोनी को बहन की दृष्टि से देखना होगा। सलोनी !चतुर से चॉकलेट ले लेती है और मन ही मन मुस्कुराती है। तब चतुर ,उन्हें भी एक चॉकलेट देता है।
जन्मदिन की बहुत -बहुत शुभकामनायें !कहकर वो उससे चॉकलेट लेकर अंदर चली जाती हैं।
तब चतुर के अनुसार 'ग्रीन सिग्नल 'मिलते ही वह उससे पूछता है , तुम कहां पढ़ने जाती हो ?
मैं 'सोमेंद्र सिंह' सर के यहां पढ़ने जाती हूं मैं भी अच्छा पढ़ा सकता हूं। तुम मुझसे पढ़ना चाहोगी।
हां हां क्यों नहीं ?
तो जैसा मैं कहूं तुम्हें मेरी बात माननी होगी। इसके बदले प्रतिदिन तुम्हें एक चॉकलेट मिलेगी।
ठीक है , किंतु मुझे तो यहां भी पढ़ना है और वहां भी पढ़ना है। वहां तो मैं पहले से ही पढ़ती आ रही हूं। किंतु वह सर तुम्हें चॉकलेट नहीं देते किन्तु यहाँ प्रतिदिन का वायदा है।
हां यह तो सही है, सोचते हुए सलोनी बोली।
यदि तुम चाहती हो ,कि मैं तुम्हें प्रतिदिन चॉकलेट लाकर दूं और भी अच्छे-अच्छे उपहार दूंगा तो तुम्हें अपने पिता से मेरे पास पढ़ने के लिए कहना होगा।
नहीं ,मैं ऐसा कभी नहीं करूंगी ? पापा नाराज होंगे।
ठीक है ,फिर मैं जैसा कहता हूं वैसे ही करना।
लड़की को ट्यूशन पढ़ाने की योजना को चतुर पहले ही तैयार कर चुका था सिर्फ उसके पिता की मंजूरी की आवश्यकता थी किंतु उससे पहले ही चतुर के पिता का पत्र आ गया और वह अपने गांव जाने की तैयारी करने लगा। बच्चे के लिए ढेर सारे खिलौने और अपनी पत्नी के लिए सुंदर साड़ी ,चूड़ियां, इत्यादि सा मान लिया। अपनी मां और पिता के लिए भी अच्छे कपड़े लिए ताकि उन्हें एहसास हो कि उनका बेटा शहर में रहकर भी उनका कितना ख्याल रखता है ? फिर यह तो खुशी का माहौल है। शीघ्र ही चतुर ने बहुत सारा सामान ले लिया और अपने घर की ओर रवाना हो गया। इस कमरे में उसका ज्यादा कोई सामान नहीं पड़ा था बस कुछ कपड़े थे। तब वह मकान मालिक से कहता है -मैं आकर आपकी बेटी को पढ़ाऊंगा।
उस समय तक, कुछ लोग जो पैसे वाले थे ,उनके यहां टेलीफोन आ चुके थे , और उनके घरों में, टेलीफोन लग भी चुके थे। किंतु आम जनता अभी भी उसके विषय में सोच भी नहीं सकती थी। इसलिए ऐसे लोगों के लिए उनकी सुविधा का ख्याल रखते हुए'' टेलीफोन बूथ'' बनाए गए ताकि अपनी किसी परेशानी में, वह इसका लाभ उठा सकें।
जब चतुर अपने घर पहुंचा तो उसे देखकर सभी अत्यंत प्रसन्न हुए चतुर ने अपने बेटे को देखा , सफेद रूई के फ़ोहे जैसा, उजाले में तो ठीक से आंख भी नहीं खुलतीं , कितने नाजुक नरम हाथ- पैर हैं इसके ? अपनी माँ रामप्यारी से बोला।
हाँ ,जब तू हुआ था ,ऐसा ही था और अब देखो !टांड सा हो गया ,हमें भी बातें बनाने लगा।
कितना अच्छा लग रहा था ? मैं पिता बन गया, यह मेरी संतान है ,उस अनुभूति को गहराई से महसूस करने का प्रयास कर रहा था। बाबा और दादी तो खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। बहुत ही सुंदर बहू आई है, और आते ही ,उनकी गोद में उसने पोता दे दिया, उन्हें और क्या चाहिए ? चतुर ने जाते ही ,अपने घर के सामने ढोल बजवा दिए ,उसकी ख़ुशी में सम्मिलित होने के लिए ,उसके दोस्त भी आए और दावत की मांग करने लगे। ऐसी वैसी दावत नहीं, अबकी बार तो दावत में, अंग्रेजी पीने की मांग थी, कह रहे थे -'अब हम बड़े हो गए हैं, कुछ तो नया अनुभव करेंगे।' चतुर भी प्रसन्न था ,वह भी, उस खुशी के मौके को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहता था।